कैसे अमेरिका और इज़राइल ने आत्मघाती कार हमलावर को जन्म दिया
कार बम के 100 साल के इतिहास को अफगानिस्तान से संयुक्त राज्य अमेरिका की घर वापसी करने से एक सप्ताह पहले एक लघु संस्करण में मंचन किया गया। इसी बीच, एक आत्मघाती बम हमलावर ने काबुल हवाई अड्डे पर हमला कर दिया, जिसमें 170 से अधिक नागरिक और 13 नौसैनिक मारे गये। अमेरिकियों ने बदले की कार्यवाई करते हुए काबुल हवाई अड्डे के बम धमाके के मुख्य सरगना को खत्म कर देने का दावा किया है। यह स्पष्ट सफलता काबुल में एक वाहन पर अमेरिकी ड्रोन हमले में छह बच्चों सहित एक ही परिवार के दस लोगों की मौत से फीका पड़ गया है। अमेरिकियों को लगा था कि वाहन विस्फोटकों से भरा हुआ था।
काबुल में जैसे-को-तैसा बर्ताव दिखाता है कि वे राष्ट्र, खासकर जो तकनीकी तौर पर बाकियों से उन्नत हैं, के पास अपने लक्ष्य के करीब आये बिना लंबी दूरी से या काफी उंचाई से बमबारी करने की क्षमता है। इसके विपरीत, विद्रोहियों को अपने दुश्मनों के उपर बमबारी करने या उन्हें खत्म करने के लिए रेंगते हुए बेहद करीब आना पड़ता है। आत्मघाती कार बम विस्फोट के मूल में राष्ट्र-राज्य की ताकत और उग्रवादी समूहों के बीच संघर्ष की विषम प्रकृति है, जिसमें गोलाबारी और तकनीकी दक्षता के मामले में अपने विरोधी पक्ष से कम महारत हासिल होने का अंतर बना रहता है।
दशकों पूर्व, अपने से ताकतवर को चुनौती देने के लिए आत्मघाती बमबारी कमजोरों का पसंदीदा तरीका नहीं हुआ करता था। इतिहासकार और राजनीतिक कार्यकर्त्ता माइक डेविस ने अपने शानदार काम, ‘बुडाज वैगन: ए ब्रीफ हिस्ट्री ऑफ़ द कार बम’, में मारियो बुडा की कहानी का वर्णन किया है, जो एक अलगाववादी इतालवी था, जो अराजकतावादी सिद्धांतकार लुइगी गैलेनी का अनुयायी था। गैलेनी के अमेरिका से निष्काषित किये जाने से क्रुद्ध, बुडा ने 1920 में मेनहट्टन में आग्नेयास्त्रों से भरी एक घोड़ागाड़ी को जेपी मॉर्गन एंड कंपनी के सामने, वाल स्ट्रीट और ब्रॉड स्ट्रीट के कोने में खड़ा कर दिया। वाहन में विस्फोट हो गया, जिसमें 40 लोग मारे गये और अन्य 200 लोग घायल हो गए थे।
मौत का वाहन
डेविस के इस नरसंहार का विवरण न्यूयॉर्क के वर्ल्ड ट्रेड सेंटर पर 2001 में हुए हमले के बाद के सर्वनाश के दृश्यों के अग्रदूत के रूप में वाल स्ट्रीट विस्फोट को दर्शाता है। वे लिखते हैं, “कार्यालय में काम कर रहे कर्मचारियों के चेहरों पर खिड़कियाँ धमाकों के साथ फट गईं, पैदल चलने वालों के उपर धातु के छर्रों से रौंद दिए गये या कांच के टुकड़ों से बिंध दिए गये ... गगनचुंबी ईमारतें पलक झपकते ही खाली हो गई थीं। दहशत के मारे भीड़ फुटपाथ पर तुड़े-मुड़े शवों के उपर से भाग रहे थे, जबकि उनमें से कुछ दर्द से तड़प रहे थे।
हिंसा के स्तर के अलावा, 1920 के वाल स्ट्रीट विस्फोट में 9/11 से एक मामले में भिन्नता थी: बुडा के अमेरिका से इटली निकल भागने के विपरीत, 9/11 के सभी हमलावर मारे गए। इन दो घटनाओं के बीच में वाहन बम से कार बम और फिर, आत्मघाती हमलावरों के वाहनों में विकसित होने का इतिहास है।
