अगर निजी कम्पनी सार्वजनिक क्षेत्र को पुनर्जीवित करने में सक्षम है तो सरकार क्यों नहीं?
राज्यों को उनके वाजिब हिस्से के संसाधनों से धोखा देने के अलावा एक दूसरा रास्ता भी है जिसे केंद्र सरकार राजकोषीय संकुचन से निपटने की कोशिश में लगी है। नव-उदारवादी शासन के अंतर्गत सार्वजनिक क्षेत्र के उद्यमों के निजीकरण की पूरी एक श्रंखला के निजीकरण का विषय विचाराधीन है।
कोई एक दिन ऐसा नहीं गुज़र रहा है जिसमें सरकार निजीकरण की किसी प्रकार की घोषणा न कर रही हो। नागरिक उड्डयन मंत्री हरदीप पुरी दावा करते हैं कि यदि सार्वजानिक क्षेत्र की एयर इण्डिया का निजीकरण ना किया गया तो इसे बंद करना पड़ेगा। एक वरिष्ठ सरकारी अधिकारी की ओर से इस प्रकार के हैरतअंगेज़ बयान के पीछे दो वजहें हो सकती हैं: पहली, यदि निजी ख़रीदार, कंपनी को (नहीं तो भला कोई क्यों ख़रीदना चाहेगा) पुनर्जीवित करने में सक्षम है तो यही काम सरकार क्यों नहीं कर सकती है?
दूसरा, चलिये अगर एक बार के लिए इस बात को मान भी लें कि जो पुरी ने कहा वह सही है तो उनका यह कहना ही बेहद विचित्र है, क्योंकि यह किसी संभावित ख़रीदार के लिए एक तरह का इशारा करना है कि वह इसके लिए अपनी बोली में क़ीमत को गिराकर रखे।
पश्चिम बंगाल के आसनसोल-दुर्गापुर बेल्ट में भारी संख्या में सार्वजनिक क्षेत्र के उद्यमों के निजीकरण की योजना, श्रमिक संघों की माँगों की कीमत पर बनाई जा रही है। सार्वजनिक क्षेत्र के दूरसंचार प्रमुख बीएसएनएल के कर्मचारियों को स्वैच्छिक सेवानिवृत्ति स्वीकार करने के लिए कमोबेश मजबूर किया जा रहा है, जिससे कि कंपनी कहीं से भी काम के लायक न रह पाये और उसे बेचा जा सके। आने वाले समय में, ऐसे ढेर सारे उदाहरणों को अंजाम दिया जा सकता है।
वास्तव में, अपनी सार्वजनिक क्षेत्र के महत्व के बारे में समझ के पूर्ण अभाव और कॉर्पोरेट-वित्तीय कुलीनतंत्र से अपनी नज़दीकी के चलते भारतीय जनता पार्टी (बीजेपी) सरकार वैसे भी सार्वजनिक क्षेत्र नष्ट करने के लिए उन्मुख है। लेकिन अब ऐसा करने के लिए एक अतिरिक्त आग्रह महसूस होता है जिससे कि आर्थिक मंदी के चलते होने वाले वित्तीय निचुड़न से निपटने में मदद मिल सके।
निजीकरण को गति देने के लिए, अंतर्राष्ट्रीय वित्तीय पूंजी (और इसके अग्रणी संस्थानों जैसे कि अंतर्राष्ट्रीय मुद्रा कोष और विश्व बैंक) ने सार्वजनिक क्षेत्र की संपत्तियों की बिक्री को राजकोषीय घाटे से अलग रखा है। इसलिये सरकार जहाँ एक ओर सार्वजनिक क्षेत्र की संपत्तियों को बेचकर अपने “राजकोषीय ज़िम्मेदारी” के लक्ष्य पूरा करने का दावा कर सकती है, वहीं अपने आँकड़ों में राजकोषीय घाटे को कम करके दर्शा सकती है। यह पूरी तरह से अवैधानिक तरीक़ा है, लेकिन इसके अपने विचारधारात्मक कारण हैं, जो निजीकरण को प्रभावी बनाते हैं।
