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मोदी काल: विकास का झंडा, नफ़रत का एजेंडा!

मोदी सरकार अर्थव्यवस्था और राष्ट्रीय सुरक्षा के मोर्चे पर तो बुरी तरह नाकाम साबित हो ही रही है, देश के अंदरुनी यानी सामाजिक हालात भी बेहद असामान्य बने हुए हैं।
मोदी

अपने जीवन के आठवें दशक के दूसरे वर्ष यानी 72वें वर्ष में प्रवेश कर रहे नरेंद्र मोदी का प्रधानमंत्री के रूप में यह आठवां साल है। प्रधानमंत्री बनने से पहले वे करीब साढे बारह वर्ष तक गुजरात के मुख्यमंत्री रहे थे। गुजरात का मुख्यमंत्री रहते हुए उन्होंने देश-दुनिया में अपनी छवि ‘विकास पुरुष’ की बनाई थी और इसी छवि के सहारे वे प्रधानमंत्री पद की दौड़ में शामिल हुए थे। प्रधानमंत्री बनने के पहले उन्होंने देश की जनता से साठ महीने मांगते हुए कई वादे किए थे और तरह-तरह के सपने दिखाए थे, जिनका लब्बोलुआब यह था कि वे पांच साल में भारत को विकसित देशों की कतार में ला खड़ा कर देंगे।

देश की जनता ने उनके वादों पर एतबार करते हुए उन्हें न सिर्फ पांच साल का एक कार्यकाल सौंपा बल्कि उस कार्यकाल में तमाम मोर्चों पर नाकामी के बावजूद पूर्ण बहुमत के साथ पांच साल का दूसरा कार्यकाल भी दे दिया। यही नहीं, इस दौरान कई राज्यों में भी भाजपा की सरकारें बन गईं- कहीं स्पष्ट जनादेश से तो कहीं विपक्षी विधायकों की खरीद-फरोख्त के जरिए जनादेश का अपहरण करके।

मोदी के दूसरे कार्यकाल का भी दो वर्ष से ज्यादा का समय बीत गया है। अभी तक सात वर्ष से ज्यादा के कुल कार्यकाल में उनका और उनकी सरकार का एक ही मूल मंत्र रहा है- विकास का झंडा और नफरत का एजेंडा। इसी मंत्र के साथ काम करते हुए मोदी सरकार अर्थव्यवस्था और राष्ट्रीय सुरक्षा के मोर्चे पर तो बुरी तरह नाकाम साबित हो ही रही है, देश के अंदरुनी यानी सामाजिक हालात भी बेहद असामान्य बने हुए हैं। पिछले सात वर्षों के दौरान देश के भीतर बना जातीय और सांप्रदायिक तनाव-टकराव का समूचा परिदृश्य गृहयुद्ध जैसे हालात का आभास दे रहा है, जिसके लिए पूरी तरह उनकी सरकार और पार्टी की विभाजनकारी राजनीति जिम्मेदार है।

सात साल पहले नरेंद्र मोदी ने प्रधानमंत्री बनने के ढाई महीने बाद जब 15 अगस्त 2014 को स्वाधीनता दिवस पर लाल किले से पहली बार देश को संबोधित किया था तो उनके भाषण को समूचे देश ने ही नहीं बल्कि दुनिया के दूसरे तमाम देशों ने भी बड़े गौर से सुना था। विकास और हिंदुत्ववादी राष्ट्रवाद की मिश्रित लहर पर सवार होकर सत्ता में आए नरेंद्र मोदी ने अपने उस भाषण में देश की आर्थिक और सामाजिक तस्वीर बदलने का इरादा जताते हुए देशवासियों और खासकर अपनी पार्टी तथा उसके सहमना संगठनों के कार्यकर्ताओं से अपील की थी कि अगले दस साल तक देश में सांप्रदायिक या जातीय तनाव के हालात पैदा न होने दें।

प्रधानमंत्री ने कहा था- ''जातिवाद, संप्रदायवाद, क्षेत्रवाद, सामाजिक या आर्थिक आधार पर लोगों में विभेद, यह सब ऐसे जहर हैं, जो हमारे आगे बढ़ने में बाधा डालते हैं। आइए, हम सब अपने मन में एक संकल्प ले कि अगले दस साल तक हम इस तरह की किसी गतिविधि में शामिल नहीं होंगे। हम आपस में लड़ने के बजाय गरीबी से, बेरोजगारी से, अशिक्षा से तथा तमाम सामाजिक बुराइयों से लडेंगे और एक ऐसा समाज बनाएंगे जो हर तरह के तनाव से मुक्त होगा। मैं अपील करता हूँ कि यह प्रयोग एक बार अवश्य किया जाए।’’

