डॉलर के मुकाबले रुपया 80 के पार—यानी—महंगाई की और ज़्यादा मार
एक डॉलर की कीमत 80 रुपये के पार पहुंच चुकी है। खबर लिखने तक की बात यह है कि 1 डॉलर के लिए तकरीबन 81 रुपए देने पड़ रहे हैं। रुपये का यह अब तक का सबसे निचला स्तर है।
मतलब अगर विदेशों से कोई सामान और सेवा खरीदनी होगी तो उसके लिए 81 रुपये की दर से भुगतान करना पड़ेगा।
ठीक इसका उल्टा भी होगा। यानी अगर कोई सामान और सेवा विदेशों को निर्यात की जायेगी तो उसके लिए पहले के मुकाबला ज्यादा भारतीय पैसा मिलेगा। अब आप यहां पर कहेंगे कि यह तो अच्छी बात है। निर्यात करने पर भारत को विदेशों से ज्यादा पैसा मिलेगा।
लेकिन यहां समझने वाली बात है कि भारत की अर्थव्यवस्था चालू खाता घाटे वाली व्यवस्था है। भारत में आयात, निर्यात से अधिक होता है। यानी भारत से कॉफी, मसाले जैसे सामान और तकनीकी सेवाओं का जितना निर्यात होता है, उससे कई गुना अधिक आयात होता है।
भारत में विदेशी व्यापार हमेशा नकारात्मक रहता है। सरकार के समर्थकों का कहना होता है कि रूस यूक्रेन युद्ध की वजह से पूरी दुनिया में कच्चे तेल की सप्लाई कम हो गयी है, लेकिन डिमांड जस की तस बन हुई है। इसलिए कच्चे तेल की कीमतें लगातार बढ़ रही है। कच्चे तेल की खरीददारी के लिए पहले से ज्यादा डॉलर की निकासी हो रही है।
इसलिए सरकार कह रही है कि रूस और यूक्रेन की लड़ाई रुपये की गिरावट का अहम कारण है। लेकिन यहां समझने वाली बात यह है कि छह महीने पहले कच्चे तेल की कीमत 114 डॉलर प्रति बैरल थी, अब यह घटकर 86 डॉलर प्रति बैरल तक पहुंच चुकी है। मतलब कच्चे तेल के उतार-चढ़ाव से ज्यादा डॉलर के मुकाबले रुपया गिरने के दूसरे कारण है।
सही आर्थिक नीतियों की कमी ज्यादा बड़ा कारण है। अगर भारत अपने सभी संसाधनों का ढंग से इस्तेमाल करते हुए आगे बढ़ता तो उसका हमेशा चालू घाटे वाली अर्थव्यवस्था न रहता। आयात और निर्यात में बड़ा अंतर ना आता।
एक गरीब मुल्क में जहाँ लोगों के पास ढंग से अपना जीवन जीने के लिए पैसा नहीं है, वहां पर आयात और निर्यात की खुली नीति को अपनाने का मतलब है आयात को बढ़ावा देना और निर्यात की संभावनाओं को कम करना।
आप खुद सोचकर देखिये कि भारत में दूसरे दशों का माल ज्यादा बिकता है या दूसरे देशों में भारत का। नीति निर्माण के क्षेत्र में यह घनघोर कमियां भारत को चालू घाटे वाली अर्थव्यवस्था में बनाई रखती है। जहाँ पर डॉलर के मुकाबले रुपये की गिरवाट की संभावना हमेशा बनी रहती है।
जुलाई से अगस्त महीने में निर्यात तकरीबन 33 बिलियन डॉलर के आसपास रहा। आयात तकरीबन 60 बिलियन डॉलर का रहा। जुलाई 2021 के मुकाबले व्यापारिक घाटा तकरीबन 11.7 बिलियन डॉलर का रहा।
रुपया कमजोर होने की वजह से कम मुनाफे की उम्मीद कर विदेशी निवेशक लगातार भारतीय बाजार से अपना निवेश किया हुआ पैसा बाहर निकाल रहे हैं। आगे और भी विदेशी निवेश की बिकवाली होगी। इसलिए डॉलर और रुपये का अंतर और अधिक बढ़ेगा। विदेशी निवेश को लेकर यहां एक बात और समझने वाली है कि भारत में ज्यादातर विदेश निवेश वित्तीय पूंजी के तौर होता है। यानी ऐसी जगहों पर पैसा निवेश किया जाता है, जहां पर पैसा से पैसा बनाने का काम चलता है। जैसे कि स्टॉक मार्केट। जब भी निवेश करने वाले को लगता है कि उसे अपने निवेश पर कम कमाई होगी तो वह अपना पैसा निकाल लेता है।
