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मोदी सरकार द्वारा जातिवार जनगणना के आंकड़े सार्वजनिक न करने की वजह?

महाराष्ट्र सरकार ने साल 2021 में सुप्रीम कोर्ट में केंद्र सरकार के ख़िलाफ़ एक याचिका दायर की थी। भारत सरकार ने अपने एक हलफ़नामे में तकनीकी समस्या और विसंगतियों का हवाला दिया।
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प्रतीकात्मक तस्वीर। फ़ोटो साभार : गूगल

जातिवार जनगणना की मांग ज़ोर पकड़ चुकी है। चुनाव प्रचार में बहुत सारे मौकों पर इंडिया गठबंधन ने इस मुद्दे को उठाया है। सिर्फ इन पांच विधानसभा चुनावों की ही बात नहीं है बल्कि राहुल गांधी ने कर्नाटक चुनाव में भी इस मुद्दे को उठाया था। 2 अक्टूबर को गांधी जयंती के मौके पर बिहार सरकार ने तो राज्य की जातिवार जनगणना के आंकड़े सार्वजनिक भी कर दिए हैं। अब सवाल ये उठता है कि अगर बिहार सरकार इन आंकड़ों को सार्वजनिक कर सकती है तो फिर मोदी सरकार को क्या दिक्कत है? मोदी सरकार जातिवार जनगणना के आंकड़े जारी क्यों नहीं कर रही है? आइये, समझते हैं।

सोशो इकॉनोमिक एंड कास्ट सेंसस (SECC) 2011 को लेकर विवाद

देश मे आज़ादी के बाद पहली जनगणना 1951 में हुई थी। उस वक्त ये फैसला लिया गया था कि संविधान के आर्टिकल 341 और 342 का अनुसरण किया जाएगा और उन्हीं जातियों की जनगणना की जाएगी जो प्रेज़िडेंट ऑफ इंडिया के द्वारा नोटिफाई है। यानी सिर्फ एससी और एसटी की ही जनगणना की जाएगी। आखिरी बार जातिवार जनगणना वर्ष 1931 में हुई थी। लेकिन जातिवार जनगणना की मांग कभी कमज़ोर नहीं पड़ी। वर्ष 2011 की जनगणना से ठीक पहले यानी 2010 में विभिन्न राजनीतिक पार्टियों और सांसदों के द्वारा मांग की गई कि वर्ष 2011 की जनगणना में जातिवार गणना भी की जाए।

वर्ष 2010, जब केंद्र में यूपीए की सरकार थी। बजट सत्र में इस मुद्दे पर काफी हंगामा हुआ था। सदन की कार्यवाही भी प्रभावित हो गई थी। उस समय इस मुद्दे पर यूनियन केबिनेट की दो बैठकें हुई, लेकिन कोई सहमति नहीं बन पाई। तो मंत्रियों के एक समूह का गठन करने का निर्णय लिया गया, जिसकी अध्यक्षता तत्कालीन फाइनेंस मिनिस्टर प्रणब मुखर्जी ने की। इस समूह में तत्कालीन गृह मंत्री पी. चिदंबरम, कानून मंत्री वीरप्पा मोइली, शिक्षा मंत्री कपिल सिब्बल, रिन्यूएबल एनर्जी मिनिस्टर फारुक अब्दुल्ला, कृषि मंत्री शरद पवार, रेलवे मंत्री ममता बनर्जी और टेक्सटाइल मिनिस्टर दयानिधि शामिल थे।

जातिवार जनगणना के मामले पर ये मंत्रियों का समूह ही दो भागों में बंट गया। इसके विरोध में तर्क दिया गया कि ये समाज को जाति के नाम पर बांट देगा जबकि इसका समर्थन कर रहे मंत्रियों का तर्क था कि ये असल में संसाधनों के न्यायपूर्ण बंटवारे को सुनिश्चित करेगा। खैर! ये सब चला लेकिन अंततः कैबिनेट की ओर से वर्ष 2011 में सोशो इकॉनोमिक एंड कास्ट सेंसस (SECC) कराने का फ़ैसला लिया गया और 2011 में SECC के तहत जनगणना की गई। सवाल ये है जब वर्ष 2011 में SECC के तहत सरकार के पास जाति से जुड़ा डेटा है तो फिर उसे सार्वजनिक करने में दिक्कत क्या है?

