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मोदी सरकार 2.O: तबाही और बर्बादी के पीड़ादायक दो वर्ष

“ये दो वर्ष वास्तव में जनता तथा हमारे संवैधानिक गणतंत्र के लिए, संत्रास के दो वर्ष रहे हैं।” मोदी सरकार के दूसरे कार्यकाल के दो वर्ष पूरे होने पर सीपीआई-एम महासचिव सीताराम येचुरी का विशेष आलेख।
मोदी सरकार

मोदी सरकार के पुननिर्वाचन के बाद के ये दो वर्ष, भारत को एक कट्टर असहिष्णु, मजहबी, फासीवादी ‘हिंदू राष्ट्र’ की आरएसएस की अवधारणा के अनुरूप तब्दील करने की, आरएसएस की परियोजना को पूरा करने के लिए, नए जोश के साथ उस प्रक्रिया के सुदृढ़ीकरण के दो वर्ष रहे हैं, जो वर्ष 2014 के चुनावों के बाद सात साल पहले बाकायदा शुरू हुयी थी।

1925 में आरएसएस की स्थापना के वक्त से यह उसका घोषित उद्देश्य था। एक राजनीतिक परियोजना के रूप में सावरकर ने जिस ‘‘हिंदुत्व’’ को गढ़ा था, उससे हिंदू धर्म का कुछ भी लेना-देना नहीं था। हिंदुत्व की इस परियोजना पर जल्द ही काम शुरू हो गया और 1939 में गोलवलकर द्वारा, आगे बढ़ाई जाती इस परियोजना को हासिल करने के लिए एक सांगठनिक ढांचे के साथ ही एक विचारधारा भी निर्मित कर ली गयी।

भारतीय संविधान पर, जो कि आरएसएस की इस परियोजना का एंटीथीसिस है, हमला करने के लिए 1939 में ही इस परियोजना की नींव रखी गयी थी। वर्ष 2019 के चुनावों के बाद धर्मनिरपेक्ष जनतांत्रिक गणतांत्रिक संविधान की इस तबाही ने उन्मादपूर्ण गति हासिल कर ली है।

महामारी की महाविपत्ति

इस महामारी, भारत में जो जनवरी 2020 में रिकॉर्ड की गयी, के फूट पडऩे के बाद शुरू से ही इस मोदी सरकार की प्राथमिकता कभी भी यह नहीं रही कि महामारी पर काबू पाया जाए और लोगों की जान बचायी जाए। उल्टे वह तो आरएसएस की उन्मुक्त होती इस परियोजना को ही अनथक ढंग से आगे बढ़ाती रही है।

इसके परिणामस्वरूप भारतीय जनता को बड़ी भारी कीमत अदा करनी पड़ रही है। हमारी पार्टी और दूसरी अनेक विपक्षी पार्टियों की अपीलों के बावजूद, पूरे एक वर्ष तक इस महामारी पर काबू पाने के लिए जो भी आवश्यक कदम उठाए जाने चाहिए थे, वे नहीं उठाए गए।

वास्तव में ऐसा करने के पीछे एक बड़ा भारी तिरस्कार का ही भाव रहा है। हमारे स्वास्थ्यकर्मियों को आवश्यक संरक्षण प्रदान करने वाले उपकरण मुहैया कराने, अस्पतालों में जगहें बढ़ाने, (इस ओर इशारा किए जाने के बावजूद कि स्पेन ने अस्थायी तौर पर सभी स्वास्थ्य सुविधाओं का राष्ट्रीयकरण कर दिया है) निजी स्वास्थ्य सुविधाओं को इसमें शामिल करने, ऑक्सीजन का प्रावधान करने और सबसे महत्वपूर्ण बात यह कि बन रहे टीकों के लिए पहले से ऑर्डर देने समेत, स्वास्थ्य क्षेत्र में कोई भी तैयारी नहीं की गयी। इन तमाम मामलों पर मोदी सरकार ने कोई ध्यान नहीं दिया और इसलिए, इन तमाम मामलों में वह बुरी तरह विफल रही है।

