प्रधानमंत्री मोदी की चिट्ठी से पता चलता है कि वह लोगों से कितनी दूर हो चुके हैं
19 मार्च के बाद से प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने देश को तीन बार टेलीविज़न पर सम्बोधित किया है, एक वीडियो संदेश प्रसारित किया है और रेडियो पर अपने दो व्याख्यान दिये हैं। इसके बाद, प्रधानमंत्री के रूप में अपने दूसरे कार्यकाल के एक वर्ष पूरा करने की पूर्व संध्या पर उन्होंने (और उनके सलाहकारों) ने देश के लोगों के नाम एक पत्र लिखा है। इस चिट्ठी को अप्रत्याशित रूप से सभी तरह के मीडिया मंचों पर शानदार ढंग से प्रसारित-प्रकाशित किया गया है।
इस पत्र में 2014 में पहली बार प्रधानमंत्री बनने के बाद से मोदी के नेतृत्व में हासिल की गयी उपलब्धियों का एक नीरस दोहराव दिखायी देता है। इस दोहराव में सर्जिकल स्ट्राइक और अनुच्छेद 370 से लेकर ग़रीबों और ज़रूरतमंदों के लिए संचालित विभिन्न योजनायें और कार्यक्रमों तक का वही पहले वाला स्वर सुनायी पड़ता है, इसके अलावा, लोगों से बात करने की उनकी शैली पूरी तरह उपदेशात्मक है। उदाहरण के लिए, वे कहते हैं, “हमें यह याद रखना होगा कि कोई भी आपदा, कोई भी संकट 130 करोड़ भारतीयों के वर्तमान या भविष्य को निर्धारित नहीं कर सकता है। हम अपना वर्तमान और भविष्य, दोनों ही तय करेंगे”।
कहने की ज़रूरत नहीं कि मोदी इस बात का ज़िक़्र करने का कोई अवसर नहीं चूकते हैं कि वे ख़ुद इस पर नज़र रखे हुए हैं और इस काम को ख़ुद ही अंजाम दे रहे हैं। मिसाल के तौर पर वे कहते हैं, “मैं दिन-रात सारी कोशिशें कर रहा हूं। मुझमें कुछ कमी हो सकती है, लेकिन इस देश में कोई कमी नहीं है। यही कारण है कि मैं आप पर, आपकी ताक़त पर और आपकी क्षमता पर अधिक विश्वास रखता हूं। मेरे संकल्प के पीछे की ऊर्जा आप, आपका समर्थन और आपका आशीर्वाद है”।
दुनिया के सबसे बड़े देशों में से एक (और पिछले साल तक सबसे तेज़ी से बढ़ते देशों में से एक) के नेता के इस तरह के बयान, उनकी विनम्रता का संकेत और एक महान राजनेता की बानगी देता है। लेकिन, अबतक वे इसी तरह की बातें इतनी बार कहते रहे हैं कि लोगों को अब इस तरह की बातों से थकान सी होने लगी है और इस तरह की बातों पर संदेह भी होने लगा है। वैसे भी, किसको पता है ? हो सकता है कि वह दिन-रात काम कर रहे हों, और यह भी हो सकता है कि उन्हें अपने सामने दिख रहे समर्थन से ऊर्जा भी मिल रही हो ?
महामारी ? क्या है ये महामारी ?
