‘विकलांगता’ क्या मख़ौल या मज़ाक उड़ाने का विषय है?
विश्व मानसिक स्वास्थ्य दिवस, लगभग तीस साल हो गए जबसे दस अक्तूबर को इसे मनाया जाता है।
दरअसल वर्ल्ड फेडरेशन फॉर मेंटल हेल्थ की सालाना गतिविधि के तौर पर इसका आगाज़ हुआ था। विश्व स्वास्थ्य संगठन के मुताबिक इस दिवस को मनाने का मकसद है कि ‘‘दुनिया भर में मानसिक स्वास्थ्य के मुद्दों को लेकर जागरूकता पैदा की जाए और इन प्रयासों के लिए समर्थन जुटाया जाए।’
इसे विचित्र संयोग कहा जा सकता है कि इस दिवस के महज तीन दिन बाद मानसिक स्वास्थ्य का मसला नकारात्मक ढंग से सुर्खियां बना, जब भाजपा में शामिल हुईं तमिलनाडु की नेत्री खुशबू सुंदर ने अपनी पूर्व पार्टी कांग्रेस के प्रति ऐसे ही अपमान जनक लफ़्ज़ों का प्रयोग किया, जब उन्होंने कांग्रेस को ‘मानसिक तौर पर विकलांग पार्टी कहा जो अपने लिए नहीं सोच सकती है।’
जाहिर था उनके इस बयान को लेकर उनके गृहप्रांत तमिलनाडु में जबरदस्त जनारोष उठा और विकलांगों के अधिकारों के लिए संघर्षरत नेशनल प्लेटफॉर्म फार राइटस आफ द डिसएबल्ड ने उनके खिलाफ - चेन्नई, कांजीपुर, मदुराई, कोईम्बतूर, तिरूपुर आदि प्रमुख शहरों के अलावा अन्य जगहों पर - राज्य के तीस अलग अलग पुलिस स्टेशनों में शिकायत दर्ज करायी।
मालूम हो, भारत जैसे मुल्क में जहां विकलांगता का बेहद नकारात्मक चित्रण करना आम है, जहां व्यक्ति की विकलांगता को उसके व्यक्तित्व का हिस्सा मान लिया जाता है तथा जो उसके साथ भेदभाव को भी सामान्यीक्रत (normalise) कर देता है, वहां ऐसा कोई भी आचरण बेहद निन्दनीय है और ऐसे चित्रण को रोकने के लिए कानून बने हैं। किसी ‘विकलांगता से पीड़ित व्यक्ति का ऐसा भद्दा मज़ाक 2016 में बने राइटस आफ पर्सन्स विथ डिसएबिलिटीज एक्ट की धारा 92/ए/ का साफ साफ उल्लंघन भी है, जिसके मुताबिक ‘‘ जो कोई सचेतन तौर पर विकलांग व्यक्ति को सार्वजनिक स्थान पर अपमानित करेगा या डराएगा तो उसे कम से कम छह माह की सज़ा हो सकती है जिसे पांच साल और जुर्माने तक बढ़ाया जा सकता है।’’
विडम्बना ही है समाज के अग्रणी लोगों द्वारा ऐसे लफ़्ज़ों का प्रयोग बेहद आम है।
ऐसे अपमानजनक प्रयोगों में संविधान की कसम खाकर अपना पद संभाले प्रधानमंत्री मोदी भी कहीं पीछे नहीं हैं। ‘द वायर’ पर अपने एक प्रोग्राम में जानीमानी पत्राकार आरफा खानम शेरवानी ने इस बात के सबूत पेश किए थे कि किस तरह 2014 के चुनावों की तैयारी के दौरान सभाओं में विकलांगों के प्रति अपमानजनक शब्दों का प्रयोग उनके द्वारा किया गया था।