बिना किसी तैयारी के अचानक तथा अनियोजित ढंग से किए गए लॉकडाउन ने तो तबाही ही बरपा दी। भारतीय अर्थव्यवस्था, जो महामारी से पहले ही मंदी की ओर अग्रसर थी, पूरी तरह बर्बाद हो गयी। करोड़ों लोग रोजगार से हाथ धो बैठे। भुखमरी बढऩे लगी। लेकिन सीधे नकदी हस्तांतरण या मुफ्त अनाज वितरण का कोई भी कदम नहीं उठाया गया।

घर लौटते हुए प्रवासी मजदूरों और औद्योगिक केंद्रों से उनके पलायन ने, देश के बंटवारे के वक्त लोगों के इधर से उधर भागने की याद दिला दी। अपने घरों में शरण पाने को उत्सुक इन मजदूरों को सडक़ या रेल से लौटने की कोई सुविधा नहीं मुहैया करायी गयी। स्वाभाविक रूप से इसने निस्सहाय गरीबों पर, जो कि भारत की विनिर्माण गतिविधि की रीढ़ हैं, अकथनीय तकलीफें और मौत तो थोपी ही, साथ ही वायरस के प्रसार में भी इसने अपना योगदान दिया।

तमाम पूर्व-चेतावनियों के बावजूद मोदी ने घोषणा कर दी कि कोविड के खिलाफ  जंग जीत ली गयी है। अपने आपको ‘विश्व गुरु’ के रूप में पेश करने की जल्दबाजी में, उन्होंने यह डींग हांकी कि भारत अपने टीका उत्पादन के जरिए मानवता की रक्षा कर रहा है।

इसी बीच कुंभ मेले के आयोजन की इजाजत दे दी गयी। अगले वर्ष के शुरू में होने जा रहे उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनावों में वोट हासिल करने की खातिर और सांप्रदायिक ध्रुवीकरण के अभियान से चुनावी लाभ हासिल करने के लिए, कुंभ मेले का आयोजन सामान्यत: जब होना चाहिए था उससे एक वर्ष पहले ही कर दिया गया।

इसी तरह आईपीएल क्रिकेट टूर्नामेंट की भी इजाजत दे दी गयी। कोविड प्रोटोकोल के तमाम कायदे-कानूनों की धज्जियां उड़ाते हुए प्रधानमंत्री तथा गृह मंत्री ने विशाल चुनावी रैलियां कीं। ये सभी निर्णय विनाशकारी साबित हुए। उन्होंने वायरस का सामुदायिक प्रसार बढ़ा दिया। टीकों की भारी कमी के चलते मौतों और संक्रमण में भारी तेजी आयी।

जैसे ही महामारी की दूसरी लहर भयावह ढंग से शुरू हुयी, मोदी सरकार ने राज्य सरकारों को किसी वित्तीय पैकेज की कोई पेशकेश किए बिना ही, सारा बोझ इन राज्य सरकारों पर डालकर अपनी जिम्मेदारी से पल्ला झाड़ लिया। साथ ही उसने जनता को भी दोषी ठहरा दिया कि उसने सावधानियां नहीं बरतीं। इसका शुद्ध परिणाम यह हुआ कि लोग एक-एक सांस के लिए तड़प-तड़प कर मरने लगे, जीवनरक्षक दवाओं की कमी हो गयी और अस्पतालों में जगहों तथा वेंटिलेटरों की भारी कमी हो गयी।

आज भारत का यह घिनौना रिकार्ड है कि रोज होनेवाली मौतों तथा पॉजिटिव केसों की संख्या भारत में, दुनिया भर में सबसे ऊपर है। मोदी के कोविड प्रबंधन ने ऐसी भयावह तबाही बरपा की है। यह सरकार जीवन तो नहीं ही बचा पायी, बल्कि वह तो मृतकों के गरिमापूर्ण अंतिम संस्कार की भी व्यवस्था नहीं कर पायी। नदियों और खासतौर से गंगा में तैरते शवों की भयानक तस्वीरें सामने आयी हैं। शवों का सामूहिक कफन-दफ्न हुआ है। यह मौत का नंगा नाच है जो इस सरकार ने इस देश और देश की जनता को दिखाया है।