लेकिन, मोदी के देश के हाल के सम्बोधन के सिलसिले में नज़र आयी इस चिट्ठी की ख़ास बात यह है कि इसमें पीड़ितों के लिए आंसू बहाने और उनके हालात को ठीक नहीं करने की बेबसी दिखाने के अलावा कुछ भी नहीं है।
प्रधानमंत्री ने कोविड-19 महामारी का ज़िक़्र ठीक तीन बार किया है- पहली बार यह कहने के लिए महामारी का ज़िक़्र किया है कि इस महामारी ने उन्हें लोगों के बीच होने के बजाय पत्र लिखने पर मजबूर कर दिया है; दूसरी बार तब किया है,जब अफ़सोस जताते हुए कहते हैं कि देश अपनी आकांक्षाओं को पूरा करने के लिए आगे बढ़ रहा था (इसका मतलब जो भी हो), लेकिन "कोरोना महामारी ने भारत को भी चारों तरफ़ से घेर लिया है"; और तीसरी बार तब होती है, जब वे इस महामारी को लेकर उपदेश देते हुए या प्रेरित करते हुए कहते हैं कि "वैश्विक महामारी ने संकट की स्थिति पैदा कर दी है, लेकिन साथ ही हम भारतीयों के लिए, यह दृढ़ संकल्प का समय भी है"।
क्या आपको इससे कहीं भी हमदर्दी या समर्थन के संकेत मिलते हैं ? क्या आपको इससे किसी भी तरह के किये जा रहे प्रयासों के बारे में कुछ पता चलता है, या महामारी से लड़ने में मदद का वादा भी दिखायी कहीं पड़ता है ? क्या आपको इनमें किसी भी तरह के शिक्षाप्रद या सूचनात्मक तत्व दिखायी देते हैं ? बिलकुल भी नहीं। इसमें सबसे चलताऊ शैली में किये गये प्रसासों के बारे में बताया गया है।
बुनियादी तौर पर मोदी इस महामारी से आगे बढ़ चुके हैं। यह साफ़ है, क्योंकि पहले तो उन्होंने लोगों पर बोझ डाल दिया (उनके पहले के तीन टेलीविज़न पर दिये गये भाषण पर नज़र डालें), फिर उन्होंने राज्य सरकारों पर ज़िम्मेदारी डाल दी, और इसके बाद आधिकारिक प्रवक्ताओं ने वायरस के साथ रहने की आदत डालने की बात करनी शुरू कर दी। अब इस पत्र के ज़रिये इस महामारी को पहले की ही तरह की एक ऐतिहासिक घटना बताया जा रहा है, जिससे गुज़रना ही गुज़रना है।
दूसरी सबसे अधिक आबादी वाले देश के नेता के तौर पर मोदी को चिंतित होना चाहिए था, बल्कि गहरे तौर पर परेशान होना चाहिए था। शनिवार की सुबह तक कुल 4,971 मौतों के साथ इस महामारी के मामलों की संख्या तेज़ी से बढ़ती जा रही थी और ये मामले बढ़कर 1.73 लाख हो गये थे। मुंबई, और शायद दिल्ली जैसे कई प्रमुख शहर इस लिहाज से तेज़ी के साथ अपनी चरम की ओर बढ़ रहे हैं। लॉकडाउन की स्थिति में घर वापस जाने के लिए लाखों प्रवासियों को अकथनीय यातना का सामना करना पड़ा है। लॉकडाउन के कारण बस दुर्घटना से लेकर ट्रेन से नीचे उतरते हुए कट जाने, और कुछ हिस्सों में भारी भुखमरी से 700 से अधिक लोगों की मौत हो चुकी है।
आर्थिक संकट ? कत्तई नहीं !
