छोटी बचत और ब्याज कटौती : ये न सोचिए कि आप बच गए!
कुछ बातें चाहे जितनी भी गंभीरता से बोली या लिखी जाएं लेकिन पच नहीं पाती हैं। वह झूठ लगती हैं। जब 31 मार्च की शाम को छोटी बचत योजनाओं की ब्याज दरों पर 1.40% कटौती का फैसला सरकार के नोटिफिकेशन के जरिए सोशल मीडिया पर तैरने लगा और सोशल मीडिया पर सरकार की भद्द पिटने लगी तो अगले दिन 1 अप्रैल की सुबह को सरकार ने यह कहते हुए नोटिफिकेशन वापस ले लिया कि यह फैसला भूलवश जारी हो गया था। सरकार भले ही ये चाहती हो कि उसकी इस सफाई या स्पष्टीकरण पर लोग ख़ासकर पांच राज्यों के वोटर पूरा विश्वास कर लें, लेकिन क्या कीजिए, जागरूक और जानकार लोग बिल्कुल भरोसा नहीं कर पा रहे हैं।
बहुत ज्यादा तकनीक में ना जाते हुए भी अगर कॉमन सेंस के हिसाब से सोचा जाए तो आखिरकार यह कैसे हो सकता है कि जो मामला देश भर के पैसे के प्रबंधन से जुड़ा हुआ हो। जिसमें इतना अधिक गुणा गणित हो, उसे सरकार जैसी संस्था भूलवश कैसे जारी कर सकती है?
अगर तकनीक के लिहाज से देखा जाए तो अर्थव्यवस्था के जानकारों का कहना है कि स्मॉल सेविंग स्कीम की ब्याज दरों की हर तिमाही समीक्षा होती है। इन योजनाओं की ब्याज दरें तय करने का फॉर्मूला 2016 श्यामला गोपीनाथ समिति ने दिया था।
इस कमेटी ने अपने सुझाव में कहा था कि छोटी अवधि की बचत योजनाओं पर ब्याज दरों का निर्धारण उसी तरीके के सरकारी बॉन्ड या एकसमान मियाद वाली सरकारी बॉन्ड्स के हिसाब से तय किए जाएं। इसका मकसद था कि इन स्कीमों को बाज़ार के लिहाज से देखा जाए ना कि सरकार की ऐसी कोई नीति हो जिसके तहत वो ये दरें बढ़ाए या घटाए।
इस आधार पर देखा जाए तो छोटी बचत योजनाओं की तरह के सरकारी बॉन्ड पर छोटी बचत योजनाओं की मौजूदा दरों से तकरीबन 100 बेसिस पॉइंट यानी 1 फ़ीसदी कम ब्याज मिल रहा है। इसलिए आर्थिक मसलों से जुड़े सभी जानकार कह रहे हैं कि बैंक को अपनी छोटी बचत दरों में कटौती तो करनी ही पड़ेगी। अब देखने वाली बात यह होगी कि वह किस तरह से और कब करती है। सरकार की तरफ से छोटी बचत दरों में कटौती का जो फैसला लिया गया था वह वित्त मंत्रालय से जुड़े नौकरशाहों की यथोचित प्रक्रिया अपनाते हुए आपसी मंत्रणा के बाद ही लिया गया होगा। ऐसा फैसला तो भूलवश कभी जारी नहीं हो सकता है।
तब यह सवाल बनता है कि आखिरकर सरकार ने इसे वापस क्यों ले लिया? इसमें कोई रॉकेट साइंस नहीं है। इसका सिंपल जवाब है। पांच राज्यों में चुनाव चल रहे हैं। वैसे सरकार का यह कदम वोटर से वोट लेने के लिहाज से बिल्कुल उचित नहीं है। साल 2017-18 के नेशनल सेविंग इंस्टीट्यूट के डाटा को माने तो सबसे अधिक तकरीबन 90 हजार करोड़ रुपये छोटी बचत योजनाओं में पश्चिम बंगाल राज्य के लोगों ने जमा किया है। वही पश्चिम बंगाल राज्य जिसे केंद्र में सत्तारूढ़ भाजपा किसी भी हालत में साम दाम दंड भेद कोई भी रास्ता अपना कर जीतना चाहती है।
इस राजनीतिक दांव-पेच के बाद यह समझने की कोशिश करते हैं कि आखिर कर छोटी बचत योजनाएं क्या होती हैं? इनकी ब्याज दर कम होने से किसको फायदा होता है और इनकी ब्याज दर बढ़ने से किस को नुकसान होता है?