ये मौत के वाहन, समकालीन स्मृति में, मुस्लिम कट्टरपंथियों के रूप में एक परिभाषित पहलू बन गए हैं। वैसे यदि विचार करें तो श्रीलंका के तमिल टाइगर भी कार बमों का इस्तेमाल करने के मामले में उतने ही प्रवीण थे, जिसमें उनके वाहन चालक की अक्सर मौत हो जाती थी। हालाँकि, उनके इन कारनामों पर दुनियाभर का ध्यान नहीं जाता था, क्योंकि उनके शिकार न तो अमेरिकी होते थे और न ही इजरायली।
यहीं पर वह विडंबना छिपी है: अमेरिका और इजराइल ने अपने लक्ष्यों की प्राप्ति के लिए कभी भी कार बम का इस्तेमाल करने से गुरेज नहीं किया।
इजराइल का नवाचार
वास्तव में देखें तो, डेविस के अनुसार, ये इजरायली थे जिन्होंने पहली बार कार को हथियार के रूप में सफलतापूर्वक इस्तेमाल किया। 1947 से लेकर 1949 के बीच में, जिसे इजरायली स्वतंत्रता संग्राम के तौर पर याद करते हैं और फिलिस्तीनी इसे नकबा या तबाही के रूप में याद रखते हैं, में कार या ट्रक से बम विस्फोट जियोनिस्ट गुरिल्लाओं के सबसे पसंदीदा हथियार बन गये थे।
12 जनवरी 1947 को, स्टर्न गैंग, जिसका नाम इसके संस्थापक अवराम स्टर्न के नाम पर रखा गया था, जिसने इरगुन से या इजराइल भूमि में राष्ट्रीय सैन्य संगठन से अपना नाता तोड़ लिया था, ने विस्फोटकों से भरे एक ट्रक के साथ फिलिस्तीन में हैफा ब्रिटिश पुलिस थाने पर धावा बोल दिया था, जिसमें चार लोग मारे गए थे और 140 घायल हुए थे।
जल्द ही स्टर्न गिरोह में इरगुन उग्रवादी शामिल हो गए। एकसाथ मिलकर उन्होंने अंग्रेजों पर हमलों की एक लहर शुरू कर दी, जिसके पास फिलिस्तीन क्षेत्र और फिलिस्तीनियों पर शासन करने का जनादेश हासिल था। जे. बोव्येर बेल ‘टेरर आउट ऑफ़ ज़िओन - इरगुन ज्वाई लेउमी, लेही एंड द पेलेस्तिनियन अंडरग्राउंड’ में लिखते हैं: “अरबी लोगों को अंधाधुंध तरीके से खत्म करने के लिए सबसे पहले यहूदियों ने विस्फोटकों का इस्तेमाल करना शुरू किया था ... लेकिन इस बात को लंबा अर्सा नहीं गुजरा, जब अरबी लोगों ने भी दुश्मन के ही हथियारों का इस्तेमाल करते हुए पलटवार करना शुरू कर दिया था।”
इरगुन उग्रवादियों के बीच में मेनाकेम बिगिन भी थे, जो बाद में जाकर इजराइल के छठे प्रधानमंत्री बने। बेगिन ने इरगुन के दिनों के बारे में अपने संस्मरण ‘विद्रोह’ में लिखा है। कई दशक बाद, पत्रकार लॉरेंस राइट ने अफगानिस्तान में अल कायदा के शिविर में रहने वाले उग्रवादियों को ‘रिवोल्ट’ पढ़ते हुए पाया, जिसे वे सफल आतंकवाद के लिए एक क्लासिक हैंडबुक मानते थे।
वास्तव में, इतिहास खुद को विडंबनापूर्ण तरीकों से ठिठकाता है। कार बम यहाँ पर एक स्थायी परिघटना बनने जा रही थी।
सैगोन, आईआरए और अल्जीरिया
