ख़बरों के आगे-पीछे: अकाली दल और रालोद की परेशानी
विदेशों से निमंत्रण देश को मिल रहे हैं, मोदी को नहीं
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने अपनी पार्टी के राष्ट्रीय अधिवेशन में कमाल की बात कही। उन्होंने कहा कि सारी दुनिया ने मान लिया है कि मोदी की ही सरकार बनने वाली है इसलिए उन्हें जुलाई-अगस्त के महीने में विदेश दौरे के निमंत्रण मिल रहे हैं। मोदी का यह कहना उसी तरह का आधा सच और आधा झूठ है, जैसा महाभारत की लड़ाई के दौरान द्रोणाचार्य के सामने उनके बेटे अश्वत्थामा के मारे जाने को लेकर युधिष्ठिर ने बोला था। अपने तीसरे कार्यकाल का नैरेटिव सेट करने के लिए इस तरह के अर्ध सत्य प्रधानमंत्री लगातार बोल रहे हैं।
बहरहाल, प्रधानमंत्री ने भाजपा के अधिवेशन में जो कहा उसमें इतना ही सच है कि भारत को दुनिया भर के देशों से निमंत्रण मिल रहे हैं। यह सही है कि क्योंकि वैश्विक कार्यक्रम महीनों पहले तय होते हैं और विभिन्न देशों के प्रधानमंत्रियों व राष्ट्रपतियों को उसका न्योता जाता है। इसलिए भारत को जो न्योते मिल रहे हैं वे मोदी को नहीं बल्कि भारत के प्रधानमंत्री को मिल रहे हैं। प्रधानमंत्री के पद पर नरेंद्र मोदी रहे या रामलाल, जो पद पर होगा वह उस न्योता पर विदेश दौरे पर जाएगा। मिसाल के तौर पर हर साल सितंबर में संयुक्त राष्ट्र महासभा की बैठक होती है, जिसमें दो सौ देशों के राष्ट्राध्यक्ष या शासनाध्यक्ष हिस्सा लेते हैं। इसका न्योता कई महीने पहले हर देश को जाता है। इसी तरह 18-19 नवंबर को इस साल ब्राजील में जी-20 की बैठक होनी है। ऐसे ही ब्रिक्स और आसियान सम्मेलन अक्टूबर में क्रमश: रूस और ऑस्ट्रेलिया में होंगे। इन सबका न्योता सदस्य देशों को महीनों पहले जाता है और सम्मेलन के समय जो प्रधानमंत्री होता है वह उस देश का प्रतिनिधित्व करता है। वैश्विक सम्मेलनों या द्विपक्षीय वार्ताओं का न्योता किसी नेता या पार्टी को नहीं, बल्कि देश को, सरकार को, प्रधानमंत्री को मिलता है।
अकाली दल और रालोद की परेशानी
जिस दिन प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने किसान नेता और पूर्व प्रधानमंत्री चौधरी चरण सिह को भारत रत्न दिए जाने का ऐलान किया उस दिन ऐसा लग रहा था कि अब भाजपा और राष्ट्रीय लोकदल के गठबंधन का ऐलान होने ही वाला है। रालोद नेता जयंत चौधरी ने कह भी दिया था कि अब वे किस मुंह से भाजपा के प्रस्ताव को इनकार करेंगे। लेकिन करीब दो हफ्ते बाद भी गठबंधन की आधिकारिक रूप से घोषणा नहीं हुई है। जयंत चौधरी ने सामने आकर नहीं कहा है कि वे भाजपा के साथ जा रहे हैं भाजपा भी इस मामले में खामोश है। इसी तरह पंजाब में अकाली दल के साथ भी भाजपा का गठबंधन लगभग तय हो गया था। लेकिन गठबंधन की औपचारिक घोषणा नहीं हो रही है।
दरअसल सब कुछ तय होने के बाद भी रालोद और अकाली दल से गठबंधन का ऐलान नहीं हो रहा है तो इसका कारण किसान आंदोलन है। जब चौधरी चरण सिंह को भारत रत्न देने का ऐलान किया गया तभी किसानों का आंदोलन शुरू हुआ। न्यूनतम समर्थन मूल्य यानी एमएसपी को कानूनी गारंटी देने के मसले पर किसानों ने प्रदर्शन शुरू किया। अब अकाली दल और रालोद दोनों को भाजपा से गठबंधन तो करना है लेकिन किसान आंदोलन की मजबूरी में दोनों इसकी घोषणा टाल रहे हैं। वे चाहते हैं कि जल्दी से जल्दी आंदोलन खत्म हो, कोई रास्ता निकले तो वे भाजपा के साथ जाने का ऐलान करें।
