कश्मीर के सिख समुदाय ने विधानसभा में आरक्षण की मांग की
श्रीनगर: जम्मू-कश्मीर (J&K) में सिख समुदाय के प्रतिनिधियों ने शुक्रवार को मांग की कि समुदाय को मौजूदा संसद सत्र में पेश किए जाने वाले आरक्षण विधेयक में शामिल किया जाए।
केंद्र शासित प्रदेश में अल्पसंख्यक समुदाय के कई सदस्यों ने कहा कि रोजगार और राजनीतिक परिदृश्य में घटते अवसरों के मद्देनजर उन्हें इस क्षेत्र से पलायन करने के लिए मजबूर होना पड़ेगा।
सिख नेतृत्व ने विधानसभा में दो सीटों के आरक्षण की भी मांग की है। उन्होंने कहा, यह समुदाय की लंबे समय से लंबित मांग है, जिसके संबंध में वे कम से कम चार बार केंद्रीय गृह मंत्री से मिल चुके हैं।
बलदेव सिंह ने श्रीनगर में एक प्रेस वार्ता के दौरान कहा, "गृह मंत्री ने हमें आश्वासन दिया है कि अल्पसंख्यक सिख समुदाय को भी प्रतिनिधित्व दिया जाएगा, लेकिन उन्होंने एक घोषणा की है जिसमें हमें नजरअंदाज कर दिया गया है।"
हालांकि, राज्य विधानसभा में कश्मीरी पंडितों के लिए दो सीटें आरक्षित करने के सरकार के फैसले का सिंह (जो ऑल सिख गुरुद्वारा प्रबंधक कमेटी, कश्मीर के अध्यक्ष हैं) तथा जिला समितियों और यूनाइटेड कश्मीरी सिख प्रोग्रेसिव फोरम सहित अन्य प्रतिनिधियों ने स्वागत किया है।
1.75 लाख से अधिक की आबादी के साथ - जो जम्मू और कश्मीर की कुल आबादी का 1.50% है - सिख नेतृत्व ने कहा कि समुदाय ने राष्ट्र के निर्माण में एक प्रमुख भूमिका निभाई थी, लेकिन ताजा फैसले के कारण उन्हें भेदभाव महसूस हुआ।
बता दें कि भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) सरकार चालू मानसून सत्र में एक विधेयक पेश करने वाली है। यदि पारित हो जाता है, तो जम्मू-कश्मीर विधानसभा में तीन सीटें आरक्षित होंगी - दो प्रवासी कश्मीरी पंडितों के लिए और एक पश्चिमी पाकिस्तान से आए शरणार्थियों के लिए।
सदस्यों ने तर्क दिया कि सरकार ने कश्मीरी पंडितों, गुज्जरों और पहाड़ियों जैसे सभी समुदायों को आरक्षित निर्वाचन क्षेत्र देकर उनके प्रतिनिधित्व के लिए तंत्र तैयार किया था और पुनर्वास पैकेज, नौकरी आरक्षण और अनुसूचित जनजाति (एसटी) का दर्जा देकर उन्हें मजबूत भी किया था। उन्हें (सिख समुदाय को) को लग रहा है कि 1990 के दशक में विस्थापित होने के बावजूद कश्मीर प्रांत में सिख समुदाय को "छोड़ दिया गया" है।
सिख स्टूडेंट फेडरेशन के हरजीत सिंह ने कहा, “हमें भी अपनी जागीरें छोड़कर कस्बों और शहरों में जाने के लिए मजबूर होना पड़ा और हमें सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक रूप से नुकसान उठाना पड़ा लेकिन हमने घाटी नहीं छोड़ी। पर आश्वासनों के बावजूद, हमारे लिए पुनर्वास और मुआवजे की कोई नीति घोषित या तैयार नहीं की गई है।”
सिंह ने कहा कि 1949 में 35,000 सिखों की मौत के बावजूद उनके नुकसान के लिए कोई मुआवजा नहीं दिया गया। सिख नेतृत्व ने अन्य समुदायों, नागरिक समाज के सदस्यों और जम्मू-कश्मीर के क्षेत्रीय राजनीतिक नेतृत्व से भी सिखों की मांग को अपना समर्थन देने का आग्रह किया।
सिख समूहों ने जम्मू-कश्मीर आधिकारिक भाषा विधेयक से पंजाबी भाषा को बाहर करने पर भी इसी तरह का असंतोष व्यक्त किया था और इसे अल्पसंख्यक समुदाय के खिलाफ "भेदभावपूर्ण कदम" बताया था।
समुदाय के प्रतिनिधियों ने यह भी तर्क दिया कि निर्वाचन क्षेत्रों को इस तरह से पुनर्गठित किया गया है कि कोई भी सिख न तो चुनाव लड़ सकता है और न ही जीत सकता है, जिससे वे राजनीतिक रूप से महत्वहीन हो गए हैं।
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