इस वायरस के फ़ैलने से पहले की तिमाही में सकल घरेलू उत्पाद या जीडीपी की वृद्धि दर घटकर मात्र 3.1% रह गयी थी, और 2019-20 के लिए अनुमानित जीडीपी वृद्धि 2008 के वित्तीय संकट के बाद सबसे कम है। बेरोज़गारी की दर 24% है और इस बात का अनुमान है कि 12 करोड़ लोग अपनी नौकरी गंवा चुके हैं।
प्रधानमंत्री और उनके सलाहकारों ने देश को एक ऐसे रास्ते पर चलने के लिए मजबूर कर दिया है, जिसका अंत किसी त्रासदी के साथ होगा और यह रास्ता है- देश को इस गहरी मंदी से बाहर निकालने के लिए निजी क्षेत्र और बाज़ार की शक्तियों का उपयोग करने की कोशिश करना। कॉरपोरेट्स को सस्ता कर्ज दिया जा रहा है; टैक्स में छूट दी जा रही है; सार्वजनिक संसाधनों को उनके हवाले किया जा रहा है; कृषि उपज व्यापार का विनियमिन किया जा रहा है-और यह सब अर्थव्यवस्था को बढ़ावा देने की मासूम उम्मीदों के साथ किया जा रहा है। यह सभी उपाय ग़ैर-मामूली तरीक़े से नाकाम रहे हैं, फिर भी वे इसे आज़माने में लगे हुए हैं।
लेकिन, मोदी उस विनाशकारी तबाही से बेफ़िक़्र दिखते हैं, जो बड़े पैमाने पर उनकी खुद की ही पैदा की हुई है। वह भारत के बारे में उस पिट चुके मुहावरे को बार-बार इस्तेमाल करने में लगे रहते हैं कि भारत, इसके दृढ़ संकल्प और संकट पर जीत के दृढ़ निश्चय, और उनके ख़ुद के नेतृत्व पर दुनिया की नज़र है, और वह महसूस नहीं कर पा रहे हैं कि वह ख़ुद लोगों से कितना दूर जा चुके हैं। वह अब विचारधारा और शक्ति के अपने स्वयं के भंवरजाल में उलझकर अलग-थलग पड़ चुके हैं। बहुत अचरज की बात नहीं कि नोटबंदी से लेकर जीएसटी और अचानक लॉकडाउन करने तक के उनके हर बड़े फ़ैसले से फ़ैली गड़बड़ी यह दिखाती है आप वास्तविकता से बेख़बर हैं।
इस बात पर भी ग़ौर किया जाना चाहिए कि अपनी चिट्ठी, या अपने भाषणों में मोदी ने कभी भी बेरोज़गारी का उल्लेख तक नहीं किया है, उन्होंने इस बात भी कभी उल्लेख नहीं किया है कि अमीरों के पक्ष में कॉरपोरेट करों में कटौती कर दी गयी है, या भारत की प्राकृतिक संसाधनों को लूटने के लिए लुटेरी विदेशी कंपनियों को दावत दी गयी है, या उन्होंने उन क़ानूनों को ख़त्म करने को लेकर भी कुछ नहीं कहा है, जो कामगारों को शोषण से बचाते रहे हैं, या फिर इस बात पर भी उन्होंने अपना मुंह नहीं खोला है कि वे देश के क़ीमती औद्योगिक संसाधनों-सार्वजनिक क्षेत्रों को निजी हाथों में बेच रहे हैं। ये ऐसे मुद्दे हैं, जो लोगों को ख़ुश नहीं करते हैं। लिहाजा, वह इन मुद्दों को पूरी तरह छोड़ देते हैं। अन्य चीज़ों को वह बहुत सफ़ाई और चतुराई के साथ सामने रखते हैं; जैसे- जम्मू-कश्मीर से स्वायत्तता छीन लेना और उसे एक जेल में तब्दील कर देना ही "राष्ट्रीय एकता" है, मुसलमानों के विरुद्ध नागरिकता को लेकर बरते जाने वाला भेदभाव दूसरे धर्मावलम्बियों के प्रति "करुणा" है, और इसी तरह के उठाये गये क़दमों की अजीब-ओ-ग़रीब व्याख्या।
लेकिन, मोदी को इस बात का शायद बहुत कम एहसास है कि इस महामारी का मुक़ाबला करने की शर्मनाक रणनीति के लिए उन्हें आंका जायेगा और उनकी ओर से उठाये गये उन क़दमों को लेकर भी उन्हें आंका जायेगा कि उन्होंने अर्थव्यवस्था को किस क़दर गड़बड़ियों के हवाले कर दिया है। हालांकि, ‘महान’ राजनेता, मोदी अब लोगों से बहुत दूर हो चुके हैं।
अंग्रेज़ी में लिखा लेख पढ़ने के लिए नीचे दिए गए लिंक पर क्लिक करें।
PM Modi’s Letter Shows How Far He Has Drifted Away From People
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