चंडीगढ़ के बाद कर्नाटक में दूसरी जीत
विपक्षी गठबंधन 'इंडिया’ को चंडीगढ़ के मेयर के चुनाव में पहली जीत मिली। हालांकि यह जीत बड़ी मशक्कत के बाद और सुप्रीम कोर्ट के दखल के बाद मिली। यह जीत इसलिए भी अहम है क्योंकि स्पष्ट रूप से धांधली करके जीतने के बाद भाजपा नेताओं ने विपक्षी गठबंधन पर हमला किया था और कहा था कि गठबंधन एक होकर भी भाजपा को नहीं हरा सकता है क्योंकि उनकी न तो गणित अच्छी है और न केमेस्ट्री। सुप्रीम कोर्ट के आदेश के बाद विपक्षी गठबंधन की गणित और केमेस्ट्री दोनों दिखी हैं।
चंडीगढ़ के बाद दूसरी चुनावी जीत कर्नाटक में मिली है, जहां कांग्रेस ने भाजपा और जेडीएस के साझा उम्मीदवार को शिक्षक क्षेत्र के एमएलसी चुनाव में हरा दिया। वह चुनाव भी बहुत प्रतिष्ठा का चुनाव था। तीन बार जेडीएस से और एक बार भाजपा से एमएलसी रहे पी. पुतन्ना ने शिक्षकों के लिए आरक्षित एमएलसी की सीट से इस्तीफा दे दिया था। उनके इस्तीफ़े से खाली हुई सीट पर उपचुनाव हुआ तो कांग्रेस ने पी. पुतन्ना को ही उम्मीदवार बनाया, जबकि भाजपा ने यह सीट गठबंधन की सहयोगी जेडीएस के लिए छोड़ दी। यह दोनो पार्टियों के लिए परीक्षा की तरह का चुनाव था क्योंकि साथ आने के बाद दोनों पहली बार चुनाव लड़ रहे थे। जेडीएस ने एपी रंगनाथ को उम्मीदवार बनाया था। लेकिन दोनों पार्टियों के तमाम प्रयास के बावजूद कांग्रेस के पी. पुतन्ना चुनाव जीत गए। लोकसभा चुनाव से पहले भाजपा और जेडीएस के लिए यह बड़ा झटका है। यह सही है कि पुतन्ना का अपना आधार है लेकिन इसके बावजूद इसे डीके शिवकुमार के प्रबंधन की जीत बताया जा रहा है।
मराठा आरक्षण पर भाजपा की फंसावट
महाराष्ट्र में ऐसा लग रहा है कि महायुति यानी शिव सेना, भाजपा और एनसीपी की सरकार को समझ में नहीं आ रहा है कि मराठा आरक्षण की मांग को कैसे साधे। इसलिए वह अंधेरे में तीर चला रही है। पिछले महीने मराठा नेता मनोज जरांगे पाटिल की अगुवाई में आंदोलनकारियों का जत्था जब नवी मुंबई तक पहुंच गया था और मुंबई में प्रवेश करने वाला था तब मुख्यमंत्री एकनाथ शिंदे एक अध्यादेश की कॉपी लेकर उनके पास गए थे, जिसमें ओबीसी में मराठा समुदाय को शामिल कर उसे आरक्षण देने का प्रावधान था। लेकिन इस प्रावधान के विरोध में राज्य सरकार के मंत्री छगन भुजबल और दूसरे अनेक ओबीसी संगठनों ने भी आंदोलन का ऐलान कर दिया था। भुजबल ने सरकार से इस्तीफा देकर सड़क पर ओबीसी अधिकार की लड़ाई लड़ने का ऐलान किया। इसके बाद हड़बड़ी में सरकार ने पूरा विधेयक बदल दिया। विधानसभा में जो कानून पास किया गया वह अलग से 10 फीसदी आरक्षण देने का है, जिससे आरक्षण की सीमा बढ़ कर 62 फीसदी हो जाएगी। पहले भी कांग्रेस की सरकार ने 16 फीसदी आरक्षण दिया था, जिसे अदालत ने खारिज कर दिया था। इसलिए मराठा नेताओं को लग रहा है कि यह कानून भी खारिज हो जाएगा। लेकिन भाजपा और उसकी सहयोगी पार्टियों को लग रहा है कि जब तक ऐसा होगा, तब तक लोकसभा का चुनाव हो चुका होगा। लेकिन मनोज जरांगे पाटिल ने इसके पीछे के खेल को समझ लिया और जल्दी ही फिर आंदोलन शुरू करने का ऐलान किया है।
