किसानों की ऐतिहासिक जीत के मायने
किसान आंदोलन ने आखिर मोर्चा फतह कर लिया। एक साल पूर्व संविधान दिवस के दिन शुरू हुआ दुनिया का अनोखा आंदोलन आज अंतरराष्ट्रीय मानवाधिकार दिवस की पूर्व-संध्या पर अपने विजयी समापन की ओर बढ़ रहा है।
ऐतिहासिक किसान-आंदोलन की जीत किसानों के इस वज्र-संकल्प का ऐलान है कि न कोई कारपोरेट गिरोह हमारी कृषि पर कब्जा कर सकता है, न कोई फ़ासिस्ट गिरोह हमारे लोकतंत्र को बंधक बना सकता !
वैसे तो आंदोलन पर लंबे समय तक शोध-अध्ययन होते रहेंगे, पर प्रथम दृष्टया इसकी कुछ अहम खासियतें दिखती हैं।
सबसे बड़ी बात इसने देश को और शायद दुनिया को नई आशा दी है। किसानों ने अपने आंदोलन के बल पर दुनिया की आज के दौर की सबसे शातिर despotic सरकारों में से एक मोदी-शाह जोड़ी को झुकाकर यह उम्मीद फिर ज़िंदा कर दी कि "जनता लड़ेगी, जनता जीतेगी "। फिर यह साबित कर दिया कि जनता ही इतिहास की असली निर्माता है। एक अर्थ में यह हमारे संविधान के मूल्यों की भी जीत है, जिन्हें सम्बल बनाकर यह अभूतपूर्व लड़ाई लड़ी गई और बदले में इस जीत ने उन्हें और पुष्ट किया है।
यह आन्दोलन वैश्विक वित्तीय पूँजी और कारपोरेट घरानों के पुरजोर समर्थन के साथ लाये गए कानूनों को रद्द करवाने में सफल हुआ है। यह समकालीन विश्व की अपने तरह की इकलौती, अनोखी घटना बन गयी है, जिसने पूरी दुनिया का ध्यान आकर्षित किया है। इसने पूरी दुनिया के मेहनतकशों को कारपोरेट-सत्ता से टकराने और जीतने का हौसला दिया है और रास्ता दिखाया है। आने वाले दिनों में यह देश के अंदर नवउदारवादी हमलों के विरुद्ध और बड़ी लड़ाइयों का उत्प्रेरक बनेगा।
इस आंदोलन ने भारतीय समाज में किसानों की केन्द्रीयता को फिर से स्थापित किया है। हमारी आज़ादी की लड़ाई तभी सफ़ल हुयी थी जब गांधी जी और कम्युनिस्टों, सोशलिस्टों ने किसानों को उसके साथ जोड़ दिया। गांधी का " half-naked फकीर " वाला पूरा अवतार ही- उनकी भाषा-बोली, मुहावरे, कार्यक्रम, संघर्ष के रूप-सब लगता है अपने को किसानों से और किसानों को आज़ादी की लड़ाई से जोड़ने का उपक्रम था।
आज़ादी के बाद से भारतीय समाज और राजनीति की यह सबसे बड़ी कमजोरी थी कि किसानों की हमारे सामाजिक जीवन में केन्द्रीयता खत्म हो गयी थी। इस आंदोलन ने आज़ादी की लड़ाई के बाद टूट गयी उस कड़ी को फिर जोड़ दिया है। यह महज संयोग नहीं है कि इस ऐतिहासिक आंदोलन में भी कम्युनिस्टों और सोशलिस्टों ने किसान-नेताओं के साथ मिलकर निर्णायक भूमिका निभाई है और सत्याग्रह व जनान्दोलन के रास्ते जीत हासिल की है।