हम याद कर सकते हैं कि 2019 के लोकसभा चुनावों के पहले खडगपुर के एक कार्यक्रम में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी का इसी किस्म का व्यवहार राष्ट्रीय रोष का सबब बना था, जब डिसलेक्सिया/अपपठन/वाकविकार - अक्षरों एवं अक्षरों के विन्यास एवं ध्वनियों से उनके मिलान में अक्षम या कठिनाई से होने वाला एक डिसऑर्डर, जिससे दुनिया के तमाम बच्चे प्रभावित होते हैं - को दूर करने को लेकर किसी छात्रा द्वारा लिए गए प्रोजेक्ट की चर्चा के दौरान उन्होंने उस छात्रा की बातचीत को अधबीच में ही काटते हुए उन्होंने पूछा था कि क्या इस प्रोजेक्ट से 40-50 साल के बच्चों की भी मदद हो सकती है - और वह हंस दिए थे और जब छात्रा ने कहा कि ‘हां’ तो उन्होंने कहा कि फिर ‘‘ऐसे बच्चे की मां भी बहुत खुश होगी।’ याद रहे डिसलेक्सिया को लेकर उनकी इस हंसी को कांग्रेस अध्यक्ष राहुल गांधी और उनकी मां सोनिया गांधी पर उनकी अप्रत्यक्ष टिप्पणी के तौर पर समझा गया था।
याद रहे डिसलेक्सिया - जिसके बारे में हम लम्बे वक्त़ तक अनभिज्ञ रहे हैं और जिसको दूर करने के लिए किए जा रहे प्रोजेक्ट ने मोदी को हंसने का एक बहाना दे दिया था - दरअसल सीखने में कठिनाई की आम दिक्कत है जो पढ़ने, लिखने और स्पेलिंग करने में बाधा पहुंचाती है, - गौरतलब है कि सीखने की इस विशिष्ट कठिनाई से बु़द्धिमत्ता/प्रतिभा पर कोई असर नहीं होता - के बारे में खुद भारत सरकार की तरफ से इंगित किया गया है कि दुनिया भर में 5 से 20 फीसदी बच्चे इससे प्रभावित होते हैं, जबकि भारत में यह प्रतिशत लगभग 15 है। और अगर हम वर्ष 2013 में मान्यताप्राप्त स्कूलों में दाखिला लिए लगभग 22 करोड 90 लाख छात्रों की संख्या को देखें तो अकेले भारत में ऐसे बच्चों की संख्या साड़े तीन करोड़ तक पहुंचती है। अभी ज्यादा वक्त़ नहीं हुआ है जब ऐसी किसी स्थिति के बारे में जनमानस में जागरूकता आयी है। विडम्बना ही है कि इस स्थिति की व्यापकता के बावजूद भारत में इसे लेकर जागरूकता लाने का श्रेय एक तरह से बॉलीवुड की एक फिल्म ‘तारे ज़मीं पर’ को जाता है।
यह समझना जरूरी है कि सार्वजनिक जीवन में शामिल ऐसे लोगों का ऐसा विवादास्पद आचरण एक तरह से पूरे समाज में विकलांगता के प्रश्न के प्रति बेरूखी भरे रूख को ही प्रतिबिम्बित करता है।
मिसाल के तौर अपने एक महत्वपूर्ण आलेख ‘अंडरएस्टिमेटिंग डिसएबिलिटी’ / इंडियन एक्स्प्रेस, 7 जनवरी 2016/ में जनाब विवेक देब्रॉय - जो ‘नीति आयोग’ के सदस्य हैं - ने इसी बात की ताईद करते हुए लिखा था कि ‘विकलांगता को हम न ठीक से परिभाषित कर रहे हैं और न उस सच्चाई को ठीक से ग्रहण कर रहे हैं।’ विकलांगता को नापने में बरते जा रहे एक किस्म के ‘मनमानेपन’ की चर्चा करते हुए वह बताते हैं कि वर्ष 1872 से 1931 के बीच जनगणना के दौरान विकलांगता को लेकर महज एक प्रश्न पूछा गया, 1941 से 1971 के दरमियान ऐसा कोई प्रश्न नहीं पूछा गया, जिस प्रश्न को 1981 में पूछा गया, उसे 1991 में फिर हटा दिया गया। उनके मुताबिक रेखांकित करनेवाली बात है कि विकलांगता को लेकर 2001 और 2011 के आंकड़ों की तुलना भी मुमकिन नहीं है क्योंकि विकलांगता की परिभाषा एक जैसी नहीं है क्योंकि 2001 में पांच किस्म की विकलांगता को लेकर सवाल पूछे गए जबकि 2011 में आठ किस्म की विकलांगता को लेकर।
