पीएम मोदी के संसदीय क्षेत्र बनारस का मल्लाह समाज बेकारी का शिकार, दिवाली पर भी उदास और खाली हाथ
बनारस के गंगा घाट पर साइबेरियन पक्षियां आना शुरू हो चुके हैं लेकिन उनके साथ आने वाले विदेशी सैलानियों का कुछ अता-पता नहीं है। नाविक किनारे बंधी नावों पर बैठकर इक्का-दुक्का आने वाले स्थानीय पर्यटकों का इंतजार कर रहे हैं या गोल बनाकर ताश खेलने में व्यस्त हैं। दिन का दूसरा पहर चल रहा है लेकिन आनन्द शाहनी को अभी तक एक भी यात्री नहीं मिला है। आनंद की तरह ही कई नाविक हैं जिन्हें लगातार तीसर-चौथे दिन भी कोई यात्री नहीं मिला है।
गंगा घाटों पर पसरे सन्नाटे और हज़ारों की संख्या में ठाँव से बंधी नावें गंगा पर निर्भर मल्लाह समुदाय के बेकारी की कहानी बयां कर रही हैं। मल्लाह समुदाय का मानना है कि लॉकडाउन से सभी नौकरी-पेशा से जुड़े लोगों का नुकसान हुआ है लेकिन सबसे अधिक नुकसान मल्लाहों का हुआ है। लॉकडाउन के कारण नवरात्रि, दुर्गा पूजा और दशहरा में घाटों पर बेहद कम संख्या में श्रद्धालु आए।
वहीं दिवाली और बनारस की प्रसिद्ध देवदिवाली नज़दीक है लेकिन मल्लाह समुदाय के चेहरों पर इस प्रमुख त्योहार को लेकर किसी खास तरह की रौनक नज़र नहीं आती। लॉकडाउन/अनलॉक के नौवें महीने भी मल्लाहों की जिंदगी पटरी पर नहीं लौट पाई है। बनारस में गंगा नदी और नाव पर निर्भर मल्लाहों का कोई आधिकारिक आंकड़ा उपलब्ध नहीं है लेकिन एक अनुमान के मुताबिक लगभग चालीस से पचास हजार मल्लाह परिवार गंगा पर निर्भर हैं और ये परिवार बेकारी का शिकार हैं।
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने वीडियो कांफ्रेंसिंग के मध्यम से अपने संसदीय क्षेत्र वाराणसी में 614 करोड़ की 30 विकास परियोजनाओं का उद्घाटन व शिलान्यास करने के दौरान 'लोकल फ़ॉर वोकल' के बाद आग्रह किया कि 'लोकल फ़ॉर दिवाली' को बढ़ावा दें और उसका प्रचार करें। वहीं दूसरी ओर बनारस के मल्लाह समुदाय का कहना है कि उन्हें महामारी में सरकार की ओर से किसी तरह की मदद नहीं मिली है।
मल्लाह समुदाय के पारम्परिक पेशे पर संकट
मल्लाह समुदाय पिछले कुछ सालों से अपने पारम्परिक पेशे को लेकर जद्दोजहद कर रहा है। गंगा पर निर्भर यह समुदाय बिना किसी बंदिश के सैकड़ों सालों से गंगा से अपना जीवनयापन कर रहा है लेकिन वर्तमान समय में सरकार द्वारा गंगा सफाई या पर्यटन को बढ़ावा देने के नाम पर आए दिन नए-नए नियम थोपे जा रहे हैं और मल्लाह समुदाय को उन नियमों का पालन करना पड़ रहा है। बात करने पर साफ तौर से नए-नए नियमों के प्रति इस समाज की नाराज़गी नज़र आती है।
दो साल पहले बनारस में पर्यटन को बढ़ावा देने के उद्देश्य से सरकार की अनुमति के बाद अलकनंदा-काशी नामक प्राइवेट क्रूज के आने से मल्लाह समुदाय के परम्पररिक पेशे पर खासा प्रभाव पड़ा है। वहीं बनारस में दो नए क्रूज आने की सूचना से मल्लाह समुदाय अपने पारम्परिक पेशे को लेकर आशंकित हो चुका है। मल्लाह समुदाय को लगता है कि सरकार उनके पेशे को खत्म करने के उद्देश्य से ऐसा कर रही है। मां गंगा निषादराज सेवा समिति के महामंत्री प्रमोद माझी (55) इस संदर्भ में कहते हैं कि जहां पारम्परिक पेशे वाले लोग हैं, मोदी सरकार चाहती है कि वहां गुजरात वाले लोग आकर व्यापार करें और क्षेत्रीय लोग नौकर रहकर काम करें।
प्रमोद माझी इस बार की दिवाली के विषय में कहते हैं कि देवदिवाली मनेगी लेकिन कोई खास रौनक नहीं रहेगी। देवदिवाली एक ऐसा पर्व है जिसकी कमाई से हम नाव को मेनटेन कराने का पैसा निकाल लेते हैं लेकिन हमें नहीं लगता कि देवदिवाली अच्छी तरह मनेगी। जब लोगों के पास धन रहेगा तभी वे दिवाली में या त्योहार में खर्चा करेंगे, अभी सब तंगी के शिकार हैं।