छोटी बचत योजनाएं यानी स्मॉल सेविंग स्कीम वैसी बचत की योजनाएं होती हैं जिन पर भारत सरकार का ठप्पा लगा होता है। यानी जिनके परिपत्र भारत सरकार से जारी होते हैं। जैसे कि प्रोविडेंट फंड, नेशनल सेविंग सर्टिफिकेट, सुकन्या समृद्धि योजना। इनसे मिलने वाले पैसे को केंद्र सरकार नेशनल स्मॉल सेविंग फंड में जमा करती है। अब चूंकि ऐसी बचत की योजनाओं पर भारत सरकार की मुहर लगी होती है, इसलिए इनकी गारंटी भी भारत सरकार लेती है। कहने का मतलब यह कि चाहे कुछ भी हो जाए यहां पैसा जमा करने पर पैसा डूबेगा नहीं। ब्याज दर के हिसाब से जमा करने वाले को भुगतान की अवधि पूरा होने पैसा मिल जाएगा।
इन छोटी बचत योजनाओं के प्रशासन की जिम्मेदारी पोस्ट ऑफिस, राष्ट्रीयकृत बैंक और कुछ बड़े निजीकृत बैंक के पास होती है। इसीलिए सरकार ने नोटिफिकेशन जारी किया कि बैंक छोटी बचत योजनाओं की दरों में अप्रैल से लेकर जून तक की तिमाही के लिए कटौती करें।
अब सवाल ये उठता है कि आखिरकार इसे छोटी बचत योजना क्यों कहते हैं? क्योंकि इनकी ऊपरी सीमा तय होती है। इन बचत योजनाओं में अमीर और कॉर्पोरेट लोग अकूत पैसा जमा नहीं कर सकते। बल्कि यह योजनाएं मेहनतकश लोगों की छोटी बचत को ध्यान में रखकर बनाई गई होती हैं। जैसे कि सीनियर सिटीजन सेविंग स्कीम में 60 साल से अधिक उम्र का व्यक्ति 15 लाख रुपये से अधिक जमा नहीं कर सकता। सालाना प्रोविडेंट फंड की ऊपरी सीमा डेढ़ लाख से ऊपर नहीं जा सकती। और सबसे महत्वपूर्ण बात की छोटी बचतों को प्रोत्साहित करने के लिए सरकार इस पर अमूमन बैंकों में जमा होने वाले फिक्स्ड डिपॉजिट रेट से अधिक दर पर ब्याज देती है।
जब यह बात समझ में आ गई कि छोटी बचत योजनाएं क्या होती हैं? तो इससे यह साफ निष्कर्ष निकलता है कि अगर इन योजनाओं पर ब्याज दर अधिक मिलती है तो इससे फायदा आम लोगों को होता है। जो भारत की 80 फ़ीसदी से अधिक आबादी का प्रतिनिधित्व करते हैं, जिनकी मासिक आय 10 हजार रुपये से कम है। जो इन छोटी छोटी बचत योजनाओं की मदद से अपनी चरमराती हुई वित्तीय स्थिति को संभालने में लगे रहते है। जो आर्थिक गैर बराबरी से पटे पड़े हिंदुस्तान में हाशिए पर रहते हैं।
बैंक लोगों का पैसा अपने यहां जमा करते हैं और जरूरतमंदों को कर्ज पर पैसा देते हैं। इसी तरह से बैंकों का कारोबार चलता है। इसीलिए बैंक कर्ज दर, बैंक की बचत दर से हमेशा ज़्यादा होती है। इन दोनों के बीच का अंतर ही बैंक की कमाई होती है। इसका मतलब यह है कि अगर छोटी बचत योजनाओं पर बचत दर कम होगी तो बैंक की कर्ज दर भी कम होगी। इसलिए सरकार के समर्थन में खड़े और बाजार के बलबूते चलने वाले जानकारों का ऐसे फैसलों पर तर्क होता है कि सरकार ने उचित कदम उठाया है। कर्ज पर ब्याज कम होने की वजह से लोग अधिक कर्ज लेंगे। उनकी जेब में पैसा पहुंचेगा। पैसा खर्च किया जाएगा। अर्थव्यवस्था की रफ्तार बढ़ेगी।