आज भी तमाम स्रोतों से टीके खरीदने और पूरे देश में मुफ्त, सार्वभौम जन टीकाकरण की मुहिम चलाना सुनिश्चित करने के जरिए लोगों को राहत पंहुचाने से, इंकार किया जा रहा है। सच्चाई यही है कि भारतीय जनता तभी अपने आपको बचा सकती है, जब वह मोदी सरकार को आवश्यक वित्तीय मदद तथा भोजन राहत मुहैया कराने के साथ ही साथ युद्ध स्तर पर टीकाकरण की मुहिम चलाने पर मजबूर कर कर दे।

संविधान की तबाही

मोदी-2 सरकार की शुरूआत भारतीय संविधान की धारा 370 तथा 35ए को खत्म किए जाने से हुयी। यह वह व्यवस्था थी जो जम्मू-कश्मीर राज्य के दर्जे को परिभाषित करती थी और उसे संरक्षण देती थी। एक ही झटके में वह राज्य गायब हो गया और कम्युनिकेशन के तमाम साधनों के साथ जैसे वह वास्तव में सैन्य अधिग्रहण के तहत आ गया और वहां सामान्य जनजीवन अस्त-व्यस्त ही हो गया। दो वर्ष बाद भी आज स्थिति यही है कि लोगों को सामान्य ढंग से अपना जीवन जीने की इजाजत नहीं है। जिस बहाने से यह पूरी कवायद की गयी थी, वह संविधान तथा उसकी प्रक्रियाओं का खुला उल्लंघन था।

इसके बाद नागरिकता (संशोधन) कानून बनाया गया, जो कि हमारे संविधान का खुला उल्लंघन और उसका निरादर था। पहली बार नागरिकता को किसी व्यक्ति की धार्मिक संबद्धताओं से जोड़ा गया था। सीएए के खिलाफ जिस तरह से देशभर में विशाल विरोध प्रदर्शन हुए, जिनमें युवाओं की जबर्दस्त भागीदारी रही और जिस तरह से उन विरोध प्रदर्शनों से निपटा गया, वह साफ तौर पर यह दिखा रहा था कि शांतिपूर्ण प्रदर्शन करने के जनता के संवैधानिक अधिकार के प्रति, इस सरकार का रवैया कितना अवमाननापूर्ण है।

वह धार्मिक अल्पसंख्यकों को निशाना बना कर, सीएए/एनपीआर/एनआरसी के खिलाफ बढ़ती इस एकता को तोडऩा चाहती थी और इसीलिए उसने अलीगढ़, जामिया और जेएनयू जैसे विश्वविद्यालयों समेत विभिन्न स्थानों पर धार्मिक अल्पसंख्यकों पर हमले किए और जब ‘‘नमस्ते ट्रंप’’ के विशाल स्वागत समारोहों के साथ अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप का स्वागत किया जा रहा था, उसने दिल्ली में सांप्रदायिक हिंसा छेड़ दी।

संविधान के बुनियादी स्तंभों पर हमला

संविधान पर हमला वास्तव में स्वतंत्र भारत के चरित्र पर ही हमला है। भारतीय संविधान उस समृद्ध बहुलता तथा विविधता को अभिव्यक्ति देता है, जो हमारे देश तथा उसकी जनता को परिभाषित करते हैं। भारत की एकता को तभी सुदृढ़ किया जा सकता है, जब इस विविधता के साझे धागे मजबूत होंगे।

आरएसएस/भाजपा, हमारी भाषायी, इथनिक, धार्मिक आदि विविधताओं की तमाम अभिव्यक्तियों पर, एकरूपता थोपने के जरिए इसी अवधारणा पर चोट करते हैं।