चाहे रोजगार में उनके प्रतिशत की गैरजानकारी का मामला हो या उनकी वास्तविक संख्या को लेकर हमारी गैरजानकारी हों, या उन्हें मज़ाक के केन्द्र में रखना हो, यह प्रश्न उठना स्वाभाविक है कि ऐसा क्यों हैं। इसकी कई स्तर पर व्याख्या मुमकिन है।
दरअसल जब तक विकलांगता को चिकित्सकीय निगाहों से देखा जाता रहेगा, शरीर की खास स्थिति को ‘अबनॉर्मल’ अर्थात ‘असामान्य’ कहा जाता रहेगा, तब तक इसी किस्म के आकलन तक हम पहुंचेंगे। इस सन्दर्भ में विशेष चुनौतियों वाले व्यक्तियों के प्रश्न पर 1978 में प्रकाशित अपनी चर्चित किताब ‘हैण्डिकैपिंग अमेरिका’ में विकलांगों के अधिकारों के लिए संघर्षरत फ्रैंक बोवे जो बात कहते हैं, वह गौरतलब है। उनका कहना है कि असली मुद्दा विकलांगता के प्रति - फिर चाहे वह दृष्टिजनित हो या चलनजनित -सामाजिक प्रतिक्रिया का है। अगर कोई समुदाय भौतिक, स्थापत्यशास्त्रीय, यातायात सम्बन्धी तथा अन्य बाधाओं को बनाये रखता है तो वह समाज उन कठिनाइयों का निर्माण कर रहा है जो विकलांगता से पीड़ित व्यक्ति को उत्पीड़ित करते हैं। दूसरी तरफ, अगर कोई समुदाय इन बाधाओं को हटाता है, तो विकलांगता से पीड़ित व्यक्ति अधिक ऊंचे स्तर पर काम कर सकते हैं। दूसरे शब्दों में कहें तो ‘विकलांगता’ सामाजिक तौर पर निर्मित होती है। इस गहरे एहसास के बाद कहें या अन्य वजहों से कहें अधिकतर विकसित देशों में विकलांगता को नापने का पैमाना ‘सामाजिक कारणों’ की तरफ बढ़ा है, जिसमें उन संस्थागत एवं सामाजिक प्रणालियों को रेखांकित किया जाता है, जो एक तरह से सामान्य जीवन जीने में बाधा बनती हैं।
अंत में अगर हम खुशबू सुंदर के विवादास्पद बयान की तरफ लौटें तो बताया जा रहा है कि उन्होंने उस बयान के लिए माफी मांग ली है।
सवाल यह उठता है कि क्या कानून के तहत किसी व्यवहार को अगर अपराध में शुमार किया जाता हो, वहां महज माफी मांगने से मामला समाप्त मान लिया जाए। तो इसका अर्थ क्या यही निकलता है कि आईंदा दलित-आदिवासी, जो आम जीवन में ऐसे अपमानों का आए दिन सामना करते रहते हैं, वे ऐसी शाब्दिक माफी को ही अंतिम मान लें, जिन्हें ऐसे अपमान, वंचना, भेदभाव से बचाने के लिए अनुसूचित जाति जनजाति अत्याचार निवारण अधिनियम /1989/ जैसा बहुद प्रगतिशील कानून बना है।
दरअसल होना तो यही चाहिए कि उच्च पदों पर या सार्वजनिक जीवन को प्रभावित कर सकने वाले ऐसे व्यक्तियों के खिलाफ कानूनी कार्रवाई जरूर हो ताकि ऐसा संदेश जाए कि विकलांगों का अपमान या किसी भी तरह सामाजिक तौर पर उत्पीड़ित लोगों के किसी भी किस्म के नकारात्मक चित्रण को बर्दाश्त नहीं किया जाएगा।
( सुभाष गाताडे वरिष्ठ पत्रकार और लेखक हैं। विचार व्यक्तिगत हैं।)
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