इसके अवैधानिक होने की वजह बेहद सामान्य है। निश्चित रूप से राजकोषीय घाटे का अर्थव्यवस्था पर कोई बुरा प्रभाव नहीं पड़ता है, जैसा कि वित्त पूंजी के दावेदार ऐसा दावा करते रहते हैं। किसी माँग में कमी वाली अर्थव्यवस्था में, जैसे कि, एक ऐसी अर्थव्यवस्था जिसमें बेरोज़गारी और ग़ैर-इस्तेमाल संसाधन मौजूद हों: तो यह न तो किसी निजी निवेश के “बाहर निकलने” का सही समय है (चूँकि यहाँ पर कोई “नियतकालिक” की बचत ही है जहाँ से निजी क्षेत्र को वित्तीय घाटे के कारण प्राप्त हो रहा हो। क्योंकि आय में वृद्धि के साथ ही बचत में खुद-ब-खुद बढ़ोत्तरी होने लगती है।
यह कुल माँग में बढ़ोत्तरी के कारण घटित होने लगती है जिसे राजकोषीय घाटे द्वारा उत्पन्न किया जाता है); और न ही इससे किसी प्रकार की मुद्रा स्फ़ीति ही जन्म लेती है, चूँकि अर्थव्यवस्था बेरोज़गार संसाधनों से निर्दिष्ट है, इसलिये कुल माँग में वृद्धि होने से कीमतों में वृद्धि के बजाय उत्पादन में वृद्धि होती है। लेकिन एक क्षण के लिए मान भी लें कि राजकोषीय घाटे के चलते ही ये सभी दुष्परिणाम हैं, तो भी निजीकरण से प्राप्त लाभों से उसके बुरे प्रभावों को समाप्त नहीं किया जा सकता।
उदाहरण के लिए यदि सचमुच में “निश्चित पूल” की बचत हो, जिसमें से यदि सरकार ने राजकोषीय घाटे के वित्तपोषण के लिए और अधिक ऋण लिया है, तो निजी निवेशकों के हाथ में काफी कम बचेगा, जिससे कि “वह निकाल सके”, तो इस “निश्चित पूल” से सार्वजनिक क्षेत्र की सम्पत्तियों के निजीकरण में एक बूंद का इजाफा नहीं होने जा रहा।
इसी तरह मान लीजिये कि माँग की अधिकता को पैदा कर राजकोषीय घाटा वास्तव में मुद्रा स्फीति को जन्म देता है। तो सार्वजनिक क्षेत्र की परिसंपत्तियों के निजीकरण करने से इस अतिरिक्त माँग को छंटाक भर भी कम नहीं किया जा सकता है, क्योंकि इन परिसंपत्तियों के ख़रीदार सार्वजनिक क्षेत्र की सम्पत्ति को खरीदने के लिए उन माल और सेवाओं को की मांग से पीछे नहीं हटने वाले।
इस प्रकार सार्वजनिक क्षेत्र की संपत्ति की बिक्री से किसी वित्तीय घाटे की पूर्ति नहीं होती, लेकिन इसके बावजूद वित्तीय पूंजी जो किसी भी राजकोषीय घाटे का जी-जान लगाकर विरोध करती है, उसे सार्वजनिक क्षेत्र की परिसम्पत्तियों के बंद होने के रूप में बिक्री से कोई परेशानी नहीं, बल्कि वे चाहती ही यही हैं जैसे वे कराधान के खात्मे को होते देखना चाहती हैं।
