पहला ‘पथ के साथी’ सम्मान कवि-संस्कृतिकर्मी शोभा सिंह को
नई दिल्ली: सिद्धान्त फाउंडेशन की ओर से वर्ष 2020 का पहला 'पथ के साथी' सम्मान कवि-कथाकार और संस्कृतिकर्मी शोभा सिंह को दिए जाने की घोषणा की गई है।
सिद्धान्त फाउंडेशन की स्थापना साहित्यिक, सांस्कृतिक और सामाजिक गतिविधियों में सकारात्मक हस्तक्षेप के उद्देश्य से वर्ष 2015 में की गई थी। इस वर्ष से संस्था ने किसी एक लेखक या कलाकार को हर साल ‘पथ के साथी’ सम्मान प्रदान करने का निर्णय लिया है।
फाउंडेशन की न्यासी रचना त्यागी की ओर से जारी विज्ञप्ति के अनुसार यह सम्मान लेखकों-कलाकारों के साहित्यिक-कलात्मक अवदान के प्रति कृतज्ञता ज्ञापित करने का एक विनम्र प्रयास है। इसका उद्देश्य लम्बे समय से रचनात्मक पथ पर चल रहे साथियों की संघर्षपूर्ण यात्रा की ओर समाज का ध्यान आकृष्ट करना भी है।
इस कड़ी में पहले ‘पथ के साथी’ सम्मान के लिए शोभा सिंह के नाम का चयन किया गया है। चयन समिति में योगेन्द्र आहूजा, राकेश तिवारी, मनोज रूपड़ा, किरण सिंह, अलहद कशीकार और रचना त्यागी शामिल रहे। शोभा सिंह को यह सम्मान अगस्त माह में दिल्ली में प्रदान किया जायेगा।
शोभा सिंह का जन्म 9 जून, 1952 को इलाहाबाद में हुआ। शिक्षा-दीक्षा इलाहाबाद व दिल्ली में हुई। आपका एक कविता संग्रह ‘अर्द्ध-विधवा’ 2014 में ‘गुलमोहर क़िताब’ प्रकाशन से प्रकाशित है। दूसरा कविता संग्रह प्रकाशनाधीन है और एक कहानी संग्रह भी तैयार है। आपकी रचनाएँ ‘पहल’, ‘जनसंदेश टाइम्स’, ‘वागर्थ’, ‘जनसत्ता’, ‘नया ज्ञानोदय’, ‘आजकल’, ‘समकालीन जनमत’, ‘पक्षधर’, ‘दलित अस्मिता’ आदि पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित होती रही हैं। कवि वीरेन डंगवाल ने आपकी कविताओं पर टिप्पणी करते हुए लिखा है कि ‘शोभा का कवि व्यक्तित्व व्यापक राजनैतिक चरित्र वाली कविताओं से बेहतर उन कविताओं में मुखर हुआ है, जो चरित्र में तो राजनैतिक हैं, पर जिनके केंद्र में औरतें हैं–- लड़ती-भिड़ती, लुटती-पिटती, लहुलुहान मगर बजिद हार नहीं मानती।’
शोभा सिंह यथार्थ की विडम्बना को कविता की भाषा देती हैं। इनकी कविताएँ प्रथम दृष्टया सामान्य कविताएँ होने का धोखा रचती हैं, लेकिन उनकी सहजता के आकर्षण में उलझे हुए आप पाते हैं कि ये कविताएँ अपने समय का दस्तावेज़ रच रही हैं। पाठक के मन में चलने वाली उन बहुस्तरीय जीवन-बिम्ब बहुल कविताओं के अर्थ धीरे-धीरे खुलते हैं। जिन करुण और दारुण सच्चाईयों को बहस से बाहर रखने की कोशिश रहती है, ऐसे विषय उनके यहाँ ज़रूर मिलेंगे। शोभा सिंह का वाम राजनैतिक-सांस्कृतिक व महिला आन्दोलन से बहुत पुराना और गहरा जुड़ाव रहा है।
आइए पढ़ते हैं शोभा सिंह की एक अप्रकाशित कविता-
रुकैया बानो
एक शहर के भीतर
कई शहर की तरह
एक साथ कई किरदारों में जीती
कई घर और कई घरों की
लाडली
रुकैया बानो
परंपरागत छवि में क़ैद औरत को
नकारती
अंधेरे में रोशनी की तरह
एक नए तेवर के साथ
हमें लंबे सपनों से
बाहर निकालती
कहती - देखो
दुनिया, हक़ीक़त में बदलती है
रिश्ते एहसास से चलते हैं
समाज के आख़िरी सोपान पर
हाशिये की तय जगह पर
खड़ी थी मैं
अपनी ख़ूबसूरती का दंश
बचपन से जवानी तक भोगा
ग़रीबी और ख़ूबसूरती पर बस न था
बेची और ख़रीदी जाती रही
प्रेम बर्फ़ का ठोस गोला
जिसे चाह कर भी पिघला न सकी
बदहाल किया काली खौलती रातों ने
अंगार बरसते दिनों ने
बदलते हालात के ताने-तिश्नों ने
बहुत बार हैरान परेशान किया
भागते रहना
काम की तलाश
बच्चे थे
सिर्फ़ मेरी ज़िम्मेदारी में
उनकी बेहतरी सोचते
तरकीब लगाते
मेरी दुनिया में ढेर सारे बच्चे
कब शामिल हो गए
उनकी यातना की छटपटाहट
कब मेरी बन गई
मज़लूम औरतें
उनके वजूद में धंसे कांटे
उनसे संवाद का रिश्ता बनाना
उनकी मदद करना
संगठन की सीख
प्रयोग में उतारना
बस-जूझ जाना
स्नेह का जल
धीरे-धीरे रिसता हुआ
सूखी धरती को
फिर हरा भरा करेगा
मुझे विश्वास था
स्वाभिमान की लौ को
ज़िन्दा रखने में कामयाबी मिलेगी
यूं - कई बार पंख
परवाज़ भरते जले भी
चट्टानें टूटीं
गर्द ग़ुबार से
दम भी घुटा
लड़ाई जारी रही
दिनों का हिसाब रखती धरती ने
आसमान में रंग भरा
ऋतुओं में बहार
और
मन में नई फ़सल की आमद का सुख
लम्हा-लम्हा वक़्त
कहां-से-कहां पहुंच गया
एक सवाल
क्या एक आम औरत की तरह
तुम्हारा जीवन रहा
रुकैया बानो
वे काम जो तुम्हें
बहुत खास बनाता था
वो अपने हिस्से की धूप
जिसे
पसार दिया था तुमने सबके लिए
और जब तपन बहुत बढ़ी
तुमने अपनी छांव भी बांट दी
दुख के हथियारों का वार झेलती
शीतल चांदनी के सुकून को
रखा अपने पास
संकट में खर्च करने के लिए
सांस लेना-जीना
सिर्फ़ अपने लिए नहीं
सब के बीच
बीज की तरह बंट गई तुम
खुले दिल
दिलों को जोड़ते जाना
नफ़रत की राजनीति से बहुत दूर
मज़बूती से खड़ी
रुकैया बानो
तुम्हें सलाम!
...
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