यही इस समय हो रहा है। अमेरिका में ब्याज दरें 75 बेसिस पॉइंट बढ़ाई गयी हैं और निवेशक भारत से पैसा निकालकर अमेरिका की तरफ भागने लगे हैं, जहां उन्हें ज्यादा ब्याज मिलने की उम्मीद है। यह भारतीय अर्थव्यवस्था की गहरी संरचनात्मक कमियों की तरफ इशारा करता है। ज्यादातर विदेश निवेश ऐसी जगहों पर आना चाहिए जो उत्पादन के काम में लगे। बुनियादी अवसरंचना को खड़ा करने के काम में लगे। ताकि रोजगार मिले। पूंजी का सही इस्तेमाल हो सके। अगर ऐसा होता तो विदेशी निवेशक अचानक से पैसा नहीं निकालते। डॉलर के मुकाबले रुपये में धड़धड़ाते हुए कमी नहीं दर्ज की जाती। जनवरी 2022 से लेकर अब तक रुपये में तकरीबन 8 प्रतिशत की गिरावट दर्ज की जा चुकी है।
जब सामान और सेवाओं के आयात पर पहले से ज्यादा खर्च होगा तो देश में उन सब सामान और सेवाओं की कीमतें बढ़ेंगी जिनका आयात किया जाता है। डॉलर के मुकाबले रुपये के गिरने का मतलब है कि महंगाई का पहले से ज्यादा होना। 25 हजार से कम कमाने वाले देश के 90 फीसदी कामगारों पर मार महंगाई की जमकर मार पड़ना।
साल 2013 में डॉलर के मुकाबले रुपये गिरकर 68 रुपये प्रति डॉलर हो गया था। भाजपा की तरफ से बयान आया कि डॉलर के मुकाबले रुपया तभी मजबूत होगा जब देश में मजबूत नेता आएगा। उस समय कहा जा रहा था कि यह बताना मुश्किल है कि डॉलर के मुकाबले रुपया ज्यादा गिर रहा है या कांग्रेस पार्टी? कांग्रेस पार्टी और रुपये के गिरने में होड़ लगी है।
2018, 2019, 2020 और 2021 में लगातार रुपया कमज़ोर होता गया– 2.3 प्रतिशत से लेकर 2.9 प्रतिशत तक कमज़ोर हुआ। चार साल से भारत का रुपया कमज़ोर होता जा रहा है। अब यह कमजोर होकर सबसे निचले स्तर पर पहुंच चुका है। यानी यह बात समझने वाली है कि डॉलर के मुकाबले रुपये की कमजोर होने की कहानी रूस और यूक्रेन की लड़ाई के बाद ही शुरू नहीं हुई है, बल्कि यह तब से चली आ रही है जब से तथाकथित मजबूत नेता यानी नरेंद्र मोदी भारत के प्रधानमंत्री बने हैं। तब से लेकर अब तक डॉलर के मुकाबले रुपया गिरते गया है। भाजपा के मुताबिक मजबूत नेता के आ जाने के बाद से डॉलर के मुकाबले रुपया में मजबूती होनी चाहिए थी, लेकिन यह पहले से ज्यादा मजबूत होने की बजाए कमजोर हो गया। रुपये के गिरने से जुड़े जरूरी कारणों के पड़ताल के साथ उन बातों को भी में ध्यान रखना जरूरी है कि मौजूदा वक्त की सरकार ने तब कहा था जब वह विपक्ष में थी।
एक बात और कही जा रही है कि डॉलर के मुकाबले दुनिया के कई देशों की करेंसी में गिरावट दर्ज की जा रही है। जापान में येन और यूरोप में यूरो के गिरावट डॉलर के मुकाबले रुपये में होने वाली गिरावट से ज्यादा है। इसलिए ज्यादा चिंता की बात नहीं। लेकिन इन बातों को कहने वालों से पूछना चाहिए कि वह यह भी बताएं कि यूरोप और जापान जैसे देशों की अर्थव्यवस्था की स्थिति क्या है? वहां रोजगार की हालत क्या है? लोगों की आय क्या है? क्या वहां के लोगों डॉलर से पैदा होने वाली महंगाई से ज्यादा परेशान होंगे या भारत के?
वरिष्ठ आर्थिक पत्रकार अंशुमान तिवारी कहना है कि डॉलर के मुकाबले रुपया गिरकर 80 रुपये को पार कर चुका है। रिज़र्व बैंक उस मनोवैज्ञानिक दबाव से बाहर निकल चुका है, जिसके तहत वह रुपए को 80 रुपये से कम करने की कोशिश में लगा हुआ था। डॉलर के मुकाबले रुपये की कीमत कम करने के लिए विदेशी मुद्रा भण्डार से डॉलर बाजार में सप्लाई कर रहा था। पिछले 12 महीने में तकरीबन 94 बिलियन डॉलर बजार में सप्लाई किया जा चुका है। अब इससे ज्यादा डॉलर की सप्लाई नहीं करेगा। मतलब डॉलर के मुकाबले रुपया और ज्यादा गिरेगा। विदेशों से आयातित सामान और महंगा होगा। जब आयातित सामान महंगा होगा तो इनसे बनने वाले सामानों और सेवाओं की कीमतें भी बढ़ेगी। यानी महंगाई और ज्यादा बढ़ेगी। सबसे बड़ा असर उन पर पड़ेगा जिन्होंने अपने जीवन में कभी डॉलर नहीं देखा।
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