इसने किसानों के अंदर अपने अधिकार की चेतना और नागरिकबोध पैदा किया है तथा उन्हें इस एहसास से भर दिया है कि वे सरकारी फैसलों के निष्क्रिय object नहीं, वरन नीतियों के निर्माता और अपने भाग्य के नियंता (subject ) हैं। राष्ट्रीय जीवन में सचेत वर्ग के रूप में किसानों का उदय हमारे लोकतंत्र के लिये शुभ है और आने वाले दिनों में हमारे समाज और राजनीति के लिए इसके दूरगामी परिणाम होंगे।
इस आंदोलन ने MSP को राष्ट्रीय एजेंडा बना दिया है। अब तक जिस MSP को केवल पंजाब-हरियाणा के छोटे से इलाके के किसान जानते थे और उन्हें ही वह उपलब्ध थी, उस MSP को-अपनी फसल और मेहनत की वाजिब कीमत के सवाल को- इस आंदोलन ने देश के हर किसान का मुद्दा बना दिया और उसे हासिल करने की आकांक्षा पिछड़े से पिछड़े इलाकों के किसानों के अंदर भी पैदा कर दी।
इसकी गारण्टी की दिशा में वे सरकार से कमेटी बनवाने में सफल हो गए। MSP को मुकम्मल तौर पर लागू करवाने की जद्दोजहद भविष्य में किसान-आंदोलन पार्ट-2 का लॉन्चिंग पैड बन सकती है।
इस आंदोलन ने देश का पूरा डिस्कोर्स बदल दिया। सत्तारूढ़ निज़ाम की विभाजनकारी राजनीति ने राष्ट्रीय एकता और गंगा-जमनी तहज़ीब को जो अपूरणीय क्षति पहुंचाई थी, उसे किसान-आंदोलन ने पूरी तरह पलट दिया। इसने धर्म-सम्प्रदाय-जाति-क्षेत्र-लिंग की fault-lines के पार पूरे देश के किसानों को लड़ाकू एकता के सूत्र में बांधकर राष्ट्रीय एकता, भाईचारे और साम्प्रदायिक सौहार्द को मजबूत किया है तथा विभाजनकारी एजेंडा को पीछे धकेल दिया है। जाहिर है इसने विभाजन-ध्रुवीकरण की संजीवनी पर पलने वाली वाली संघ-भाजपा की राजनीतिक संभावनाओं पर मरणांतक चोट की है और 22 में योगी तथा 24 में मोदी की विदाई की पटकथा लिख दी है।
किसान-आंदोलन ने देश मे बने खौफ और आतंक के माहौल को तोड़ दिया। दमन और साजिश के बल पर आंदोलन को कुचल देने की फ़ासिस्ट सत्ता की सारी कोशिशों का साहस के साथ मुकाबला करके और शिकस्त देकर किसान आंदोलन ने पूरे देश में लड़ने का नया जज्बा और साहस पैदा किया।
अपनी आजादी और अधिकारों के लिए हर बलिदान देकर भी बेखौफ लड़ाई के हमारे स्वतंत्रता-संग्राम के महान मूल्यों को इस आन्दोलन ने फिर पुनर्जीवित कर दिया। विरोध के संवैधानिक अधिकार (Right to Protest ) को non-negotiable बनाकर और हर कुर्बानी देकर उससे पीछे हटने से इनकार करके किसान-आंदोलन ने ऐलान कर दिया कि कोई तानाशाह गिरोह हमारे लोकतंत्र का अपहरण नहीं कर सकता।
भविष्य के इतिहासकार नोट करेंगे कि इतिहास की एक निर्णायक घड़ी में किसान-आंदोलन ने भारत को एक बहुसंख्यकवादी फासीवादी निज़ाम के शिकंजे में जाने से बचा लिया था। यह अनायास नहीं था कि किसानों ने अपने आंदोलन की शुरुआत संविधान दिवस पर किया था और इतिहास का संयोग देखिए कि मानवाधिकार दिवस की पूर्वसंध्या पर इसका लगभग समापन हो रहा है।