‘हिंदुत्ववादी राष्ट्र’ की अवधारणा तमाम धार्मिक समूहों को या तो हिंदूवाद की अधीनता स्वीकार करने या ऐसे दोयम दर्जे के नागरिक बनकर रहने के लिए मजबूर करती है, जिन्हें समानता के संवैधानिक अधिकार प्राप्त नहीं होंगे। तमाम तरह के अलग-अलग ग्रुपों को हिंदूवाद में शामिल करने के जरिए इथनिक विविधता को खत्म करने की कोशिश की जाएगी। ‘‘हिंदी-हिंदू-हिंदुस्थान’’ का आरएसएस का नारा भाषायी एकरूपता थोपता है।

यह प्रयास सामाजिक अंत:विस्फोट का नुस्खा है जिसे भाजपा जनतंत्र, जनतांत्रिक अधिकारों तथा नागरिक स्वतंत्रताओं को कुचलने की दमनकारी कार्यनीतियों और फासीवादी तौर-तरीकों का इस्तेमाल कर के और यूएपीए, देशद्रोह जैसे काले कानूनों का इस्तेमाल करने के जरिए कुचल देना चाहती है। जो भी उनका विरोध करेगा उसके साथ ‘आंतरिक दुश्मनों’ जैसा व्यवहार किया जाएगा। यह जनतंत्र और स्वतंत्रताओं तथा समानता के संवैधानिक अधिकारों का पूरी तरह नकार है।

जैसे जम्मू-कश्मीर में हुआ, वैसे ही लोगों के संवैधानिक अधिकारों पर हमला करने की कोशिश अब लक्षद्वीप में करने की कोशिश की जा रही है, जहां धार्मिक अल्पसंख्यकों पर उन्मादित सांप्रदायिक हमले हो रहे हैं।

आत्मनिर्भरता: आत्मनिर्भरता के बुनियादी स्तंभ को वर्ष 2014 से ही व्यवस्थित ढंग से कमजोर किया जा रहा है, लेकिन 2019 के बाद तो उसमें और तेजी आयी है। राष्ट्रीय संपत्ति की निर्मम लूट हो रही है। इसके साथ ही साथ दरबारी पूंजीवाद का बदतरीन रूप सामने आ रहा है।

सार्वजनिक क्षेत्र को खत्म किया जा रहा है और उसे मिट्टी के मोल बेचा जा रहा है और वित्तीय क्षेत्र का गैरराष्ट्रीयकरण किया जा रहा है जिसका परिणाम यह होगा कि समाज के हाशिए पर पड़े तबकों का पूर्णरूपेण बहिष्करण हो जाएगा।

इसके साथ ही साथ मेहनतकश अवाम के अधिकारों पर निर्मम हमले हो रहे हैं। तमाम श्रम कानूनों को खत्म कर दिया गया है और उनकी जगह जल्दबाजी में नयी श्रम संहिताएं लायी गयी हैं। नए बनाए गए कृषि कानूनों के जरिए कृषि को कार्पोरेट हितों के समक्ष गिरवी रखा जा रहा है। यह भारतीय कृषि तथा हमारे किसानों को तबाहो बर्बाद करने का सबसे पक्का नुस्खा है। इसी तरह भारत की खनिज संपदा को अधिकाधिक निजी मुनाफों के लिए खोला जा रहा है।

संक्षेप में भारत की आत्मनिर्भरता की उन नीवों को, जिनके बूते भारत पिछले सात दशक के दौरान डटकर खड़ा रहा है, निजी पूंजी के अधिकतम मुनाफों के हित के लिए तबाह किया जा रहा है।

इसका गंभीर परिणाम यह हुआ है कि उच्च स्तरों पर भ्रष्टाचार में भारी बढ़ोतरी हुयी है। इसके साथ ही साथ चुनावी बॉन्डों के जरिए राजनीतिक भ्रष्टाचार को कानूनी वैधता दे दी गयी है और राजनीतिक पार्टियों को, विदेशी एंटिटीज से फंड लेने की इजाजत दे दी गयी है।

इसका शुद्ध परिणाम यह हुआ है आर्थिक असमानताओं की खाई बेहद चौड़ी हो रही है। गरीबों को और ज्यादा गरीबी तथा बदहाली में धकेला जा रहा है, जबकि अमीर और अमीर हो रहे हैं।