इतना ही नहीं, मोदी ने अपने उस भाषण में पड़ोसी देश पाकिस्तान की ओर भी दोस्ती का हाथ बढ़ाने का संकेत दिया था। उन्होंने गरीबी, बेरोजगारी, अशिक्षा, आतंकवाद आदि को भारत और पाकिस्तान की समान समस्याएं बताते हुए आह्वान किया था कि दोनों देश आपस में लड़ने के बजाय कंधे से कंधा मिला कर इन समस्याओं से लडेंगे तो दोनों देशों की तस्वीर बदल जाएगी।

मोदी का यह भाषण उनकी स्थापित और बहुप्रचारित छवि के बिल्कुल विपरीत, सकारात्मकता और सदिच्छा से भरपूर था। देश-दुनिया में इस भाषण को व्यापक सराहना मिली थी, जो स्वाभाविक ही थी। राजनीतिक और कारोबारी जगत में भी यही माना गया था कि जब तक देश में सामाजिक-सांप्रदायिक तनाव या संघर्ष के हालात रहेंगे, तब तक कोई विदेशी निवेशक भारत में पूंजी निवेश नहीं करेगा और विकास संबंधी दूसरी गतिविधियां भी सुचारु रूप से नहीं चल सकती हैं, इस बात को जानते-समझते हुए ही मोदी ने यह आह्वान किया है।

प्रधानमंत्री के इस भाषण के बाद उम्मीद लगाई जा रही थी कि उनकी पार्टी तथा उसके उग्रपंथी सहमना संगठनों के लोग अपने और देश के सर्वोच्च नेता की ओर से हुए आह्वान का सम्मान करते हुए अपनी वाणी और व्यवहार में संयम बरतेंगे। लेकिन रत्तीभर भी ऐसा कुछ नहीं हुआ। प्रधानमंत्री की नसीहत को उनकी पार्टी के निचले स्तर के कार्यकर्ता तो दूर, केंद्र और राज्य सरकारों के मंत्रियों, सांसदों, विधायकों और पार्टी के प्रवक्ताओं-जिम्मेदार पदाधिकारियों ने भी तवज्जो नहीं दी। इन सबके मुंह से सामाजिक और सांप्रदायिक विभाजन पैदा करने वाले नए-नए बयानों के आने का सिलसिला न सिर्फ जारी रहा बल्कि वह नए-नए रूपों में और तेज हो गया।

इसे संयोग कहे या सुनियोजित साजिश कि प्रधानमंत्री के इसी भाषण के बाद देश में चारों तरफ से सांप्रदायिक और जातीय हिंसा की खबरें आने लगी। कहीं गोरक्षा तो, कहीं धर्मांतरण के नाम पर, कहीं मंदिर-मस्जिद तो कहीं आरक्षण के नाम पर, कहीं गांव के कुएं से पानी भरने के सवाल पर तो कहीं दलित दूल्हे के घोड़ी पर बैठने को लेकर, कहीं वंदे मातरम्, भारतमाता की जय और जय श्रीराम के नारें लगवाने को लेकर। इसी सिलसिले में कई जगह महात्मा गांधी और बाबा साहेब आंबेडकर की मूर्तियां को भी विकृत और अपमानित करने तथा कुछ जगहों पर नाथूराम गोडसे का मंदिर बनाने जैसी घटनाएं भी हुईं। हैरानी और अफसोस की बात तो यह है कि इन सारी घटनाओं का सिलसिला कोरोना जैसी भीषण महामारी के दौर में भी नहीं थमा और आज भी जारी है।

मोदी सरकार की आर्थिक नीतियों और कार्यक्रमों से देश की अर्थव्यवस्था का जो हाल हुआ है, उसकी तस्वीर बेहद डरावनी है। नोटबंदी और जीएसटी ये मोदी सरकार के दो ऐसे विनाशकारी फैसले रहे हैं, जिनकी वजह से देश की अर्थव्यवस्था पूरी तरह चौपट हो चुकी है और जिनकी मार से किसान, मजदूर, कर्मचारी, छोटे और मझौले कारोबारी समेत समाज का तबका आज भी बुरी तरह कराह रहा है।

देश के किसान पिछले 10 महीने से सरकार के बनाए कृषि कानूनों को अपनी मौत का परवाना मान कर आंदोलन कर रहे हैं। इन कानूनों को लेकर सरकार की बदनीयती इसी बात से झलकती है कि उसने यह कानून पिछले साल कोरोना महामारी के चलते देश में जारी लॉकडाउन के दौरान पहले अध्यादेश के जरिए लागू किए और बाद में सारी संसदीय प्रक्रिया और स्थापित परंपराओं का पालन किए बगैर इन्हें संसद में जोर-जबदस्ती से पारित करा लिया। व्यापक विरोध के बावजूद सरकार इन कानूनों को वापस लेने से इनकार करते किसानों के आंदोलन को देशविरोधी ताकतों का आंदोलन करार दे चुकी है।

