परीक्षाओं के मसले पर छात्र और यूजीसी क्यों आमने-सामने हैं?
“जो लोग ये तर्क दे रहे हैं कि परीक्षा रद्द करने से डिग्रियों का मूल्य कम हो जाएगा उन लोगों को ये भी बताना चाहिए कि वर्चुअल एग्जाम से उनका मूल्य कैसे बढ़ जाएगा।”
ये बात यूजीसी (विश्वविद्यालय अनुदान आयोग) के पूर्व अध्यक्ष सुखदेव थोरठ समेत 27 अन्य शिक्षाविदों ने यूजीसी को लिखे एक पत्र में कही है। पत्र में कोरोना महामारी के बढ़ते खतरे के बीच यूजीसी से परीक्षाएं आयोजित न कराने की अपील की गई है। इस संबंध में दिल्ली, महाराष्ट्र, ओडिशा, पंजाब, पश्चिम बंगाल और तमिलनाडु समेत कई राज्यों ने भी यूजीसी के दिशा-निर्देशों का विरोध किया है। यूजीसी के इस फैसले के खिलाफ देश भर के विश्वविद्यालयों के छात्र लगातार सोशल मीडिया से लेकर सड़क तक प्रदर्शन कर रहे हैं। तो वहीं कई राज्यों के मुख्यमंत्रियों ने भी मानव संसाधन विकास मंत्रालय को पत्र लिखा है।
क्या है पूरा मामला?
कोरोना संकट के चलते लॉकडाउन के बाद से ही देश के शिक्षण संस्थानों में पठन-पाठन का कार्यक्रम ठप्प है, सभी स्कूल-कॉलेज बंद हैं। ऐसे में 6 जुलाई को यूजीसी ने विश्वविद्यालयों में परीक्षाएं कराने को लेकर कुछ दिशा-निर्देश जारी किए। इन निर्देशों के मुताबिक सितंबर, 2020 तक सभी विश्वलिद्यालयों को ऑनलाइन या ऑफ़लाइन या मिश्रित (ऑनलाइन+ऑफ़लाइन) तरीकों से परीक्षाएं आयोजित करानी ज़रूरी है।
इंडियन एक्सप्रेस की रिपोर्ट के अनुसार देश भर में 366 विश्वविद्यालय यूजीसी के दिशानिर्देशों के अनुसार अब परीक्षाओं का आयोजन करेंगे। हालांकि कोरोना संकट के बीच अधूरे सिलेबस और बदहाल इंटरनेट कनेक्टिविटी से जुझते छात्र कैसे सुरक्षित परीक्षा दे पाएंगे ये एक बड़ी चुनौती है।
छात्रों के विरोध की क्या वजह है?
छात्रों के विरोध का मुख्य कारण देश में असमान संसाधनों का बंटवारा और महामारी के बीच खस्ता हाल शिक्षा व्यवस्था है। स्टडी मटीरियल से लेकर लैपटॉप और इंटरनेट जैसी सुविधाएं कई छात्रों की पहुंच से अब भी दूर हैं। तो वहीं कई स्टूडेंट्स का अनुसार कोरोना के चलते उनका कोर्स अधूरा रह गया। प्रशासन द्वारा उन्हें सिलेबस की ठीक से जानकारी भी नहीं दी गई है। कई जगह ऑनलाइन क्लासेस हुईं भी तो विकट परिस्थितियों के कारण सभी छात्र उसका लाभ नहीं ले सके हैं। इसके अलावा कई छात्र आर्थिक तौर पर इतने सशक्त नहीं हैं जो शिक्षा के इस बदलते दौर का दबाव उठा सकें।
इंटरनेट कनेक्टीवीटी और कोविड से सुरक्षा
ऑल इंडिया स्टूडेंट्स एसोसिएशन (आइसा) के अध्यक्ष और जेएनयू छात्रसंघ के पूर्व अध्यक्ष एन साई बालाजी ने न्यूज़क्लिक को बताया, “हज़ारों स्टूडेंट्स ऐसे हैं जिनके पास फ़ोन नहीं है, इंटरनेट की सुविधा नहीं है। सरकारी आंकड़ों में ही देश के भीतर केवल 40 प्रतिशत के आस-पास इंटरनेट पैनिट्रेशन है, जोकि स्मार्ट फोन पर आधारित है तो ऐसे में छात्र ऑनलाइन परीक्षा कैसे देंगे? अगर ऑफ़लाइन परीक्षा भी होती है, तो 14-15 लाख स्टूडेंट्स के बाहर निकलने से कोविड का संक्रमण बढ़ सकता है। ऐसे में क्या सरकार सभी को सुरक्षा का आश्वासन दे सकती है?”
बालाजी आगे कहते हैं, “फाइनल ईयर के छात्र तो वैसे भी सभी छात्रों के मुकाबले सबसे अधिक परिक्षाओं से गुज़रे होते हैं। ऐसे में पिछले सालों के प्रदर्शन, असाइनमेंट और प्रोजेक्ट के आधार पर अंतिम वर्ष या समेस्टर का मूल्यांकन आसानी से निकाला जा सकता है। वैसे भी किसी एक सेमेस्टर से किसी की शैक्षणिक गुणवत्ता का फै़सला नहीं किया जा सकता। हमारी मांग है कि परिक्षाओं को रद्द किया जाए।”
बनारस हिंदू यूनिवर्सिटी के ज्वाइंट एक्शन कमेटी सदस्य राज अभिषेक का कहना है कि बीएचयू के 80 प्रतिशत विद्यार्थी ग्रामीण इलाकों से आते हैं, जहां इंटरनेट सही तरीके से काम नहीं करता, साइबर कैफे जैसी सुविधाएं भी नहीं हैं। इसके बावजूद प्रशासन ने घर से असाइनमेंट का लंबा-चौड़ा काम थमा दिया है।
राज अभिषेक बताते हैं, “ज्यादातर छात्रों के पास फिलहाल अपना सामान और किताबें भी नहीं है क्योंकि वो सब होली में बिना तैयारी के अपने घर चले गए थे, जिसके बाद लॉकडाउन के चलते वहीं फंसे रह गए हैं। इसलिए हम छात्र किसी भी तरह की ऑनलाइन या ऑफलाइन परीक्षाओं का बहिष्कार करते हैं। साथ ही विश्वविद्यालय प्रशासन और ABVP दोनों को छात्र विरोधी कार्यों के प्रति आंदोलन की चेतावनी देते हैं।”
बिहार, असम और कश्मीर जैसे राज्यों का क्या?