इसी को अलग तरीके से रखें तो पाएंगे कि अर्थशास्त्र में “प्रवाह” और “स्टॉक्स” में भिन्नता होती है। सरकार की आय (जो “प्रवाह” है) और व्यय (दूसरा “प्रवाह”) के बीच का अन्तर ही राजकोषीय घाटा है, जो ख़ुद अपने आप में “प्रवाह” सामग्री है, जिसे किसी “प्रवाह” में संयोजन के ज़रिये बंद किया जा सकता है। वह या तो बड़े टैक्स राजस्व (जो कि एक “प्रवाह”) है या व्यय के “प्रवाह” में कमी लाकर किया जा सकता है।
दूसरी ओर, किसी सार्वजनिक क्षेत्र की परिसंपत्तियों की बिक्री “स्टॉक” हस्तांतरण की सूचक है, जिसमें किसी संपत्ति के हस्तांतरण के माध्यम से बैलेंस शीट में समायोजन किया जाता है। यह किसी “प्रवाह” को प्रभावित नहीं करता और इस प्रकार किसी राजकोषीय घाटे से होने वाले दुष्प्रभावों को कम कर सकता है।
तथ्य यह हैं कि आईएमएफ़ और इस प्रकार की अन्य वित्तीय पूंजी की संस्थाएं, सार्वजनिक क्षेत्र की परिसंपत्तियों की बिकवाली के जरिये बजटीय घाटे की क्षतिपूर्ति को वैधानिक रूप से स्वीकार करते हैं, जो सिर्फ उनकी ग़लत मंशा को ज़ाहिर करती हैं। सच्चाई यह है कि उनकी बौद्धिक स्थिति किसी वैज्ञानिक विचारों से निर्धारित नहीं है बल्कि निजीकरण के वैचारिक एजेंडे को आगे बढ़ाने की अवसरवादी चाहत का प्रतिफलन है।
बौद्धिक बेईमानी का अंत यहीं पर नहीं है। जब कोई निजी कंपनी सार्वजनिक क्षेत्र की संपत्तियों को ख़रीदती है तो यह अपने किसी ख़र्चों में कमी लाकर इसके लिए संसाधन नहीं जुटाती, जैसा कि कोई छोटा दुकानदार करता है। बल्कि उधार लेने के माध्यम से या कुछ अन्य पूर्ववर्ती परिसंपत्तियों की खरीद के माध्यम से, और ये सभी बैलेंस शीट में साम्यता बिठाकर ही किया जाता।
अब यदि सरकार का राजकोषीय घाटा 100 रुपये का है, तो वह वह इस घाटे के वित्तपोषण के लिए बैंक से ऋण लेकर पूरा करेगा। लेकिन इसे इतनी ही मात्रा के सार्वजनिक क्षेत्र की परिसंपत्तियों के निजीकरण के जरिये हासिल किया जाता है तो निजी खरीदार को इन संपत्तियों को खरीदने के लिए 100 रूपये बैंक से उधार लेना होगा।
यह कहना कि अर्थव्यवस्था के लिए राजकोषीय घाटा “ख़राब” है लेकिन सार्वजनिक क्षेत्र की संपत्तियों की बिक्री का कदम “ठीक” है, का मतलब यह कहना है कि जो खर्चे सरकार द्वारा बैंक से 100 रूपये के ऋण द्वारा वित्त पोषित किये जाते हैं वे “ख़राब” हैं, लेकिन वही खर्च किसी निजी संस्थान या व्यक्ति द्वारा बैंक के जरिये जुटाए जाते हैं तो “ठीक” है! यह पूरी तरह से किसी भी आर्थिक औचित्य से परे है।
इस मामले को एक और तरीक़े से देखा जा सकता है। राजकोषीय घाटा दर्शाता है कि सरकारी क़र्ज़ में बढ़ोत्तरी हुई है, जिसे सरकार द्वारा आईओयू के तहत वित्तपोषित किया जाता है। दूसरी तरफ़ सार्वजनिक क्षेत्र की परिसंपत्तियों के निजीकरण सरकारी इक्विटी को निजी संस्थाओं को बेचने पर ज़ोर देता है। यह कहना कि निजीकरण हानि-रहित है, लेकिन वित्तीय घाटा ठीक नहीं है। इसका मतलब यह कहना है कि सरकारी संपत्ति को बेचना हानि-रहित है जबकि सरकारी बांड्स (आईओयू) को बेचना ठीक नहीं है, एक बार फिर से अपने आप में बिना किसी औचित्य साबित किये, सिर्फ़ निजीकरण को प्रभावी बनाने वाली वैचारिक चाल है।