बाहरी व्यापारियों का गंगा पर बढ़ता प्रभाव
मल्लाह समुदाय यह मानता रहा है कि गंगा और उससे जुड़े पेशे पर उसका पहला अधिकार है। यह समुदाय पीढ़ी दर पीढ़ी गंगा से जुड़े काम नाव चलाना, मछली मारना, गोताखोरी करना और बालू निकालने के काम पर निर्भर रहा है। मल्लाह समुदाय के पुरुष मुख्यतः इन्हीं कामों में पारंगत होते हैं लेकिन पिछले कुछ सालों से गंगा में शहर के पैसे वाले लोगों और सरकार का हस्तक्षेप बढ़ता जा रहा है। वहीं दूसरी ओर लॉकडाउन में बढ़ती बेकारी से बड़ी संख्या में मल्लाह अपने पारम्परिक पेशे को छोड़कर ऊपर शहर में जाकर ईंटा-गारा करने को मजबूर हैं।
वाराणसी में गंगा नदी में अक्टूबर 2018 से अलकनंदा क्रूज का संचालन स्टार्टअप इंडिया के तहत नार्डिक क्रूजलाइन कर रही है। इसका उद्घाटन उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ ने किया था। अलकनंदा क्रूज में एक यात्री को दो घण्टे का सफर करने के लिए जीएसटी के साथ लगभग 850 रुपये का किराया देना पड़ता है। इसके अलावा जलपरी, ब्रिजलामा और जुखासो (गुलेरिया कोठी) जैसे कई प्राइवेट बोट गंगा में व्यापार के उद्देश्य से उतारे गए हैं।
बनारस के गोकुल निषाद बचपन से गंगा में नाव चला रहे थे लेकिन उन्होंने एक साल पहले अपनी नाव बेचकर एक सेठ की दुकान पर काम करना शुरू कर दिया है। गोकुल का मन दुकान पर नहीं लगता है, वे बताते हैं कि उन्हें शाम होते ही घाट अपनी ओर खींचने लगता है और समय मिलते ही गोकुल शहर से घाट पर पहुंच जाते हैं।
गोकुल गंगा में खड़ी प्राइवेट बोट की ओर इशारा करते हुए कहते हैं कि पहले बनिया रोड पर कमाता था अब नदी में आ रहा है। पैसे वाले अपना बोट नदी में उतार रहे हैं, हम यहां नीचे घाट पर यात्री का इंतजार करते रह जाते हैं वे ऊपर से ही यात्रियों की ऑनलाइन बुकिंग कर लेते हैं। गोकुल आगे कहते हैं कि पर्यटन विभाग अपना बोट उतार रहा है, उसके बाद हमारे समाज का व्यापार खत्म हो जाएगा। स्थानीय चीजों से परिचय कराने के लिए बोट पर एक दो स्थानीय आदमी रखेंगे बाकी निषाद समाज का रोजगार खत्म हो जाएगा।
क्या बेकारी झेलता मल्लाह समुदाय दिवाली मना पायेगा?
बनारस के घाटों के किनारे बसा मल्लाह समुदाय पूरी तरह से पर्यटन पर निर्भर है। लॉकडाउन के पहले से यह समाज अपने पेशे को बचाने की लड़ाई लड़ रहा है और लॉकडाउन से पूरे समुदाय पर दोहरी मार पड़ी है। विदेशी सैलानियों का बनारस आना बंद हो चुका है, लॉकडाउन के दौरान जो सैलानी थे भी वे धीरे-धीरे अपने देश वापस चले गए। विदेशी सैलानी मल्लाह समुदाय की कमाई का मुख्य जरिया थे।
दिवाली भारत के प्रमुख त्योहारों में से एक है। वहीं बनारस में दिवाली के एक दिन बाद एकादशी के दिन देवदिवाली बड़ी धूम-धाम से मनाई जाती है। बनारस में गंगा किनारे राजघाट से लेकर अस्सी घाट तक यानी कुल चौरासी घाटों पर तेल के दिये जलाये जाते हैं और सभी घाटों पर गंगा आरती का आयोजन होता है। देवदिवाली में नाव पर बैठकर श्रद्धालुओं में गंगा आरती देखने का बड़ा आकर्षण होता है और बड़ी संख्या में देश-विदेश से श्रद्धालु बनारस देवदिवाली में शामिल होने आते हैं।
इस बार दिवाली से दो दिन पहले तक घाटों पर किसी तरह की तैयारी नजर नहीं आ रही है। देवदिवाली के लिए श्रद्धालु महीनों पहले से ही नावें बुक करने लगते हैं लेकिन इस बार किसी भी श्रद्धालु ने कोई नाव या बोट देवदिवाली की आरती देखने के लिए बुक नहीं कराया है।