राज्यसभा चुनाव में भाजपा का जोखिम भरा दांव
भाजपा ने राज्यसभा के चुनाव में बड़ा जोखिम लिया है। उसने तीन राज्यों में अतिरिक्त उम्मीदवार देकर चुनाव की नौबत ला दी है। उत्तर प्रदेश में विधानसभा सीटों के आंकड़ों के मुताबिक खाली हो रही 10 सीटों में से भाजपा को सात और समाजवादी पार्टी को तीन सीटें मिलने वाली थी लेकिन भाजपा ने आठवां उम्मीदवार उतार दिया। इसी तरह कर्नाटक मे चार सीटें खाली हो रही हैं, जिनमें से कांग्रेस को तीन और भाजपा को एक सीट मिलेगी लेकिन भाजपा की सहयोगी पार्टी जेडीएस ने एक उम्मीदवार उतार दिया, जिससे चुनाव की नौबत आ गई है। ऐसे ही हिमाचल प्रदेश मे भाजपा ने कांग्रेस के अभिषेक मनु सिंघवी के मुकाबले अपना उम्मीदवार उतार दिया है। जीतने के लिए 40 वोट की जरुरत है, जो कांग्रेस के पास है, जबकि भाजपा के पास सिर्फ 25 वोट है। फिर भी उसने हर्ष महाजन को उम्मीदवार बनाया है। लोकसभा चुनाव से पहले अगर वह इन तीनों राज्यों मे हार जाती है तो क्या होगा? हालांकि इससे राज्यसभा की गणित पर कोई फर्क नहीं पड़ेगा लेकिन तीनों राज्यों में विपक्षी गठबंधन को ताकत मिलेगी और भाजपा व उसकी सहयोगी पार्टियों का मनोबल गिरेगा। बहरहाल तीनों राज्यों में भाजपा ने पर्याप्त संख्याबल न होने के बावजूद अतिरिक्त उम्मीदवार उतारे हैं तो जाहिर है कि वह उन्हें जिताने के लिए बड़े पैमाने पर जोड़-तोड़ की कोशिश करेगी। सवाल यही है कि अगर वह अपनी इन कोशिशों में नाकाम रही तो क्या होगा?
चंडीगढ़ मेयर की जीत कितने समय की?
चंडीगढ़ में आम आदमी पार्टी के कुलदीप कुमार मेयर बन गए। सुप्रीम कोर्ट ने 30 जनवरी को हुए चुनाव के मतपत्र ही दोबारा गिने और उस समय अवैध कर दिए गए आठ वोट जोड़ कर आम आदमी पार्टी व कांग्रेस के साझा उम्मीदवार को विजयी घोषित कर दिया। भाजपा के मेयर को पद से हटना पड़ा। लेकिन सवाल है कि सुप्रीम कोर्ट के हस्तक्षेप से आम आदमी पार्टी और कांग्रेस को हासिल हुई यह जीत कब तक टिकेगी? यह सवाल इसलिए कि 30 जनवरी को हुए चुनाव के बाद भाजपा को जो समय मिला उसमें उसने आम आदमी पार्टी के तीन पार्षदों को तोड़ कर भाजपा में शामिल कर लिया है, जिससे उसके 17 पार्षद हो गए हैं। उधर आम आदमी पार्टी के पार्षदों के संख्या 10 रह गई है। उसमें कांग्रेस के सात जोड़ेंगे तो संख्या 17 हो जाएगी। इस तरह दोनों का संख्या बल बराबर हो गया है। भाजपा को एडवांटेज यह है कि अकाली दल का एक पार्षद उसके साथ है और ऊपर से चंडीगढ़ के सांसद को भी वोट का अधिकार होता है। सो, भाजपा की सांसद किरण खेर का एक वोट है। यानी अब भाजपा के पास 19 वोट है। इसलिए कहा जा रहा है कि भाजपा किसी भी दिन अविश्वास प्रस्ताव लाकर मेयर को हटा सकती है। लेकिन यह आसान नहीं है, क्योंकि कानून के मुताबिक अविश्वास प्रस्ताव तभी पेश हो सकता है, जब उस पर कुल पार्षदों में से दो-तिहाई पार्षदों के हस्ताक्षर हों। इतना समर्थन जुटाना फिलहाल भाजपा के मुश्किल है लेकिन मोदी है तो सब कुछ मुमकिन है।
कांग्रेस में रह कर भी भाजपा के हो गए कमलनाथ!