अमेरिका की वियतनाम के उपर निरंतर बमबारी के बीच विएत कांग ने जिसे आधिकारिक तौर पर नेशनल लिबरेशन फ्रंट ऑफ़ साउथ विएतनाम के नाम से जाना जाता है, ने साइकिल, कार और ट्रकों का इस्तेमाल कर तब तक अमेरिकियों की हत्याएं बंद नहीं कीं, जब तक उन्होंने सैगोन को खाली नहीं कर दिया। इसी प्रकार आयरिश रिपब्लिकन आर्मी ने अंग्रेजों को चोट पहुंचाने के मकसद से कार बमों की तैनाती की, जिसका खुलासा कई वर्षों के बाद हो सका, बेलफ़ास्ट को डराने के लिए इसी तरीके का इस्तेमाल किया गया।
अल्जीरिया में राष्ट्रीय मुक्ति मोर्चा (एफएलएन) ने फ़्रांस से अपनी आजादी के संघर्ष में कार बमों का सहारा लिया। फिर वे इस लड़ाई को फ़्रांस तक ले गए। डेविस लिखते हैं, “ईंधन के गोदामों को उड़ा दिया गया, ख़ुफ़िया जासूसों को मशीन गनों से भून दिया गया... लेकिन मुख्य भूमि पर किसी भी प्रकार के कार बम या सार्वजनिक नरसंहार को अंजाम नहीं दिया गया।”
इस प्रकार के संयम को ऑर्गेनाइजेशन डे ले’ आर्मी सेक्रेटे (ओएएस) के द्वारा नहीं दिखाया गया, जिसकी इच्छा अल्जीरिया में फ़्रांसीसी वाशिंदों के वर्चस्व को बरकरार रखने की थी। ओएएस ने फ़्रांसिसी सुरक्षा बलों, शांति कार्यकर्ताओं, और अल्जीरियाई नागरिकों को, हाँ, कार बम में माध्यम से निशाना बनाया।
ब्रिटिश पत्रकार और इतिहासकार एलिस्टेयर होम के मुताबिक, सीआईए ने ओएएस की इस उम्मीद के साथ मदद पहुंचाई कि पाइड्स-नोयर्स (जो फ़्रांसीसी या यूरोपीय मूल के थे लेकिन अल्जीरिया में जन्में थे) के जरिये एक अलग देश को उकेरा जा सकता है, जो अमेरिका को सैन्य ठिकानों की स्थापना करने और देश के तेल तक पहुँच बनाने के मौकों में सुधार की स्थिति को बढ़ाने में सक्षम बना सकता है। अल्जीरिया जो कि एक मुस्लिम देश है, 1962 में आजाद हो गया था।
कार बम ने न सिर्फ राष्ट्रीय आंदोलनों के शस्त्रागार में अपनी प्रमुख जगह बनाई बल्कि इतालवी माफिया ने भी इसे अपना प्रमुख हथियार बनाया। उन्होंने अपने प्रतिद्वंदियों को जड़ से उखाड़ने के लिए कारों को बम से उड़ाना शुरू कर दिया।
कार बम के इतिहास में सबसे विनाशकारी मोड़ लेबनान के बेरुत में देखने को मिला, जहाँ आत्मघाती कार हमलावर उभरने शुरू हो गए थे।
बेरुत के कार बम धमाके
1970 के दशक के उत्तरार्ध में, बेरुत सुन्नी और शिया मुसलमानों, ड्रुज (हम्ज़ा इब्न अली इब्न अहमद द्वारा प्रशिक्षित एक अब्राहमिक धर्म के अनुयायी) और मैरोनाईट ईसाइयों का प्रतिनिधित्व करने वाली शत्रुतापूर्ण विचारधाराओं और मिलिशिया के बीच का युद्धक्षेत्र बन चुका था। इसके साथ ही यह इजरायल से निष्कासित किये गए फिलिस्तीनी शरणार्थियों का भी आश्रय स्थल बना हुआ था। बेरुत वह खेल का मैदान बन गया था जहाँ सीरिया, ईराक, ईरान, इजरायल, अमेरिका और फ़्रांस अपनी-अपनी दावेदारी कर रहे थे। इजरायल की ख़ुफ़िया एजेंसी, मोसाद ने जुलाई 1972 की शुरुआत में बेरुत में कार बम का इस्तेमाल मशहूर उपन्यासकार घासन कानाफनी की हत्या करने के लिए की थी, जो फिलिस्तीन की मुक्ति के लिए बने पॉपुलर फ्रंट के प्रवक्ता भी थे। इसके बाद तो प्रतिशोध की आग ने अपना काम शुरू कर दिया था।