मोदी ने वादा किया था कि उनकी सरकार हर साल दो करोड़ लोगों को रोजगार उपलब्ध कराएगी। लेकिन उनकी सरकार रोजगार के नए अवसर पैदा करना तो दूर, जो अवसर पहले से बने हुए थे, उन्हें भी कायम नहीं रख सकी है। इस समय देश में बेरोजगारी की स्थिति अभूतपूर्व रूप से चरम पर है। भारतीय अर्थव्यवस्था पर नजर रखने वाली संस्था सेंटर फॉर मॉनिटरिंग इंडियन इकॉनामी सीएमआईई के एक ताजा अध्ययन के मुताबिक पिछले अप्रैल महीने में ही 75 लाख लोग अपनी नौकरी से हाथ धो बैठे हैं। पिछले चार महीनों में बेरोजगारी की दर सबसे ऊंची पाई गई है। लेकिन सरकार यह मानने को ही तैयार नहीं है कि देश में बेरोजगारी बढ़ रही है।

सरकार की नीतियों से बाजार पर उसका नियंत्रण पूरी तरह खत्म हो गया है, जिसकी वजह से महंगाई इस कदर बढ़ रही है कि उसे महंगाई के बजाय ऐसी लूट कहना ज्यादा उचित होगा, जो सरकार के संरक्षण में हो रही है। सरकार खुद भी पेट्रोल, डीजल और खाना पकाने की गैस के दामों में आए दिन बढोतरी कर और अपनी इस करनी को देश के विकास के लिए जरूरी बताते हुए आम आदमी के जले पर नमक छिड़क रही है।

अर्थव्यवस्था के मोर्चे पर यह हालात कोई पिछले एक-डेढ़ साल में कोरोना महामारी के चलते नहीं बने हैं, बल्कि यह पिछले करीब पांच साल से लगातार बनते जा रहे हैं। इन्हीं हालात का नतीजा है कि दुनिया में सबसे बडे माने जाने वाले भारत के मध्य वर्ग का आकार पिछले पांच वर्षों से लगातार सिकुड़ता जा रहा है और गरीब आबादी में इजाफा हो रहा है। विश्व बैंक के आंकडों के आधार पर प्यू रिसर्च सेंटर ने अनुमान लगाया है कि सिर्फ कोरोना के बाद की मंदी के चलते ही भारत में प्रतिदिन दो डॉलर यानी करीब 150 रुपये या उससे कम कमाने वाले लोगों की तादाद महज पिछले एक साल में छह करोड़ से बढ़कर 13 करोड 40 हजार यानी दोगुने से भी ज्यादा हो गई है। यह स्थिति बताती है कि भारत 45 साल बाद एक बार फिर सामूहिक तौर पर गरीब देश बनने की ओर बढ़ रहा है।

कुछ साल पहले तक भारत एक ऐसे देश के तौर पर उभर रहा था, जहां गरीबी कम करने की दर सबसे ज्यादा थी। 2019 के गरीबी के वैश्विक बहुआयामी संकेतकों के मुताबिक देश में 2006 से 2016 के बीच करीब 27 करोड लोगों को गरीबी रेखा से ऊपर उठाया गया था। इसके उलट 2020 में दुनिया में गरीबों की सबसे ज्यादा तादाद बढ़ाने वाले देश के तौर पर भारत का नाम दर्ज हो रहा है। हमारे देश में गरीबी की रेखा के नीचे वे लोग माने जाते हैं, जिनकी आमदनी 150 रुपए रोज़ से कम है। ऐसे लोगों की संख्या सरकार के मुताबिक 80 करोड़ है लेकिन इन 80 करोड़ लोगों को 150 रुपये पूरे साल भर रोजाना मिलता होगा, इसकी कोई गारंटी नहीं है।

तमाम विशेषज्ञ और अंतरराष्ट्रीय एजेंसियां आने वाले दिनों में देश के आर्थिक हालात और ज्यादा भयावह होने की चेतावनी दे रही हैं, लेकिन हैरानी की बात है कि सरकार और सत्तारूढ़ पार्टी इन चेतावनियों के बावजूद अपना विभाजनकारी राजनीतिक एजेंडा, विध्वंसकारी आर्थिक नीतियां छोड़ने को कतई तैयार नहीं है। अफसोस की बात यह है कि कॉरपोरेट नियंत्रित मुख्यधारा का मीडिया भी सरकार का पिछलग्गू बनकर देश के सामाजिक ताने-बाने को छिन्न-भिन्न करने और देश को आर्थिक रूप से तबाही की ओर धकेलने में सरकार और सत्तारूढ़ दल के सेवक की भूमिका निभा रहा है।

(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं। विचार व्यक्तिगत हैं।)

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