सार्वजनिक क्षेत्र की स्थापना के पीछे महानगरीय पूंजी के आधिपत्य के ख़िलाफ़ एक उभार के रूप में की गई थी। यह साम्राज्यवादी वर्चस्व से अर्थव्यवस्था को न डगमगाने देने वाले एजेंडा का हिस्सा था। नव-उदार वर्चस्व के तहत हक़ीक़त में सरकारें इन महानगरीय पूँजी को आकर्षित करने में लगी रहती हैं। फिर भी ऐसे दौर में सार्वजनिक क्षेत्र महानगरीय पूंजी और घरेलू कॉर्पोरेट-वित्तीय कुलीन वर्गों को उनके एकाधिकारी स्थिति से देश को लूटने में कुछ हद तक रोकने में अपना रोल निभा सकता है।
एक सरकार जो देश हित से ख़ुद को जुड़ा हुआ महसूस करती है, वह नव-उदारवादी जाल में फँसे होने पर भी वह विदेशी व घरेलू एकाधिकार पूंजी की लूट से राष्ट्रीय हितों की रक्षा के लिए सार्वजनिक क्षेत्र के पोषण के प्रयत्न में लगी रहेगी। लेकिन हमारे हिंदुत्व की ताकतें ऐसा कोई काम नहीं करेंगी, जो अपने सभी आलोचकों को “राष्ट्र-विरोधी” कह ख़ारिज करती है, लेकिन राष्ट्र के ठीक ख़िलाफ़ काम करने वाले इन एकाधिकारवादियों के हितों को बहुत सहेज कर रखती है। उन्हें सार्वजनिक क्षेत्र को बर्बाद करने में कोई पछतावा नहीं होता, जिसे कितनी मुश्किलों से साम्राज्यवाद के साथ भीषण विरोध का सामना करते हुए निर्मित किया गया था।
इससे यह स्पष्ट हो जाता है कि नव-उदारवादी राजकोषीय नीति के काम करने का क्या रंग-ढंग है। नव-उदारवाद राजकोषीय नीति को "विरोधी-चक्रीय" के बजाय "समर्थक-चक्रीय" बनाता है। जब अर्थव्यवस्था मंदी के असर में होती है तो राजस्व में गिरावट दर्ज होती है। और ऐसे में अपने ख़र्चों को पूरा करने के लिए केन्द्रीय सरकार न तो पूंजीपतियों पर टैक्स लगाती है (जबकि ऐसा करने से टैक्स-उपरांत होने वाले लाभों में कोई नुकसान नहीं होता, जबकि सरकारी व्यय में अगर कमी करने से ऐसा होता है)।
सरकार राजकोषीय घाटे को ही बढ़ाने की इच्छुक नज़र नहीं दिखती, लेकिन संघवाद के ख़तरों का जानते हुए भी राज्यों के संसाधनों को निचोड़ने के उपाय तलाशने के साथ-साथ वह सार्वजनिक क्षेत्र के निजीकरण के अभियान पर निकल पड़ती है, जो राष्ट्र को विदेशी और देशी एकाधिकार पूंजी की लूट के समक्ष और अधिक दयनीय बनाना है।
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अंग्रेजी में लिखा मूल आलेख आप नीचे दिए गए लिंक पर क्लिक कर पढ़ सकते हैं।
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