जातिवार आंकड़े सार्वजनिक न करने की वजह

महाराष्ट्र सरकार ने वर्ष 2021 में सुप्रीम कोर्ट में केंद्र सरकार के ख़िलाफ़ एक याचिका दायर की थी। महाराष्ट्र सरकार ने मांग की थी कि केंद्र सरकार महाराष्ट्र के जातिवार आंकड़े उपलब्ध कराए ताकि वो स्थानीय चुनावों में उन आंकड़ों के आधार पर रिजर्वेशन दे पाए। इस याचिका पर सुनवाई के दौरान भारत सरकार ने सुप्रीम कोर्ट में एक हलफ़नामा दिया था और अपना पक्ष रखा था।

अपने हलफ़नामे में सरकार ने बताया है कि वर्ष 2011 की जनगणना का हाउसहोल्ड कास्ट और रिलीजन का डेटा हज़ारों एक्सल शीट में कॉपी कर रखा है और इस विशाल डेटा को एनालाइज़ करने के लिए ये फोरमैट सुटेबल नहीं है। सारे डेटा को रिलेशनल डेटाबेस मैनेजमेंट सिस्टम में ट्रांसफर करके ही राज्यवार और जिलावार आंकड़े उपलब्ध कराए जा सकते हैं।

सरकार ने अपने हलफ़नामे में बताया कि महाराष्ट्र के आंकड़े सही नहीं है, उनमें विसंगतियां हैं। महाराष्ट्र की कुल 10.3 करोड़ आबादी में से 1.7 करोड़ लोगों ने जाति के कॉलम को खाली छोड़ दिया है। इस डेटा के अनुसार महाराष्ट्र में 4,28,677 जातियों की गणना की गई हैं। जबकि महारष्ट्र में एससी, एसटी और ओबीसी को मिलाकर कुल 494 जातियां ही हैं। महाराष्ट्र में अनुसूचित जातियों की कुल संख्या 59 अनुसूचित जनजातियों की संख्या 47 और ओबीसी जातियों की कुल संख्या 388 है। इस जनगणना में 99% जातियां ऐसी हैं जिनमें लोगों की संख्या 100 से भी कम है।

भारत में 1931 में पहली जातिवार जनगणना के दौरान कुल 4,147 जातियां थीं। जबकि ये डेटा फिलहाल जातियों की संख्या 46 लाख से ज़्यादा दिखा रहा है। कुछ नई उप जातियां बनी होगीं तो भी संख्या में इतना बड़ा परिवर्तन नहीं आ सकता। अब सवाल ये उठता है कि जनगणना के इन आंकड़ों में इतनी विसंगति कैसे आ सकती है? क्या आंकड़ों को जारी न करने की वजह यही है? सरकार क्यों कह रही है कि ये आंकड़े भरोसेमंद नहीं है?

जातिवार डेटा इकठ्ठा करने की मुश्किलें

जातिवार जनगणना करने में अनेक मुश्किलें हैं। एक मुश्किल ये है कि बहुत सारी जातियां ऐसी हैं जिनकी कोई एक प्रचलित स्पेलिंग नहीं है। यानी एक जाति को अलग-अलग स्पेलिंग में लिखा जाता है। उदाहरण के तौर पर केरल की Mappilas जाति को ही ले लीजिए। इस जाति को लगभग 40 अलग-अलग तरह से लिखा जाता है। ऐसे में ये हो सकता है कि सिस्टम इस एक ही जाति को 40 अलग-अलग जातियों के तौर पर रीड करे। अनुमान है कि वर्ष 2011 की जनगणना के साथ ये हुआ होगा।

इसके अलावा कुछ ऐसी जातियां भी हैं जिनका उच्चारण करीब-करीब एक जैसा हैं। यानी जातियां अलग-अलग है लेकिन उच्चारण सेम है। उदाहरण के तौर पर Powar और Pawar इन्हें एक ही जाति समझने की भूल हो सकती है। जबकि Powar ओबीसी है और Pawar नहीं।