कांग्रेस नेता और मध्य प्रदेश के पूर्व मुख्यमंत्री कमलनाथ को लेकर इन दिनों सोशल मीडिया में कई तरह के मजाक चल रहे हैं। राजनीतिक हलकों में भी जिज्ञासा बनी हुई है कि आखिर ऐसा क्या हुआ कि कमलनाथ भाजपा में जाते-जाते रह गए, जबकि भाजपा नेतृत्व भी उन्हें लेने के लिए तैयार था। फिर अचानक ऐसा क्या हुआ, जो गाड़ी पटरी से उतर गई और वे कांग्रेस में ही रह गए? इसे लेकर सोशल मीडिया में किसी ने यह भी सुझाव दिया कि कांग्रेस को कारण बताओ नोटिस जारी करके पूछना चाहिए कि कमलनाथ भाजपा में क्यों नहीं गए? बहरहाल, पक्के तौर पर कोई कुछ नहीं बता रहा है लेकिन ऐसा लग रहा है कि कमलनाथ पर लगा सिखों के खिलाफ हिंसा भडकाने का आरोप उनके रास्ते का रोड़ा बन गया। ऐनवक्त पर भाजपा नेतृत्व को लगा कि किसान आंदोलन के कारण पहले ही उसकी छवि सिख विरोधी की बनी है और अगर ऐसे में कमलनाथ आते हैं तो पंजाब, हरियाणा, दिल्ली आदि में पार्टी को नुकसान हो सकता है। एक कहानी यह भी बताई जा रही है कि कमलनाथ भाजपा में जाना तो नहीं चाहते थे लेकिन उन्होंने इस ड्रामे के जरिए भाजपा आलाकमान का सद्भाव और अपने परिवार के लिए एक सुरक्षा घेरा हासिल कर लिया है। मीडिया में प्रचारित यह कहानी तो निरी मूर्खतापूर्ण है कि फोन पर राहुल गांधी और मल्लिकार्जुन खरगे के मान मनौव्वल करने से कमलनाथ मान गए।
फिर किस काम का है आधार
केंद्र सरकार एक नई अधिसूचना जारी करने जा रही है कि आधार का इस्तेमाल जन्मतिथि के सत्यापन के लिए नहीं हो सकता है। सरकार यह बात वैसे पहले ही बता चुकी है। अब इसे अधिसूचित किया जाएगा। इसी तरह सरकार बता चुकी है कि आधार नागरिकता प्रमाणित करने का दस्तावेज नहीं है। पिछले एक दशक में आधार को लेकर जैसा अभियान चला और आधार को जैसे हर व्यक्ति के जीवन का एकमात्र आधार बताया गया उसके बाद अब उसकी उपयोगिता को लेकर ऐसी बातें हैरान करने वाली हैं। इसीलिए सवाल है कि आधार आखिर किस काम का है? कुछ समय पहले तक हर जगह आधार की जरुरत होती थी। यहां तक कि मोबाइल की सिम लेने के लिए भी आधार की अनिवार्यता थी। अब उसे खत्म कर दिया गया है। मनरेगा में मजदूरी के लिए या किसी तरह का सरकारी लाभ लेने के लिए जरूर अब भी आधार को अनिवार्य माना जा रहा है लेकिन मजदूरों और गरीबों के लिए काम करने वाली संस्थाएं इसे नुकसानदेह मान रही हैं और यह अनिवार्यता खत्म करने की मांग कर रही हैं। अगर उस उपयोग को मान भी लें तो बाकी लोगों के लिए आधार की क्या जरुरत थी, जो बड़े पैमाने पर अभियान चला कर हर व्यक्ति को आधार बनवाने के लिए बाध्य किया गया। अगर वह सिर्फ आवासीय पते के सत्यापन के लिए है तो उसके लिए मतदाता पहचान पत्र, डाइविंग लाइसेंस और यहां तक कि बैंक की पासबुक भी पर्याप्त है। फिर अलग से इतना अभियान चलाने और पूरे देश को कतार में खड़ा करने की कोई जरुरत नहीं थी।
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं। विचार-विश्लेषण व्यक्तिगत है।)
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