रामजी निषाद (63) के पास कुल दो बोट है, जिसमें से एक बोट की मरम्मत होनी है। बोट की मरम्मत कराने के लिए रामजी ने इको बैंक से 50 हजार रुपये कर्ज लिया था लेकिन लॉकडाउन में परिवार का खर्च चलाने के लिए वह पैसा भी खर्च हो गया। रामजी बताते हैं कि बारह लोगों का परिवार है, परिवार में पांच बच्चे पढ़ रहे हैं। सरकार की ओर से कोई मदद नहीं मिल रही है। बोट मरम्मत कराने के लिए बैंक से 50 हजार रुपये लोन लिया था, लॉकडाउन में वह भी खा गया।
इस बार की दिवाली कैसी रहेगी? इसपर रामजी कहते हैं कि विदेशी से ही कमाही थी वह भी बंद है, जहां पांच सौ रुपये मिलता था अब पचास रुपये मिल रहा है। इस बार कोई त्योहार नहीं हुआ, हम सब देवदिवाली में पाँच से छः हजार कमा लेते थे, अभी तक कोई बुकिंग के लिए नहीं आया। इस समय तक हमारी अच्छी कमाई हो जाती है लेकिन यह पूरा साल तो ऐसे ही खत्म हो गया।
नाविक पत्नी का जेवरात गिरवी रखने को मजबूर
निषाद समाज के लोग जहां तेजी से पारम्परिक पेशे को छोड़कर अन्य कामों की ओर मुड़ रहे हैं वहीं इस समाज से आने वाले कई नाविकों व मछुवारों ने परिवार का पेट पालने के लिए पत्नी के गहने गिरवी रखने लगे हैं या अपनी बोट बेचकर जीवनयापन करने को मजबूर हैं।
ज्ञानू शाहनी (32) तुलसी घाट पर यात्रियों का इंतजार करते हुए, घाट पर आने वाले हर एक से 'सबसे कम पचास रुपये' में नाव से यात्रा कराने की बात कह रहे हैं। हमने ज्ञानू से जानने की कोशिश की कि कमाई-धंधे की क्या स्थिति है? ज्ञानू बताते हैं कि तीन लोगों का परिवार है, खाने के लिए नहीं है इसलिए पत्नी और बच्चे को ससुराल भेज दिया। कमरे का किराया देने के लिए पैसे नहीं थे इसलिए कमरा भी छोड़ना पड़ा और तबसे यहीं बोट पर सो जाता हूँ।
ज्ञानू आगे कहते हैं कि लॉकडाउन से पहले जीने-खाने की कोई दिक्कत नहीं थी लेकिन अब कभी 100, कभी 200 और कभी कुछ नहीं मिलता, ऐसे में दिक्कत का सामना करना पड़ता है। इस दिवाली में साथ न परिवार है न घर है, कौन सी दिवाली मानेगी?
दिवाली एक ऐसा त्योहार है जिसमें भारतीय परंपरा के अनुसार लोग बाज़ार से ज्यादा से ज्यादा सामान की खरीददारी करते हैं। लेकिन बनारस के नाविक इस दिवाली में अपनी नावें बेचने और पत्नी का गहना गिरवी रखने को मजबूर हैं।
वाराणसी निषादराज कल्याण समिति के महामंत्री बबलू निषाद के पास तीन बोट है और वे पांच भाषाओं के जानकार हैं। बचपन से गंगा में नाव चला रहे हैं। लेकिन लॉकडाउन के कारण परिवार चलाने और बच्चे का स्कूल में प्रवेश कराने के लिए पत्नी का गहना गिरवी रखने को मजबूर हैं। बबलू बताते हैं कि मार्च से अबतक अन्य व्यवसाय की तुलना में नाविकों का 95 फीसदी अधिक नुकसान हुआ है। प्रशासन ने फार्म भरवाया लेकिन कभी एक रुपया खाते में नहीं आया। तीन साल से बातें हवा-हवाई है बनारस के निषाद समाज को कुछ नहीं मिला।
बबलू कहते हैं कि बिना पैसे के दिवाली नहीं होती। देवदिवाली माझी समाज के लिए वरदान है लेकिन जो नाव पर निर्भर हैं उनकी दिवाली बहुत बुरी जाने वाली है। हमारा व्यवसाय पूरा टूरिज्म से है, लगभग नौ महीने से व्यवसाय ठप है बिजली बिल और बच्चों की पढ़ाई सब कर्ज लेकर हो रहा है। मैं रो नहीं सकता, बोल नहीं सकता, बस जिंदा हूँ।
बबलू निषाद आगे कहते हैं कि गली में छोटा सा रेस्टोरेंट था इस लॉकडाउन में वह भी बंद हो गया। बच्चों का एडमिशन करवाने और दैनिक जीवन चलाने के लिए पत्नी का गहना सत्तर हजार में गिरवी रखना पड़ा।
सभी फोटो : गौरव गुलमोहर
(लेखक स्वतंत्र पत्रकार हैं।)
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