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बुलडोज़र कार्रवाई के बाद महरौली : मलबे में बिखरे आशियाने को निहारती बेबस आंखें

दिल्ली के महरौली में DDA ने अतिक्रमण के ख़िलाफ़ कार्रवाई की, इस दौरान जिन लोगों के घर टूटे अब वे किस हाल में हैं ये जानने की कोशिश की गई। ये हमारी पिछली स्टोरी का दूसरा भाग है।
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G-20 के लिए दिल्ली को संवारा जा रहा है, इस दौरान दिल्ली के महरौली में DDA ने अतिक्रमण के ख़िलाफ़ बुलडोज़र चलाया और कई लोगों के घर ज़मींदोज़ कर दिए, कोर्ट के आदेश के बाद कार्रवाई तो रुकी गई लेकिन कभी सुकून से अपने घरों में रह रहे लोग गलियों में बदहवास दौड़ते दिख रहे हैं।

बुलडोज़र थम चुका था, लेकिन हर तरफ़ गर्द का ग़ुबार था, टूटे घरों से झांकती बेबसी थी, चारों तरफ़ अजीब ख़ामोशी थी जो रह-रह कर सुबकियों और अफसोस की बातचीत से टूट रही थी।

एक अनूठे जज़्बे की तस्वीर दिखी

इन सब मंज़र के बीच दो लोगों की बातचीत पर ध्यान गया। एक शख़्स दूसरे शख़्स के कंधे पर दिलासा देते हुए हाथ रख रहा था, तो कभी सब्र रखने की हिदायत देती हुई मुस्कुराट के साथ गले लगा रहा था। ये दिल्ली IIT से रिटायर हुए प्रोफेसर विपिन कुमार त्रिपाठी थे जो मोहम्मद शाक़िब (जिनके घर पर बुलडोज़र चला) को तसल्ली दे रहे थे।

दिल्ली IIT से रिटायर प्रोफेसर विपिन कुमार त्रिपाठी और जिनका घर टूटा मो, शाक़िब

बुज़ुर्ग प्रोफेसर विपिन कुमार देशभर में घूम-घूमकर बढ़ती नफ़रत के ख़िलाफ़ पैम्फलेट बांटते हैं और शांति का संदेश देने की कोशिश करते हैं, कंधे पर भारी थैला लिए वो महरौली में टूटे घरों के बारे में पता लगाने पहुंचे तो उनकी मुलाक़ात मोहम्मद शाक़िब से हो गई। बातचीत के दौरान प्रोफेसर त्रिपाठी ने जानना चाहा कि जो भी घर टूटे हैं उनमें ज़्यादातर घर किस मज़हब के लोगों के हैं लेकिन उनके इस सवाल को मोहम्मद शाक़िब ने बिल्कुल ख़ारिज़ कर दिया और प्रोफेसर त्रिपाठी को जवाब की जगह वो 'ख़ुशी' मिल गई जिसके लिए वो भटकते रहते हैं।

मोहम्मद शाक़िब से बातचीत करके चले गए प्रोफेसर त्रिपाठी दोबारा लौटकर आए और कहने लगे, “मैं आपके जज़्बे को सलाम करने, आपका एहतराम करने दोबारा लौटा हूं।” उन्होंने कहा, “मोहम्मद शाक़िब जैसा जज़्बा देश से ख़त्म होता जा रहा है (मौजूदा दौर में), मैं उनसे बहुत मुतासिर हुआ हूं, किसी का 10 रुपये का नोट खो जाए तो वो परेशान हो जाता है, इनका तो ज़िंदगी भर की कमाई जोड़कर बना घर मलबा हो गया लेकिन बावजूद इसके इस शख़्स के दिल में किसी के लिए ज़रा भी नफ़रत नहीं है।”

मोहम्मद शाक़िब, जिनका घर टूटा और घर जो अब मलबे में तब्दील हो चुका है

प्रोफेसर त्रिपाठी का मोहम्मद शाक़िब को ग़म के इस माहौल में हौसला देना, कंधे पर हाथ रखकर दिलासा देते देखना, ये वो तस्वीर है जो आख़िरी बार कब दिखी थी याद नहीं आता, इस ग़मज़दा माहौल में ये तस्वीर कितनी क़ीमती है इसका अंदाज़ा लगाया जा सकता है। 

दो उम्रदराज़ लोगों की इस मुलाक़ात के बाद हमने मोहम्मद शाक़िब से बात की। अजीब इत्तेफ़ाक़ था जिस जगह मोहम्मद शाक़िब का घर था उसी के बग़ल में सीनियर सिटीजन वेलफेयर एसोसिएशन का बोर्ड लगा था। लेकिन आज एक बुज़ुर्ग उस बोर्ड के आगे खड़े होकर इस सवाल का जवाब तलाश कर रहे हैं कि उनके टूटे घर के लिए कौन ज़िम्मेदार है।

बेघर हुए बुज़ुर्ग अब कहां जाएंगे?

