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झारखंड : जल-जंगल-ज़मीन और संवैधानिक अधिकारों को बचाने का किया गया आह्वान

''यदि आज हम पूरी एकजुटता के साथ अपने जल जंगल ज़मीन और संवैधानिक अधिकारों को बचाने के लिए नहीं उठ खड़े हुए तो हमारा अस्तित्व ही मिटा दिया जाएगा।'’
jharkhand

झारखंड प्रदेश के खूंटी जिला के मुरह प्रखंड स्थित डोम्बारी बुरु-सईल रकब की पहाड़ी श्रृंखला क्षेत्र में स्थापित ‘शहीद-स्‍तंभ’ आज भी आदिवासी समुदाय के लिए संघर्ष के प्रेरणा-स्थल के रूप में लोकप्रिय है। यही वो इलाका है जहां बिरसा मुंडा के उलगुलान (जन विद्रोह) किया था।

हर साल 9 जनवरी को यहां शहीद-मेला का आयोजन होता है। जिसमें दूर दूर से पहुंचे आदिवासी-मूलवासी समुदाय के लोग अपने पारंपरिक परिधान में ढोल-नगाड़ा बजाते हुए ‘डोम्बारी बुरु शहीद-स्‍तंभ’ पर फूल-मालाएं चढ़ाकर अपने शहीद नायकों को सम्मान देते हैं।

इस बार भी शहीद-मेला में जुटे लोगों ने शहीद-स्तम्भ पर माल्यार्पण कर अपने शहीद नायकों के संघर्ष की विरासत को आगे बढ़ाने का संकल्प लिया।

इस अवसर पर आयोजित शहीद-मेला सभा से मौजूदा सरकारों द्वारा जल-जंगल-ज़मीन के साथ-साथ संवैधानिक अधिकारों पर किये जा रहे हमलों के ख़िलाफ़ एकजुट संघर्ष को तेज़ करने का संकल्प लिया गया।

शहीद-मेला में जुटे लोगों को संबोधित करते हुए चर्चित आंदोलनकारी दयामनी बारला ने सवाल उठाया कि - सन 1900 के जनवरी को इसी जगह पर “अबुवा दिसुम,अबुवा राईज” का नारा देते हुए अपने जिस जल-जंगल-ज़मीन बचाने के लिए सैकड़ों मुंडा समुदाय के लोग अंग्रेजी हुकुमत से लड़ते हुए शहीद हुए थे, हमें सोचना ही होगा कि क्या वह आज सुरक्षित है? खुली आंखों से सब देख हैं कि किस तरह से मुंडा और आदिवासियों की ज़मीनें लूटी जा रही हैं। 2014 के बाद आई भाजपा सरकार ने “लैंड बैंक” के नाम पर हमारी पारंपरिक ज़मीनों पर जबरन कब्जा कर लिया। अब उसी लैंड-बैंक की ज़मीनें बाहरी लोगों को देकर हमारे मुंडारी खुंटकट्टी इलाकों में “बाहरियों” को जबरन घुसाया जा रहा है। बीर बिरसा मुंडा के उलगुलान से बने ‘सीएनटी एक्ट और मुंडारी खुंटकट्टी’ पर हमला दिनों दिन तेज़ किया जा रहा है। ऐसे में हमें सोचना ही होगा कि पुरखों की विरासत और ज़मीनों की रक्षा हम कैसे करेंगे।

विभिन्न आदिवासी संगठनों के ‘आदिवासी समन्वय मोर्चा’ के लक्ष्मी नारायण सिंह मुंडा ने देश की सत्ता में काबिज़ सत्ता और भाजपा सरकार को आदिवासी विरोधी करार दिया। जो एक ओर, यूसीसी लाकर आदिवासियों के स्वतंत्र अस्तित्व को ही ख़त्म कर देना चाहती है तो दूसरी ओर, झारखंड में “डिलिस्टिंग” मुद्दा उछालकर आदिवासी समाज कि एकता तोड़ने पर आमादा है। इनकी साजिशपूर्ण चालों से हम सबों को सावधान रहना होगा। आगामी 4 फ़रवरी को रांची में आयोजित होनेवाली ‘आदिवासी एकता रैली’ को ज़ोरदार ढंग से सफल बनाने का आह्वान करते हुए उन्‍होंने कहा कि - यदि आज हम पूरी एकजुटता के साथ अपने जल जंगल ज़मींन और संवैधानिक अधिकारों को बचाने के लिए नहीं उठ खड़े हुए तो हमारा अस्तित्व ही मिटा दिया जाएगा।