लेकिन ये कुलमिलाकर छिटपुट घटनाएं थीं, और डेविस के मुताबिक, 1981 की गर्मियों के अंत से लेकर शुरूआती 1983 तक पश्चिमी बेरुत में मुसलमानों को लगातार आतंकित करने की पूर्वपीठिका तैयार की गई। वे लिखते हैं, “कार बमबारी की निरंतरता जो कि स्पष्ट रूप से संयुक्त इजरायली-फालान्गिस्ट (बाद वाला ईसाइयों का प्रतिनिधित्व करता है) के अभियान का हिस्सा थे, जिसका लक्ष्य फिलिस्तीनी मुक्ति संगठन [पीएलओ] को लेबनान से बेदखल करने का था। 18 महीनों तक, लेवंत में लोकप्रिय इजरायल-विरोधी शक्तियों को डराने-धमकाने की व्यर्थ कोशिशों में टीएनटी से भरी टैक्सियों और ट्रकों के साथ एक नारकीय शतरंज का खेल खेला जाता रहा। अकेले 1981 में ही, लेबनानी राजधानी में 18 कार बम धमाकों में 200 से अधिक नागरिक मारे गए थे।
1982 में, इजराइलियों ने लेबनान पर आक्रमण कर दिया। इजरायली वायु सेना ने झुण्ड के झुण्ड बम गिराए, और मुस्लिम इलाकों और शरणार्थी शिविरों को नेस्तनाबूद करने के लिए कारों से बम धमाकों को अंजाम दिया गया। डेविस ने फिलिस्तीनी विद्वान राशिद खालीदी को उद्धृत करते हुए कहा है कि “कब्जे में लिए गए ड्राइवरों द्वारा सार्वजनिक स्वीकारोक्ति की श्रृंखला में यह बात खुलकर सामने आई कि इन [कारों से बमबारी] का इस्तेमाल इजरायल और उसके फलंगिस्ट सहयोगियों के द्वारा पीएलओ को यहाँ से पलायन कर जाने के लिए दबाव बढ़ाने के निमित्त किया जा रहा था।” यही वह दौर भी था जिसके दौरान सबरा और शतीला शरणार्थी शिविरों में भयंकर नरसंहार हुए। (श्रृंखलाबद्ध बम धमाकों ने दमिश्क को दहला कर रख दिया था, जिसके बाद से सीरिया भी बेरुत के खूनी कड़ाह में कूद पड़ा। हालाँकि, यह एक अलग ही कहानी है।)
आत्मघाती कार बम हमलावर का उदय
बेरुत की खूनी पृष्ठभूमि के बारे में कहा जाता है कि इसने पहले आत्मघाती कार बम हमलावर – दाइर क़नोउन अल-नाहर को जन्म दिया था, या जैसा कि शिया मिलिशिया ग्रुप हिजबुल्लाह का दावा है। उसने बम से लदी कार को लेबनान के त्यरे में इजरायल के सात मंजिला मुख्यालय में घुसाकर उड़ा दिया, जिसमें 141 लोग मारे गए। एक अन्य शिया बम हमलावर ने उसी इमारत पर हमला कर 60 लोगों को मार डाला, जिसमें एक अन्य इजरायली खुफिया एजेंसी, शिन बेट के आला अधिकारी भी शामिल थे।
इसके बाद, हेज्बुल्लाह ने अपनी घातक निगाहें अमेरिकी एवं फ़्रांसिसी सैनिकों पर डालीं, जो आमतौर पर मल्टीनेशनल फ़ोर्स (एमएनएफ) के हिस्से के तौर पर थे, जिनका गठन बेरुत से पीएलओ को सुरक्षापूर्वक बाहर निकालने के लिए किया गया था। लेकिन एमएनएफ ने मुस्लिम-ड्रूज़ बहुसंख्यक आबादी के खिलाफ ईसाई मैरोनाईट सरकार का खुलकर समर्थन करना शुरू कर दिया था। बेरुत में अमेरिकी दूतावास पर ग्रेनेड, राकेट और स्नाइपर हमलों ने भी अमेरिकी राष्ट्रपति रोनाल्ड रीगन को अपनी राह बदलने के लिए तैयार न करा सका।