यह आंदोलन युगों-युगों तक फासीवाद/अधिनायकवाद के विरुद्ध लोकतन्त्र, इंसाफ और हक के लिए जनसंघर्षों की प्रेरणा और मॉडल बना रहेगा।
इस आंदोलन ने अनेक मिथक तोड़े। इसने यह दिखा दिया कि स्थापित नेतृत्व, charismatic चेहरे के बिना भी एक महान आंदोलन खड़ा हो सकता है और विजयी हो सकता है। इस अर्थ में यह एक नए किस्म का और भविष्य का आंदोलन था। 500 से ऊपर विविधतापूर्ण संगठनों को एकसूत्र में बांधकर उसूली दृढ़ता और कार्यनीतिक लचीलेपन के साथ संचालित यह आंदोलन लोकतान्त्रिक संगठन संचालन का भी मॉडल है। राजनैतिक दलों की भागीदारी के बिना, उनसे हर हाल में अपनी स्वायत्तता बरकरार रखते हुए, लेकिन एक सुस्पष्ट राजनीतिक दिशा और निशाने के साथ, इस आंदोलन ने जनता के समर्थन के बल पर जीत हासिल की है।
स्वतन्त्र पत्रकारों, जनपक्षधर सोशल मीडिया portals, बुद्धिजीवियों, यूट्यूबर्स के जुनूनी अभियान की मदद से किसान-आंदोलन ने कारपोरेट बुद्धिजीवियों और गोदी मीडिया के आक्रामक propaganda द्वारा गढ़े गए नैरेटिव को ध्वस्त कर दिया और जनता के बीच perception की लड़ाई जीत ली। (बेशक इस मौके पर आंदोलन के अखबार " Trolley Times" को कोई कैसे भूल सकता है !)
इस आंदोलन ने समाज के सभी लोकतान्त्रिक आंदोलनों और प्रगतिशील विचारधाराओं से शक्ति अर्जित की। इसने मजदूर, कर्मचारी-छात्र, युवा, महिला, संस्कृति कर्मियों- सब संगठनों के साथ एकजुटता कायम की। फ़र्ज़ी मुकदमों में बंद लोकतान्त्रिक शख्सियतों की रिहाई की मांग उठायी, आदिवासियों-दलितों पर उत्पीड़न के खिलाफ आवाज बुलंद की। यहां तक कि अपने लोकतान्त्रिक उसूलों पर अविचल रहते हुए इसने धार्मिक और सामाजिक संस्थाओं के समर्थन से भी ताकत हासिल की और बदले में उन्हें आधुनिक जनतांत्रिक मूल्यों से आप्लावित किया ।
समग्रता में इस आंदोलन ने भविष्य की नई लोकतान्त्रिक जनराजनीति की एक झलक दिखाई और उसकी जमीन मजबूत की।
कृतज्ञ राष्ट्र इस महान आंदोलन के अमर शहीदों तथा उन अनगिनत योद्धाओं का हमेशा ऋणी रहेगा जिन्होंने अकथनीय यातनाएं सह कर भी इस आंदोलन को मंजिल तक पहुंचाया और हमारी कृषि पर साम्राज्यवादी व कारपोरेट ताकतों की कब्जे की कोशिश को नाकाम कर दिया तथा हमारे गणतंत्र को फासीवादी ठगों से बचा लिया।
(लेखक इलाहाबाद विश्वविद्यालय छात्रसंघ के पूर्व अध्यक्ष हैं। विचार व्यक्तिगत हैं।)
अपने टेलीग्राम ऐप पर जनवादी नज़रिये से ताज़ा ख़बरें, समसामयिक मामलों की चर्चा और विश्लेषण, प्रतिरोध, आंदोलन और अन्य विश्लेषणात्मक वीडियो प्राप्त करें। न्यूज़क्लिक के टेलीग्राम चैनल की सदस्यता लें और हमारी वेबसाइट पर प्रकाशित हर न्यूज़ स्टोरी का रीयल-टाइम अपडेट प्राप्त करें।