हर साल की भांति इस साल भी “बीरसाईत समाज” (बिरसा मुंडा द्वारा शुरू किये गए समाज सुधार मुहीम- बिरसाईत धर्म) के लोग जो डोम्बारी बुरु को अपन तीर्थस्थल मानते हैं, काफी संख्या में यहां जुटकर पूजा-अर्चना किये। जिनके बारे में कहा जाता है कि - ये आज भी शराब का सेवन और मांसाहार नहीं करते हैं। हमेशा खुद का बुना सफेद कपड़ा पहनते हैं और गांव गांव घूमकर मुंडारी गीतों के माध्यम से बिरसा मुंडा के संदेशों का प्रचार करते हैं। आदिवासी समाज में इन्हें काफी सम्मान दिया जाता है।

सनद रहे कि इतिहासकारों और लोक श्रुतियों के भी अनुसार बताया जाता है कि 9 जनवरी के दिन इसी सईल रकब-डोम्बारी बुरु की पहाड़ी पर बिरसा मुंडा ने अपने तमाम लड़ाकू योद्धाओं और सहयोगियों को इकट्ठा किया था। अंग्रेज़ी हुकुमत और देसी शोषकों के ख़िलाफ़ शुरू किये गए ‘उलगुलान’ (जन विद्रोह) की आगे की रणनीति पर विमर्श कर रहे थे। इसी दौरान भेदियों की ख़बर पाकर वहां पहुंची अंग्रेज़ी सेना ने पूरे इलाके को घेरकर बिरसा मुंडा और उनके सारे योद्धाओं से समर्पण करने को कहा। लेकिन वहां जुटे आदिवासी योद्धाओं ने इससे साफ़ इनकार करते हुए अंग्रेजों को ललकारा। अंग्रेजी सेना ने बिना कोई पूर्व सूचना दिए वहां इकट्ठे लोगों पर अंधाधुंध गोलियां बरसानी शुरू कर दी। जवाब में जहरीले तीरों और पारंपरिक हथियारों से लड़ रहे आदिवासी योद्धाओं ने अंतिम सांस तक मुकाबला किया। अंग्रेजी सेना द्वारा की गयी अंधाधुंध फायरिंग-गोलाबारी में सैकड़ों आदिवासी मारे गए। कहा जाता है कि वह जनसंहार ‘जलियांवाला बाग़ जनसंहार’ से भी बड़ा हत्याकांड था। जिसे आज भी इतिहास में सही ढंग से दर्ज़ नहीं किया जा सका है। यह भी बताया जाता है कि उस समय तो अंग्रेजों से लड़ते हुए बिरसा मुंडा अपने चंद साथियों के साथ सही सलामत निकल गए थे। लेकिन कुछ ही दिनों बाद भेदियों की मुखबिरी के कारण अंग्रेजी हुकुमत द्वारा धोखे से गिरफ्तार कर लिए गए।

जाने माने शिक्षाविद-इतिहासकार और अगुवा आंदोलनकारी आदिवासी बुद्धिजीवी डा. रामदयाल मुंडा के प्रयासों से 1987 में डोम्बारी बुरु पहाड़ी पर उलगुलान के शहीदों कि याद में विशाल शहीद-स्तम्भ का निर्माण हुआ। जहां हर साल 9 जनवरी को शहीद मेला का आयोजन किया जाता है।

डोम्बारी बुरु का शहीद-स्तम्भ की अविरल प्रासंगिकता यह है कि यह आज भी आदिवासी समाज को अपने अधिकारों और वर्षो पूर्व इसी स्थल से बिरासा मुंडा द्वारा किये गए “अबुवा दिसुम अबुवा राइज” के नारे के उद्घोष के ऐतिहासिक प्रतीक स्थल के रूप में स्पंदित करता है।

वैसे, यहां आने को तो प्रदेश की सरकार से लेकर सभी राजनीतिक दलों व उनके नेताओं का तांता सा लगा रहता है। इस बार भाजपा के केंद्रीय आदिवासी मंत्री जी भी अपनी सरकार की “आदिवासी विकास की योजनाओं-घोषणाओं” के साथ पहुंचे और आदिवासी शहीदों को नमन किया। लेकिन अपनी ही केंद्र सरकार द्वारा आदिवासियों के जल-जंगल-ज़मीन के अधिकारों के साथ-साथ उन्हें मिल रहे संवैधानिक संरक्षण को कमज़ोर करने वाले “वन संरक्षण कानून संसोधन” की कोई चर्चा नहीं की। जिसके खिलाफ देश भर के आदिवासियों भारी विरोध के बावजूद उनकी सरकार ने संसद में “प्रचंड बहुमत” का दुरुपयोग कर पास कर दिया। शहीद-मेला की सभा में इसको लेकर भी कई आदिवासी वक्ताओं ने भाजपा सरकार को निशाने पर लिया।

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