वो (शाक़िब) कहते हैं, “सिंगल स्टोरी, चार कमरे का मकान था मेरा, मैं क़रीब 40 साल से यहां रह रहा हूं। यहां क़रीब एक महीना पहले पूरे इलाक़े में नोटिस लगे थे, मुझे लग रहा है जैसे ही MCD के नतीजे आए उसके कुछ दिन बाद ही ये नोटिस अंधेरिया मोड़ से भूलभुलैया तक लगे थे। 14 तारीख़ को उन्होंने कहा कि घर ख़ाली करो, ख़ाली तो क्या ही करते अचानक ही फोर्स आ गई और देखते ही देखते सब ज़मींदोज़ कर दिया। मैंने थ्री व्हीलर चलाकर ये मकान बनाया था। तीन बच्चे हैं-दो बेटियां और एक बेटा। बेटियों की शादी कर दी, बेटा अपने काम की वजह से फ़रीदाबाद में रहता है और अब यहां मैं अकेला रहता हूं। अब मुझे कुछ दिख भी नहीं रहा, मैं कहां रहूंगा, बड़ी दिक़्क़त में हूं।

मेरी उम्र 71 साल हो गई है, अब मैं कहीं नौकरी भी नहीं कर सकता, मेरे घर के बाहर सीनियर सिटीजन वेलफेयर का बोर्ड लगा है लेकिन बुज़ुर्गों का कोई लिहाज़ नहीं, कुछ पूछा ही नहीं, कोई काग़ज़ ही नहीं देखे, तुम कब से रह रहे हो, कोई रजिस्ट्री है कि नहीं,  क्या है, क्या नहीं है, वो कुछ भी देखने को तैयार नहीं थे बस आए और बुलडोज़र चला दिया। हम उनसे गुज़ारिश करते रहे कि आज स्टे होने वाला है, थोड़ा ठहर जाओ, इसपर उन्होंने कहा कि जब तक हमारे हाथ में हार्ड कॉपी नहीं आ जाती हम नहीं रुक सकते, तीन बजे के बाद से तो मैसेज आने भी शुरू हो गए थे लेकिन ऐसा लगा जैसे कार्रवाई करने वाले बड़ी जल्दी में थे, अब इससे ज़्यादा मैं बोलने की हालत में नहीं हूं, तक़लीफ़ में हूं तो देखो क्या होता है आगे?”

सवाल : अब आप कहां जाएंगे?

शाक़िब : कहीं नहीं इसी मलबे पर ही चारपाई डालूंगा, मेरे पास कोई साधन नहीं है और कहीं और रहने की गुंजाइश नहीं है। ये पूरा इलाक़ा ख़ाली हुआ है इसलिए किराया बहुत ज़्यादा हो गया है, हम कोशिश ज़रूर कर रहे हैं लेकिन सिंगल रूम का किराया 20 हज़ार तक बताया जा रहा है, और फिर कोई कह रहा है कि दो महीने का एडवांस दो, तो कोई कह रहा है छह महीने का एडवांस दो। इसलिए न कोई गुंजाइश और न ही कोई साधन।

''घड़ी टूटी और ज़िंदगी थम गई''

मोहम्मद शाक़िब के बग़ल में ही एक और घर की दीवारों को बुलडोज़र कार्रवाई ने झरोखे में तब्दील कर दिया, घर की सीढ़ियों से चढ़कर ऊपर जाने पर जिस चीज़ पर पहली नज़र पड़ती है वो है टूटी हुई घड़ी, ऐसा लग रहा था कि इस बुज़ुर्ग महिला का वक़्त भी उसी वक़्त ठहर गया जब प्रशासन का बुलडोज़र उनके घर की दीवारों पर चला।

इस बुज़ुर्ग महिला का कहना है कि उनके पति और उन्होंने पेट काट-काटकर इस घर को बनाया था। आज उनके पति दुनिया में नहीं, एक बेटा भी दुनिया से रुखसत हो चुका है, सरकार की तरफ़ से पेंशन मिलती है (ढाई हज़ार) ऐसे में आगे की ज़िंदगी कैसे कटेगी? 