संघवाद: पिछले दो वर्षों में राज्यों के अधिकारों पर हमले और तीखे हुए हैं। महामारी की इस पूरी अवधि के दौरान संघवाद पर ये हमले और ज्यादा बढ़ गए हैं।

राज्यों द्वारा दिए गए सुझावों पर ध्यान देने से इंकार करके और जीवनरक्षक दवाओं तथा उपकरणों तक पर करों की असहनीय दरें थोपने के जरिए, जिस तरह से जीएसटी को लागू किया जा रहा है, उस सबसे एक ऐसी स्थिति पैदा हो रही है, जिससे राज्यों के संवैधानिक अधिकारों पर खतरा मंडराने लगा है।

सामाजिक न्याय: जहरीले नफरत भरे अभियानों और अल्पसंख्यकों, दलितों, आदिवासियों तथा महिलाओं को निशाना बनाकर की जानेवाली हिंसा के माहौल में, पिछले दो वर्षों में भारी बढ़ोतरी हुयी है।

सामूहिक बलात्कार तथा दलित बच्चों की हत्याओं, वन भूमि से आदिवासियों की बेदखली, वनाधिकार को एक तरह से निरस्त ही कर देने, महिलाओं के खिलाफ  अपराधों में खतरनाक बढ़ोतरी और गरीबों पर निर्ममतापूर्ण हमलों ने हमारी जनता के लिए सामाजिक न्याय, जिसकी गारंटी हमारा संविधान करता है, सुनिश्चित करनेवाले हर बुनियादी सिद्धांत को, कमतर और कमजोर बनाया है।

‘नए भारत’ का विमर्श: मोदी-2 सरकार पिछले दो वर्षों में जिस दिशा में आगे बढ़ती रही है, यह वह दिशा है जिसका उद्देश्य धर्मनिरपेक्ष जनतांत्रिक संवैधानिक गणराज्य को खत्म कर उसकी जगह, अपने कट्टर असहिष्णु फासीवादी हिंदुत्व राष्ट्र की स्थापना करना है।

और इसके लिए जरूरी है कि अंकुश तथा संतुलन बनाए रखनेवाले तमाम संवैधानिक प्राधिकारों तथा संस्थानों को धीरे-धीरे खत्म कर दिया जाए।

संसद: संसद को कमजोर करने और वहां होनेवाली अर्थपूर्ण चर्चा या कमेटियों के काम-काज का त्याग किए जाने के साथ, इस प्रक्रिया की शुरूआत हुयी। संसद को बहुमत की निरंकुशता में घटा दिया गया है।

यह खतरनाक है। भारतीय संविधान का केंद्र है भारत की संप्रभुता, जिसे जनता के प्रति जवाबदेह होने के लिए चुने हुए जनप्रतिनिधियों और विधायिका के प्रति जवाबदेही के रूप में सरकार द्वारा अंजाम दिया जाता है। इसी तरह ‘हम लोग’ अपनी संप्रभुता का निर्वहन करते हैं। अगर संसद निष्क्रिय हो जाती है तो इससे जनता की संप्रभुता कमजोर होती है।

इसके साथ ही साथ न्यायपालिका की स्वतंत्रता को भी व्यवस्थित ढंग से कमजोर किया जा रहा है (धारा 370 को खत्म किए जाने और सीएए को चुनौती देनेवाली याचिकाएं अभी भी लंबित पड़ी हैं)। इसी तरह  चुनाव आयोग की निष्पक्षता को खत्म किया जा रहा है और सीबीआई, सीएजी, ईडी जैसे अन्य संवैधानिक निकायों का भारी दुरुपयोग किया जा रहा है। इनमें कुछ निकायों का इस्तेमाल, केंद्र सरकार तथा गृहमंत्रालय के राजनीतिक बाजू के रूप में खुलकर किया जा रहा है।

