नेट-बंदी : जन एका से सरकार को डर !
जिस समय जामिया मिल्लिया के छात्रों पर पुलिस के बर्बर हमले चल रहे थे, उनके चित्र व अपडेट्स सोशियल मीडिया पर साझा किये जा रहे थे। रात 12 बजे बंगलुरु में आई टी इंडस्ट्री में काम करने वाले इन्हें देख दोस्तों को भेज रहे थे। लड़कियों पर हमलों को देखकर उनमें से कई तो रात भर सोए नहीं, कई लड़कियां रो रही थीं। इसके बाद पूरे देश में और बाहर भी इसके विरोध में प्रदर्शनों का सिलसिला शुरू हो गया। अगले दिन से सरकार ने डरकर विभिन्न राज्यों में इंटरनेट पर प्रतिबन्ध लगाना शुरू किया। आज विश्व का सबसे बड़ा लोकतंत्र नागरिकों के सूचना व और अभिव्यक्ति के अधिकार को कुचलने में अव्वल है, जबकि इंटरनेट आज लोगों के रोज़मर्रा जीवन का महत्वपूर्ण हिस्सा बन चुका है और आजीविका सहित अनेक पहलुओं को नियंत्रित करता है।
एक तरफ जेएनयू व्हाट्सऐप पर परीक्षा लेने की घोषणा कर रहा था, तो दूसरी ओर उत्तर प्रदेश के लाखों छात्र परीक्षा के अंतिम रिविज़न के लिए मारे-मारे फिर रहे थे कि रेलवे स्टेशन पर या कुछ अवैध ढंग से काम करने वाले इंटरनेट प्रोवाइडरों के यहां मुंह-मांगा पैसा देकर काम चलाएं। सरकार की गैर-ज़िम्मेदारी का तो ये आलम था कि न नेट-बंदी की नोटिस दी गई न ही चालू करने की। बीएसएनएल के अधिकारियों ने बताया कि ऊपर से आदेश है, पर मालूम नहीं कब चालू होगा।
क्या लोगों के सूचना के अधिकार को इस तरह प्रतिबंधित करना तर्कसंगत माना जा सकता है? क्या परिस्थितियां इतनी बिगड़ चुकी थीं कि सभी लोगों के लिए इंटरनेट सुविधा हटा लेना सही था? उत्तर प्रदेश में 100 से अधिक जगहों में शान्तिपूर्ण प्रदर्शन हुए थे। पर उत्तर प्रदेश में राजधानी सहित करीब 14 ऐसे जिले हैं, जहां पुलिस ने जानबूझकर शान्तिपूर्ण प्रदर्शनों पर हमला किया क्योंकि योगी सरकार ने एक सिरे से पूरे राज्य में आईपीसी की धारा 144 को लागू कर दिया था। और, हमले काफी सुनियोजित थे, भीड़ को तितर-बितर करने के लिए नहीं बल्कि चुन-चुनकर मुस्लिम नौजवानों व हिंदू संगठकों को बर्बर तरीके से दूर तक घेरकर या दौड़ा-दौड़ाकर मारने, गोलियां चलाकर घायल करने और उनके घरों में बलात घुसकर उनकी सम्पत्ति नष्ट करने के लिए किये गये थे।
सूचनाएं मिलती रहीं कि आदेश ऊपर से आए थे और यह स्पष्ट लगा कि योगी सरकार का कुछ निजी स्वार्थ ज़रूर जुड़ा हुआ है कि वह केंद्रीय सत्ता के प्रति और आरएसएस के प्रति अति वफादारी का प्रदर्शन कर रही थी। शायद इसके पीछे प्रमुख वजह यह थी कि योगी के विरुद्ध व्यक्तिगत तौर पर 100 पार्टी विधायक बगावत कर रहे थे और हाईकमान से मुख्यमंत्री को हटाने की मांग कर रहे थे। इसलिए योगी की पुलिस ने लाठियां, आंसू गैस, बुलेट का अंधाधुंध इस्तेमाल किया। 18 लोगों की जानें गईं, यहां तक कि बनारस में एक 11-वर्षीय बच्चे की दर्दनाक मौत हुई और बिजनौर व मुज़फ़्फ़रनगर में भी युवाओं की हत्याएं और तोड़-फोड़ हुई। पर आश्चर्य की बात यह है कि हिंदुओं ने मुस्लिम बंधुओं की भरसक मदद की और दोनों समुदायों में किसी प्रकार के साम्प्रदायिक झगड़े नहीं हुए। क्या इंटरनेट बंदी इसलिए थी कि इस दमनचक्र की खबर सोशल मीडिया के ज़रिये बाहर तक न जाए?