18 अप्रैल 1983 को, एक पिकअप ट्रक अमेरिकी दूतावास की लॉबी में घुस गया, जिसमें 2000 पाउंड्स के एएनएफओ (अमोनियम नाइट्रेट/ईंधन तेल) विस्फोटक रखे हुए थे। इस हमले के बारे में पत्रकार राबर्ट फिस्क ने लिखा है, “दूतावास का केंद्र गायब था। दूतावास के दोनों विंग का निचला हिस्सा गायब हो चुका था।” महीनों बाद, अमेरिकी विध्वंसकों ने ड्रूज़ मिलिशिया के ठिकानों पर बमबारी की, और अक्टूबर में लेबनानी सेना ने शिया झुग्गियों को तहस-नहस कर दिया था। कुछ हफ़्तों के अंतराल के बाद, एक मर्सिडीज डंपर के चालक ने 12000 पाउंड वजन वाले अत्यंत ज्वलनशील विस्फोटक के साथ अमेरिकी सैन्य छावनी पर हमला कर दिया, जिसमें करीब 299 नौसैनिक मारे गए।
यह पूरी तरह से स्पष्ट था कि यह आत्मघाती कार बम हमलावर एक अलग ही प्रजाति का था।
सीआईए की मूर्खतापूर्ण बदले की कार्यवाई
तत्कालीन सीआईए के निदेशक विलियम केसी बदले की आग में धधक रहे थे। सऊदी के साथ मिलकर उन्होंने शेख मोहम्मद हुसैन फदलल्लाह के सफाए की योजना बनाई, जिस पर अमेरिकी नौसैनिकों की हत्या की साजिश रचने का कथित आरोप था। प्रसिद्ध पत्रकार बॉब वुडवर्ड के अनुसार, हत्या का ठेका एक पूर्व ब्रिटिश एसएएस अधिकारी को दिया गया। फदलल्लाह के घर के पास एक डैटसन पिकअप ट्रक खड़ी थी। ट्रक में विस्फोट हुआ: इसमें करीब 40 लोग मारे गए और कई लोग अपंग हो गये। लेकिन फदलल्लाह को खरोंच तक नहीं आई।
“फदलल्लाह असफलता” ने केसी का ध्यान अफगानिस्तान की तरफ मोड़ा, जहाँ पहले से ही सोवियत मौजूद थे। ‘घोस्ट वार्स: द सीक्रेट हिस्ट्री ऑफ़ द सीआईए, अफगानिस्तान एंड बिन लादेन’ में पत्रकार स्टीफन कोल कहते हैं कि केसी के विचार में “राजनीतिक इस्लाम और कैथोलिक चर्च” कम्युनिस्ट सोवियत संघ को हराने के धर्मयुद्ध में स्वाभाविक सहयोगी हुए।
डेविस लिखते हैं कि केसी ने अपनी भूमिका को गुप्त रखने के लिए “कमांड की एक श्रृंखलाबद्ध श्रृंखला” को तैयार किया। इस श्रृंखला के शिखर पर केसी और सऊदी गुप्तचर विभाग के प्रमुख प्रिंस तुर्की बिन फैसल अल सउद थे। उनके नीचे राष्ट्रपति जियाउल हक़ और पाकिस्तान के इंटर-सर्विसेज इंटेलिजेंस (आईएसआई) के प्रमुख ब्रिगेडियर मोहम्मद यूसुफ़ थे। अमेरिकी स्पेशल फ़ोर्स ने आईएसआई अधिकारियों को कई प्रशिक्षण शिविरों में कार बम धमाकों से लेकर अत्याधुनिक क्षति पहुंचाने वाली तकनीक का प्रशिक्षण दिया, जिसके लिए सऊदी अरब और खाड़ी के अमीरात ने वित्तीय प्रबंधन किया। इन आईएसआई अधिकारियों ने इस ज्ञान को हजारों-हजार अफगानों और विदेशी जिहादियों सहित उन लोगों को जो बाद में जाकर अल क़ायदा के सदस्य बने, के बीच में साझा किया।
किसे भर्ती करना है और हथियार और पैसे देने हैं, यह सब आईएसआई के नियंत्रण में था। उन्होंने कट्टरपंथी इस्लामी समूहों को वरीयता दी। कोल लिखते हैं, “1980 के दशक के अंत तक आते-आते, आईएसआई ने सभी धर्मनिरपेक्ष, वामपंथियों, और शाही झुकाव वाले राजनीतिक दलों को प्रभावी तौर पर नेस्तनाबूद कर दिया था।” प्रशिक्षण शिविरों में पेशावर के बाहर स्थित “दावा और जिहाद विश्वविद्यालय” प्रमुख थे। विश्वविद्यालय में क्षति पहुंचाने के कौशल को विकसित करने के साथ, यहाँ के पूर्व छात्रों ने काबुल को चार सालों तक तहस-नहस करके रख दिया, अपने हमलों को और भी तेज कर दिया क्योंकि सोवियत सेना ने 1988 में अफगानिस्तान से अपनी घर शुरू कर दी थीं।