बुज़ुर्ग महिला जिनका घर टूटा

कई आरोप लगाते हुए वो सवाल पूछती हैं :

“जब हमने बिल्डर से घर बनवाया तभी आप रोक देते पर उस वक्त जो आता वही पैसे ले जाता था, हर लिंटर पर पैसा मांगा गया और हमने दिए, सोचिए कैसे दिया होगा? अपना पेट काट-काट कर दिया। आज तीन-चार दिन हो गए रोटी एक का निवाला हमारे मुंह में नहीं गया, जिस दिन से घर टूटा है हमारे घर में रोटी नहीं बनी, कोई खिलाने भी आता है तो रोटी हलक से नीचे नहीं उतर रही। आपको हम अपनी आपबीती क्या बताएं, 70-72 साल की उम्र, सोचिए, आपके यहां भी कोई बूढ़ा होगा, मैं क्या करूं, किस दरवाज़े पर जाऊं बताइए आप?”

सवाल : अब आगे क्या करेंगी आप?

जवाब : बस मरने के अलावा अब कोई चारा नहीं छोड़ा इन्होने हमारे सामने, ये घर मोदी लें, केजरीवाल लें या कोई भी ले-लें अब हमें कोई मतलब नहीं, अगर घर को बनाने के लिए कुछ देंगे तो ठीक वर्ना....

इसे भी पढ़ें : बुलडोज़र कार्रवाई के बाद महरौली : “हम रहने वाले हैं उसी उजड़े दयार के”

कुछ सवाल

महरौली में इन दो बुज़ुर्गों को देखकर कुछ सवाल तो खड़े हो रहे थे :

  • एक तरफ़ सरकार बुज़ुर्ग बेवाओं को पेंशन दे रही है और दूसरी तरफ़ उनके घरों पर इस तरह की कार्रवाई (बुज़ुर्गों पर ये कार्रवाई कितनी सही है?)
  • एक तरफ़ दिल्ली में बुज़ुर्गों के ख़ास ख़्याल रखने के दावे किए जाते हैं, उनकी सुरक्षा के लिए ख़ास इंतज़ाम किए जाते हैं और दूसरी तरफ़ उनके घरों को जल्दबाज़ी में तोड़ कर उन्हें बेघर कर दिया गया, बुज़ुर्गों के घरों पर इस तरह जल्दी में की गई कार्रवाई क्या जायज़ है?
  • जिन घरों का हाउस टैक्स भरा जा रहा था, बिजली-पानी के बिल आ रहे थे तो पहले ये क्यों नहीं पता चल पाया कि ये घर अतिक्रमण कर बनाए गए हैं?
  • और अगर इन घरों को तोड़ना ही था तो पहले इन लोगों को कहां रखा जाएगा इसके बारे में किसी ने कुछ क्यों नहीं सोचा?
  • बहुत से बच्चों के एग्ज़ाम चल रहे हैं जिसमें 10वीं 12वीं के बोर्ड एग्ज़ाम भी शामिल हैं तो क्या एग्ज़ाम ख़त्म हो जाने तक भी इंतज़ार नहीं किया जा सकता था?

ये महज़ कुछ सवाल हैं, जिनके जवाब जाने किस के पास होंगे? सवालों और जवाबों में उलझी इस बुज़ुर्ग महिला के घर के दरवाज़े पर एक लड़की ज़ार-ज़ार रोती दिखी, पूछा तो सिसकती हुई आवाज़ में कहने लगी, “इस घर के आंगन में खेलते हुए हम बड़े हुए हैं, यहां नींबू लगा था, अमरूद का पेड़ लगा था, हम तोड़कर खाते थे, ख़ाला के पास पढ़ने आते थे, ये घर हमारे सामने ही बना था, लेकिन अब उन्हें बुढ़ापे में बेघर कर दिया गया।''

जिस घर में खेलकर बड़ी हुई उसे टूटा देख रोने लगी लड़की 

दिव्यांग भाई-बहन अब कहां जाएंगे?

महरौली में बुलडोज़र जहां-जहां अपने निशान छोड़ गया था उसपर चलते हुए बस बेबसी, आंसू और लाचारी ही दिखाई दे रही थी। महरौली आर्किलॉजिकल पार्क से महज़ कुछ क़दमों की दूरी पर जंगली पेड़ों की छाया के नीचे बैठा एक कुनबा उदास, मायूस, मातम मनाता दिखाई दे रहा था। वो मंज़र देखकर ही रूह कांप रही थी, बिस्तर पर एक लड़की लेटी थी, पैर में प्लास्टर लगा था (पता चला कि वो दिव्यांग है) और एक लड़का व्हील चेयर पर बैठा था, दो बुज़ुर्ग और आस-पास धूल में खेलते बच्चे, कुछ मुर्गियां, खरगोश और बकरियां भी टूटे घर के मलबे पर नज़र आ रहे थे।

16 लोगों का परिवार खुले आसमान के नीचे रह रहा है 

''जहां झुग्गी वहां मकान का क्या हुआ?''