लेकिन इस तर्क में सबसे बड़ा झोल यह है कि यह बनावटी तर्क है। कॉरपोरेट से चल रही मीडिया से पैदा किया हुआ प्रोपेगेंडा है। इस तर्क को तोड़ने के लिए ज्यादा कुछ नहीं करना है, बस अपने आसपास के लोगों से पूछना है कि उनमें से कितने लोग बैंक में पैसा जमा करते हैं और कितने लोग बैंक से कर्ज लेते हैं। आपको दिखेगा कि आपके आसपास मौजूद अधिकतर लोग बैंक में पैसा जमा करते हैं। केवल इक्के दुक्के लोग ही बैंक से कर्ज लेते हैं। आर्थिक मामलों के जानकार विवेक कौल अपने ब्लॉग पर लिखते हैं कि तकरीबन 84 फ़ीसदी बैंक में जमा किया हुआ पैसा छोटी बचत योजनाओं से जुड़ा है। अगर छोटी बचत योजनाओं की ब्याज दर कम होती है तो इनकी जेब पर हमला होता है।
बुढ़ापे में पहुंच चुकी आबादी का बहुत बड़ा हिस्सा तो बैंकों में रखे गए अपने पैसे से मिलने वाले ब्याज से गुजर बसर करता है। बचत दर कम किए जाने से इन पर असर पड़ता है। अगर अर्थव्यवस्था को चलाने की ही बात है तो वह केवल तकरीबन 10 से 11 फ़ीसदी अमीर लोगों के कर्ज लेने से नहीं चलती बल्कि बहुत बड़ी आबादी जो छोटी छोटी बचत योजनाओं में अपना पैसा लगाती है उनके जेब में पैसा पहुंचने से अर्थव्यवस्था की चलने की रफ्तार बढ़ती है।
अंत में मौजूदा अर्थव्यवस्था की बेसिक बात समझते हैं कि क्यों बचत पर मिलने वाला ब्याज कम होता जा रहा है?
भारत सरकार को पैसा चाहिए। अर्थव्यवस्था मंदी के हालात से गुजर रही है तो कमाई नहीं हो पा रही है। भारत सरकार अपनी जरूरत का अधिकतर पैसा बैंक के बचत से हासिल करती है। भारत सरकार को दिए जाने वाले कर्ज के बदले बैंक जो ब्याज लेते हैं, उससे अधिक ब्याज बैंकों को भारत सरकार से अलग दूसरी जगह पर पैसा कर्ज देने पर मिलता है। इसलिए बैंकों का फायदा इसी में है कि वह सरकार को कम पैसा दे। दूसरों को ज्यादा पैसा दें। लेकिन सरकार को अगले दो साल में तकरीबन 25 लाख करोड़ रुपये चाहिए। जो अब तक का रिकॉर्ड स्तर है। यानी बैंकों के पास दूसरी जगह पैसा देने के लिए कम संसाधन होंगे।
सरकार से कर्ज देने के बाद ब्याज के तौर पर अगर कम रिटर्न मिल रहा है तो इसका साफ मतलब है कि बैंकों में रखे हुए बचत पर भी लोगों को कम रिटर्न मिलेगा। इसके साथ सरकार अपने पैसे की जरूरत पूरा करने के लिए पेट्रोल डीजल पर टैक्स लगा रही है। इसलिए महंगाई बढ़ती जा रही है। बचत पर मिलने वाली ब्याज की दर महंगाई से अधिक होनी चाहिए। ताकि महंगाई को समायोजित कर जिंदगी आसानी से चल सके। लेकिन बचत पर महंगाई दर से कम ब्याज मिल रहा है।
इसके अलावा मंदी से गुजर रही अर्थव्यवस्था की वजह से निजी उद्योगों को दिए गए कर्ज से भी ब्याज कम ही मिलेगा। यानी इसका भी असर बैंकों में जमा होने वाले बचत पर पड़ेगा। बचत की दरें कम होंगी। कुल मिलाकर कहा जाए तो अर्थव्यवस्था की चक्रीय गति की वजह से इस समय सबसे अधिक मार बैंकों में छोटी बचत रखने वाला झेलता आ रहा है और सरकार के द्वारा फैसला वापस लिए जाने के बाद भी आने वाले समय में उसे और अधिक मार झेलने के लिए तैयार रहना पड़ेगा।
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