केसी की ख़ुशी का ठिकाना नहीं था, क्योंकि बेरुत में अमेरिकी नाक से बहते खून का बदला ले लिया गया था। लेकिन अफगानिस्तान के लिए अमेरिकी नीति अदूरदर्शी बनी रही, जैसा कि कोल लिखते हैं, “यह इतिहास में अब तक का सबसे बड़ा आतंकवादी प्रौद्योगिकी हस्तांतरण का मामला था: यहाँ पर किसी नाराज इस्लामवादी व्यक्ति के लिए कार-बम विस्तार पाठ्यक्रम पाने के लिए हिजबुल्लाह की जरूरत नहीं थी, जब वे पाकिस्तान की सीमावर्ती सैन्य बलों से सीआईए-समर्थित शहरी क्षेत्र को क्षति पहुंचा सकने वाले पाठ्यक्रम में मैट्रिक कर सकते थे।”
बर्बाद होने की बारी
अफगानिस्तान में अपनी सफलताओं पर सवार होकर सीआईए ने इराकी नेता इयाद अल्लावी को अपने पक्ष में कर लिया, जो निर्वासन में रहते हुए एक संगठन चला रहा था, को कार बम विस्फोट करने और बगदाद में तबाही फैलानी की जिम्मेदारी दी गई। सीआईए को उम्मीद थी कि इससे वह इराकी राष्ट्रपति सद्दाम हुसैन को अपदस्थ करने में सफल हो सकती है। न्यूयॉर्क टाइम्स ने 2004 की अपनी एक रिपोर्ट में एक पूर्व सीआईए अधिकारी, राबर्ट बेयर के हवाले से लिखा था कि विध्वंशकारियों ने एक स्कूल बस को भी उड़ा दिया था।
लेकिन, उसी दौरान अफगानिस्तान में आतंकी शिविरों में पूर्व प्रशिक्षित छात्र, अपने पक्के गुरु अमेरिका के द्वारा इजराइल के समर्थन करने और अरब तानाशाहों को मजबूत करने की हरकत से उसके खिलाफ तोड़फोड़ की रणनीति को इस्तेमाल में लाने के बारे में विचार कर रहे थे। इसका पहला संकेत तब देखने को मिला जब पेशावर विश्वविद्यालय से प्रशिक्षित, रमज़ी यूसफ ने 1993 में वर्ल्ड ट्रेड सेंटर पर हमला किया। डब्ल्यूटीसी को भारी क्षति पहुंचाने के लिए जितनी मात्रा में विस्फोटकों की जरूरत थी, उसे आंकने में उसने चूक कर दी थी। इसके आठ साल बाद, उसके चाचा खालिद शेख मोहम्मद ने 9/11 हमले के मुख्य सरगना के रूप में इसे अंजाम दिया, जिसमें डब्ल्यूटीसी टावरों को ध्वस्त करने के लिए विमानों का इस्तेमाल किया गया था।
अमेरिकियों द्वरा इराक पर आक्रमण और कब्जा करने के बाद भी अफगानिस्तान से झटके मिलने जारी रहे। उनके प्रशासन और सेना को कार बमों की बौछार से निरंतर जूझना पड़ा। उनमें से सबसे घातक हमले को अबु मुसाब अल-ज़रकावी द्वारा अंजाम दिया गया, और वह भी अफगानिस्तान में सीआईए द्वारा संचालित प्रशिक्षण शिविर का एक और पूर्व छात्र था।
वाल स्ट्रीट में बम विस्फोट के 100 वर्षों के पश्चात जब अमेरिकी अफगानिस्तान से विदा हो रहे हैं, तो ऐसे में माइक डेविस की पुस्तक का अंतिम वाक्य इस क्षण के बारे में बहुत कुछ कह रहा है: “बुडा की छकड़ा-गाड़ी वास्तव में सर्वनाश की गर्म सलाख बन चुकी है।” इस बारे में सिर्फ उम्मीद ही की जा सकती है कि भविष्य में यह सब थम जाए।
लेखक स्वतंत्र पत्रकार हैं। यह लेखक के निजी विचार हैं।
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