मीडिया: अपने एजेंडे को पूरा करने में सफल होने के लिए, आरएसएस के लिए यह जरूरी है कि बड़े पैमाने पर मीडिया की निगरानी की जाए क्योंकि इसी तरह वह सरकारपरस्त झूठ को आगे बढ़ाने के लिए, सरकार के विमर्श को ‘वस्तुगत खबरों’ के रूप में आगे बढ़ा सकता है और ध्रुवीकरण को तीखा करने के लिए, सरकार के अभियानों को सक्रिय रूप से आगे बढ़ा सकता है।

स्वतंत्र भारत में ऐसा कभी देखने में नहीं आया कि कॉरपोरेट मीडिया के एक बड़े तबके ने सरकारी ‘भोपुओं’ की भूमिका अदा की हो, जैसा कि पिछले दो वर्ष से दिखाई दे रहा है।

तर्क पर हमले: आरएसएस की परियोजना को सफल बनाने के लिए यह बहुत ही जरूरी है कि तर्क, तार्किकता तथा वैज्ञानिक मिजाज को सामने न आने दिया जाए और वह सार्वजनिक विमर्श को दिशा न दे पाए। वैज्ञानिक मिजाज को खत्म किया जा रहा है और उसकी जगह पोंगापंथ और अंधविश्वास का प्रभाव बढ़ाया जा रहा है जिससे हिंदुत्ववादी राष्ट्र के लक्ष्य को हासिल करना आसान हो सके।

विश्वविद्यालय, तर्क और तार्किकता के केंद्र होते हैं और इन पर हमला करना इसलिए जरूरी है ताकि अतार्किकता की जीत हो और भारत के इतिहास को फिर से लिखने की आरएसएस की परियोजना की राह हमवार हो सके, ताकि भारत के गंगा-जमुनी इतिहास के अध्ययन की जगह हिंदू मायथोलॉजी को और भारतीय दर्शन की समृद्ध विविधता की जगह, हिंदू धार्मिक मीमांसा का अध्ययन हो। नयी शिक्षा नीति का असली मकसद यही है जिसे, महामारी के इस दौर में इस सरकार द्वारा गैरजनतांत्रिक ढंग से लागू किया जा रहा है।

प्रतीक: और अंत में ‘नए भारत’ के इस विमर्श के लिए जरूरत इस बात की है कि स्वतंत्र भारत के प्रतीकों की जगह, अपने नये प्रतीक गढ़े जाएं।

बुलेट ट्रेन, हालांकि उसका आना असंभव ही है, विशालकाय प्रतिमाओं और सेंट्रल विस्टा के जरिए नयी दिल्ली का पुनर्निर्माण करने जैसी फैंसी परियोजनाएं, बर्लिन में हिटलर के गुंबद की ही याद दिलाती हैं, जो उसके फासीवादी शासन को ही सामने लाने के लिए बनाया जाना था। गनीमत है कि दूसरे विश्व युद्ध के कारण ऐसा नहीं हो पाया।

संत्रास के दो वर्ष

ये दो वर्ष वास्तव में जनता तथा हमारे संवैधानिक गणतंत्र के लिए, संत्रास के दो वर्ष रहे हैं। अब यह जरूरी हो गया है कि जनता को, उसके जीवन को और उनके जीवनयापन की गुणवत्ता को बचाने के लिए; भारत के संवैधानिक गणराज्य की रक्षा करने तथा उसे मजबूत बनाने के लिए; और हमारी जनता के जनतांत्रिक अधिकारों, समानता तथा नागरिक स्वतंत्रताओं, जिन्हें किसी भी तरह से अलगाया नहीं जा सकता, को बचाए रखने के लिए; वे सभी लोग जो भारतीय संविधान के मूल्यों और उसके द्वारा प्रदत्त अधिकारों को अपने दिलों में बसाए हुए हैं, भारतीय गणतंत्र तथा हमारी जनता पर हो रहे इस हमले का प्रतिरोध करने के लिए और उसे मात देने के लिए एकजुट हों।

(लेखक सीपीआई-एम के महासचिव हैं। विचार व्यक्तिगत हैं।)

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