ओबीसी की सूचि तैयार करना एक्सक्लूसिवली केंद्र सरकार के दायरे में नहीं है। ओबीसी जातियों की केंद्र और राज्य की दो अलग-अलग लिस्ट हैं और देश के अलग-अलग राज्यों में स्थितियां भिन्न हैं। एक ही जाति किसी एक राज्य में ओबीसी सूचि में है तो दूसरे राज्य में सामान्य वर्ग में है।

अगर केंद्र सरकार द्वारा सुप्रीम कोर्ट में दिए गए हलफ़नामे की मानें तो 2011 की जातिवार जनगणना से पहले जातियों की रजिस्ट्री नहीं बनाई गई। जिसकी वजह से कोई कंसिस्टेंट डेटा नहीं मिल पाया। सरकार ने सुप्रीम कोर्ट में कहा है कि सरकार के पास ऐसा जातिवार डेटा नहीं है जो किसी प्रशासनिक और संवैधानिक एक्सरसाइज़ का आधार बन सकें।

मोदी सरकार की नीयत

सरकार ने अपने हलफ़नामे में जो कारण बताए है वो कई तरह के सवाल पैदा करते हैं। सबसे पहला सवाल ये कि क्या भारत के पास ऐसी तकनीक और एक्सर्ट नहीं है जो इस डेटा को क्लिन कर सकें? शोध से जुड़े तमाम लोग जानते हैं कि डेटा को क्लिन करना ही होता है। दूसरा सवाल ये उठता है कि अगर सरकार जातिवार जनगणना को लेकर गंभीर है तो जातियों के क्लासिफिकेशन और रजिस्ट्री तैयार करने के लिए मोदी सरकार ने पिछले पांच सालों में अब तक क्या किया है? क्या फिलहाल होने वाली जनगणना में जातिवार जनगणना की जाएगी? आपको स्पष्ट कर दें कि सरकार ने अपने इसी हलफ़नामे में कहा है कि वर्ष 2021 में भी जातिवार जनगणना संभव नहीं है। अगर हमने जातिवार जनगणना करने की कोशिश की तो बाकि डेटा भी गड़बड़ा जाएगा, उसकी ऑथेंटिसिटी पर असर पड़ सकता है। ऐसे में मोदी सरकार की नीयत पर सवाल उठना लाज़मी है। क्या सरकार मात्र इन तकनीकी कारणों की वजह से जाति का डेटा जारी नहीं कर रही है या फिर इसका संबंध 2024 के लोकसभा चुनाव से भी है?

2024 लोकसभा चुनाव और जातिवार जनगणना

अगर हम भाजपा के चुनावी ट्रैक रिकॉर्ड पर नज़र डालें तो पाएंगे कि भाजपा का चुनावी ब्रह्मास्त्र हिंदुत्व का एजेंडा और ध्रुवीकरण रहा है। अगर 2024 के लोकसभा चुनावों में जाति का मुद्दा केंद्रीय मसला बनता है तो हिंदुत्व का मुद्दा साइडलाइन हो जाएगा। क्योंकि जाति और धर्म के मुद्दे में परस्पर अंतर्विरोध है। जातिवार जनगणना का मुद्दा भाजपा के हिंदुत्व एजेंडा को पंक्चर कर सकता है। इंडिया गठबंधन जिस तरह इन विधानसभाओं में जातिवार जनगणना के मुद्दे को लेकर आक्रामक है, इससे लगता है कि वर्ष 2024 के लोकसभा चुनाव का केंद्रीय मुद्दा जातिवार जनगणना होगा। बिहार ने तो जातिवार जनगणना के आंकड़े सार्वजनिक भी कर दिए है। तो इंडिया अलायंस के तेवर को देखते हुए लगता है कि वर्ष 2024 का चुनाव मंडल बनाम कमंडल हो सकता है।

(लेखक स्वतंत्र पत्रकार एवं ट्रेनर हैं। आप सरकारी योजनाओं से संबंधित दावों और वायरल संदेशों की पड़ताल भी करते हैं।)

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