दोपहर का वक़्त था, सूरज सिर पर था, जो लड़की चल-फिर नहीं सकती उसके माथे पर पसीने की बूंदे थीं पर वो कैसे पोछे समझ नहीं आ रहा था, बेबसी और लाचारी क्या होती है ये पेड़ के नीचे बिखरे इस परिवार में दिख रही थी। हमने परिवार के उस बेटे से बात की जो मज़दूरी करता है और परिवार चलाने की बड़ी ज़िम्मेदारी उसी के कंधे पर है।

“मेरा नाम सद्दाम है, परिवार में छोटे-बड़े सबको मिलाकर कुल 16 लोग हैं, परिवार में तीन भाई-बहन दिव्यांग हैं (दो बहनें और एक भाई, जिन्हें सरकार की तरफ़ से आर्थिक सहायता के रूप में ढाई हज़ार की पेंशन मिलती है)। हमारा वोटर आईडी, आधार कार्ड सब कुछ यहीं का बना हुआ है। राशन कार्ड, बिजली का बिल सब कुछ यहां का है, हम बेलदारी का काम करते हैं। डेली कमाते हैं, डेली खाते हैं, उस दिन अचानक ही बुलडोज़र आया सामान तक निकालने का वक़्त नहीं दिया, मेरी दोनों दिव्यांग बहने यहीं लेटी पड़ी थीं, तो बोलने लगे 'जल्दी इन्हें यहां से हटाओ', एक तरफ़ घर में बुलडोज़र चल रहा था और दूसरी तरफ हम चार लोग मिलकर बहनों को हटा रहे थे। हम लोगों पर ज़रा भी तरस नहीं खाया, घर टूटने के बाद से हम यूं ही खुले में पड़े हैं, ना खाना, ना पीना, पड़ोस के लोग बच्चों के लिए कुछ दे जा रहे हैं, पीने के पानी तक के लिए परेशानी हो रही है, वो देखिए पीने के पानी की टंकी तोड़ दी गई है, सब तोड़ दिया गया, ना नोटिस दिखाया, ना सामान निकालने का वक़्त दिया।

सरकार ने तो कहा था कि 'जहां झुग्गी वहां मकान मिलेगा’, अब बताइए जिस घर में तीन लोग दिव्यांग हैं उन्हें कहां ले जाएंगे?, किराये पर घर भी नहीं मिल रहा। अब इतना बड़ा परिवार लेकर हम कहां जाएं? 12 हज़ार, 15 हज़ार किराया मांग रहे हैं, 500 रुपये कमाने वाला इतना किराया कहां से देगा? इतने बड़े परिवार को कोई कमरा देने को भी राज़ी नहीं हो रहा है। मेरी सरकार से गुज़ारिश है कि मैं जहां हूं मुझे यहीं मेरे हाल पर छोड़ दिया जाए, झाड़ू वालों को वोट दिया था, वोट लेने के लिए तो सब आ जाते हैं, मदद के लिए कोई नहीं आता। वोट के वक़्त चारों तरफ से लोग आते हैं, लेकिन अब कोई पूछने नहीं आया कि खाना खाया कि नहीं, पानी पिया कि नहीं, ज़िंदा बचे हो या नहीं।''

दिव्यांग लड़की और मलबे में पड़ी व्हील चेयर

''ग़रीबों को ही दुनिया उजड़ती है''

वहीं व्हील चेयर पर बैठे सद्दाम के भाई ने हमसे कहा, “मेरा नाम आफ़ताब आलम है, मैं दिव्यांग हूं, मेरी दो बहनें भी दिव्यांग हैं, मैं सरकार से यही पूछना चाहता हूं कि हम लोग कहां जाएं? सरकार से गुज़ारिश है कि हमारे लिए कोई रास्ता बनाएं और हम जहां रह रहे हैं हमें वहीं रहने की इजाज़त दी जाए, जैसी कार्रवाई की गई उसपर क्या कहें, ग़रीबों को ही दुनिया उजड़ती है। 

ये भी देखें : महरौली ग्राउंड रिपोर्ट : DDA के Bulldozer Action से बेघर हुए सैकड़ों लोग!

हमने बहुत से लोगों की बात सुनी लेकिन लग रहा था कि बहुत से लोगों को सुनना बाक़ी रह गया। लेकिन अहम सवाल ये है कि जिन्हें वास्तव में इनकी तकलीफ सुननी और समझनी चाहिए क्या उस प्रशासन और सरकार के कानों तक इन लोगों की बात पहुंच रही है या फिर इन्हें हर पांच साल बाद होने वाले उस जश्न का इंतज़ार करना होगा जिसे लोकतंत्र का महापर्व कहा जाता है?

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