इलाहाबाद शहर में इंटरनेट बंदी के दौरान मैंने जब कुछ लोगों से बात की तो अधिकतर लोगों को लग रहा था कि पहले बवाल फैलाया गया, उसके बाद इस बहाने इंटरनेट बंद किया गया। कहा गया कि शांतिभंग का अंदेशा है, पर सभी ने देखा था कि मुसलमान जामिया और एएमयू के बाद तो बहुत डरे-सहमे हुए थे। एक नौजवान दुकानदार कोसने लगा -‘‘मेरे बिज़नेस का काफी नुकसान हो रहा है और कुछ बताया नहीं जा रहा कि कब नेट चालू होगा। वोट बैंक की राजनीति है ये सब’’, जबकि एक मोबाइल की दुकान वाला कहने लगा कि सरकार कह रही है बवाल खत्म होने पर ही इंटरनेट चालू होगा, पता नहीं कब? काम तो ठप्प है’’ अगले दिन बैंक में इंटरनेट न चलने की वजह से न जाने कितने ग्राहकों को कहा जा रहा था कि वे बाद में आएं। क्यों डर पैदा कर रही थी योगी सरकार? 19 तारीख से ही भगवाधारी प्रचार कर रहे थे कि जुमे की नमाज़ के बाद उपद्रव होगा। पर रंग-बिरंगे पोशाक पहने मुस्लिम युवक शान्तिपूर्ण ढंग से नमाज़ पढ़कर वापस जाते नज़र आए।
इससे पहले दिल्ली के जामिया इलाके में जब मुस्लिम लोग नमाज़ पढ़ रहे थे, सिखों और हिंदुओं ने मानव श्रृंखला बनाकर उन्हें सुरक्षा प्रदान की। यह एक नायाब दृष्य था। 21 दिसम्बर को कानपुर के बकरगंज के एक मुस्लिम परिवार में शादी तय हुई थी। पर सीएए विरोधी आंदोलन को दबाने के लिए कानपुर में धारा 144 लागू कर दी गई थी।
19 तारीख को अखिल-भारतीय विरोध दिवस के दौरान कानपुर में दो युवक मारे जा चुके थे, तो प्रतापगढ़ से बारात लेकर आने में दूल्हे का परिवार डर रहा था। पर एक अभूतपूर्व घटना घटित हुई। पड़ोस के हिंदुओं ने कानपुर की सरहद से बारात को सुरक्षित दुल्हन के घर तक पहुंचाया। कई छात्रों ने भी मुस्लिम दोस्तों को शरण दी। फ्रांस में अस्सी के दशक में ऐसा ही नज़ारा देखा गया था, जब नारा बन गया था ‘‘मेरे दोस्त को हाथ मत लगाना’’। यह नारा सोशलिस्टों और अन्य वामपंथियों द्वारा नस्लवाद के खिलाफ और उग्र दक्षिणपंथी राष्ट्रवादियों के हमलों के विरुद्ध दिया गया था। हज़ारों प्रगतिशील फ्रांसीसी युवकों ने अल्पसंख्यक अल्जीरियन इलाकों की घेरेबंदी करके उन्हें सुरक्षित रखा। ऐसे ही सौहार्द के संदेश और दृष्य भारत में सोशल मीडिया के माध्यम से जब फैलने लगे, जब पुलिस द्वारा निहत्थों को मारते, बूढों को, महिलाओं और बच्चों को प्रताड़ित करते वीडियो साझा किये जाने लगे, अफवाह फैलाकर दंगा कराने का मौका हिन्दुत्ववादियों के हाथ से निकल गया।
19 तारीख को दिल्ली के जन्तर मंतर में भी जो अभूतपूर्व हिंदू-मुस्लिम एका दिखाई दी और हिंदू लड़कियों द्वारा सरकार की तानाशाही व सीएए का मुखर विरोध के वीडियो वायरल होने लगे, सरकार को जनता के एकताबद्ध प्रतिरोध का भय इतना सताने लगा कि इंटरनेट पर तीन दिन से अधिक ब्लैंकेट बैन लगा दिया गया-असम, पश्चिम बंगाल, कर्नाटक, उत्तर प्रदेश और दिल्ली में। आखिर क्यों? आज डिजिटल तकनीक इतनी विकसित हो चुकी है यदि सोशल मीडिया को कोई व्यक्ति या ग्रुप साम्प्रदायिक ज़हर फैलाने के लिए इस्तेमाल करना चाहे तो उसे अलग से ब्लाॅक किया जा सकता है, खास अकाउन्ट या स्रोतों को मजिस्ट्रेट के आदेश के बाद कानूनन प्रतिबंधित किया जा सकता है। तब यह एकदम तर्कसंगत नहीं लगता कि इस तरह का ब्लैंकेट बैन लगा दिया जाए। बल्कि यह कुछ नेताओं की तानाशाही और मनमानेपन का ही परिचय देता है।
आईसीआरआईईआर (इंडियन काउंसिल फाॅर रिसर्च ऑन इंटरनेशनल इकनाॅमिक रिलेशन्स), जो एक स्वतंत्र थिंक टैंक है, ने इंटरनेट बंदी के आर्थिक प्रभाव के बारे में अपनी रिपोर्ट में बताया कि भारत में 2017 में 54 बंदियां हुईं; यह संख्या 2016 में दूना हो गई, फिर 2018 में बढ़कर 134 तक पहुंच गई। इस संस्था ने पता लगया कि 2012 और 2017 के बीच 12615 घंटों में अर्थव्यवस्था को करीब 2.37 अरब डाॅलर का घाटा लगा। इससे समझा जा सकता है कि अगले 2 सालों में यह घाटा 10 अरब डाॅलर तक पहुंचा होगा। क्या मोदी समझ पा रहे हैं कि आर्थिक मंदी के दौर में इंटरनेट बंदी के क्या मायने हैं?
भारत के सर्वोच्च न्यायालय ने श्रेया सिंघल बनाम भारत सरकार (2015) केस में आदेश दिया कि इंडियन टेलिग्राफ ऐक्ट की खण्ड 66 ए गैर-संवैधानिक है क्योंकि उसकी भाषा संविधान की धारा 19(2) में उल्लिखित ‘उचित प्रतिबंध’ के साथ मेल नहीं खाती। पाया गया कि खण्ड 66ए बहुत अधिक व्यापक होने के कारण अस्पष्टता के दोष से ग्रसित है। आदेश में कहा गया कि ‘अनुमानित खतरा दूरवर्ती, अटकल पर आधारित और अवास्तविक नहीं होना चाहिये।’ इस आदेश को ऐक्टिविस्टों द्वारा इंटरनेट-बंदी के संदर्भ में भी इस्तेमाल किया जा सकता है।
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