आइसा से जुड़े विवेक ऑनलाइन परिक्षाओं के संबंध में कहते हैं कि ये हमारे देश में संभव ही नहीं है। क्योंकि यहां इंटरनेट फैसिलिटी हर जगह एक जैसी नहीं है। यह हवा हवाई फरमान जमीनी हक़ीक़त के एकदम उलट है और ऐसे फरमान समानता के अधिकारों का हनन है। ये फैसले आर्थिक रूप से कमजोर और देश के सुदूरवर्ती क्षेत्रों से आने वाले छात्रों को हतोत्साहित और मानसिक रूप से प्रताड़ित करने वाला है। हम और हमारा संगठन ऐसे किसी भी फैसले का विरोध करेंगे जिससे किसी एक भी छात्र के अधिकारों का हनन हो।
विवेक ने न्यूज़क्लिक से बातचीत में कहा, “अभी भी देश के सैकड़ों जिलों में इंटरनेट तो दूर की बात ठीक से कॉलिंग भी संभव नहीं है। हमारे यूनिवर्सिटी में झारखंड, छत्तीसगढ़, उड़ीसा के आदिवासी क्षेत्र से सैकड़ों छात्र हैं उनके यहां ठीक से नेटवर्क नहीं काम करता है ऐसे में वो ऑनलाइन एग्ज़ाम कैसे दे पाएंगे। लगभग पिछले एक साल से कश्मीर में इंटरनेट बन्द है वहां के छात्र एग्जाम कैसे दे पाएंगे। बिहार और असम में भीषण रूप से बाढ़ की चपेट में, लाखों लोग अपने घरों से विस्थापित हो चुके हैं वहां के छात्र इस स्थिति में परीक्षा कैसे दे पाएंगे। लाखों छात्रों के पास एंड्रॉयड मोबाइल और लैपटॉप नहीं है और उनकी आर्थिक स्थिति इतनी अच्छी नहीं है कि वो ऑनलाइन परीक्षा के लिए तत्काल मोबाइल लैपटॉप खरीद सके। ऐसे स्थिति में ऑनलाइन एग्जाम की फरमान सिर्फ सरकार और एचआरडी मिनिस्ट्री की तानशाही है।
ऑनलाइन परीक्षा निजीकरण की ओर एक कदम है!
छात्रों के अधिकारों के लिए संघर्षरत क्रांतिकारी युवा संगठन के हरीश गौतम का कहना है कि कोरोना के बढ़ते प्रकोप के बीच विश्वविद्यालयों पर परीक्षा करवाने का दबाव बनाकर, यूजीसी के पीछे से भाजपा शासित केंद्र सरकार, शिक्षा के अनौपचारिकरण को बढ़ावा देने का पुरजोर प्रयास कर रही है।
हरीश कहते हैं, “देश में लगातार बढ़ रहे कोरोना मरीजों की संख्या के बीच विश्वविद्यालयों के लिए तृतीय वर्ष छात्रों की परीक्षाएं करवाने के लिए एकमात्र शेष रास्ता ऑनलाइन माध्यम बचेगा क्योंकि विभिन्न राज्यों ने लगे partial लॉकडाउन के बीच छात्रों के लिए बनाये गए कुछ परीक्षा सेन्टर जाना भी असंभव ही है, जिस कारण अंततः वे ऑनलाइन माध्यम से परीक्षायें देने के लिए मजबूर होंगे। ऐसे में ऑनलाइन परीक्षा के माध्यम से ऑनलाइन शिक्षा को बढ़ावा देने का यह रवैया भाजपा सरकार द्वारा पिछले कुछ सालों में शिक्षा के क्षेत्र में निजीकरण और अनौपचारिकरण लाने के प्रयासों की कड़ी में ही देखे जाने चाहिए। भाजपा सरकार निजीकरण और अनौपचारिकरण के एजेंडे को कोरोना काल में अमली जामा पहनाने के लिए प्रतिबद्ध जान पड़ रही है।”
एचआरडी मंत्री रमेश पोखरियाल ने परिक्षाओं पर दिया ज़ोर
बता दें कि इससे पहले मानव संसाधान विकास (एचआरडी) मंत्री रमेश पोखरियाल निशंक ने ट्वीट के माध्यम से कहा था, “ये कहना अतिशयोक्ति नहीं होगा कि किसी भी शिक्षा प्रणाली में विद्यार्थियों का मूल्यांकन महत्वपूर्ण होता है। परीक्षाओं में प्रदर्शन विद्यार्थियों को आत्मविश्वास और संतुष्टि देता है।”
हालांकि छात्र जो परिक्षाओं से सबसे ज्यादा प्रभावित होने वाले हैं, वो एचआरडी मंत्री से इत्तेफाक नहीं रखते। यूजीसी के परीक्षा करवाने संबंधी निर्देशों को लगभग 31 स्टूडेंट्स ने सुप्रीम कोर्ट में चुनौती दी है जिनमें एक स्टूडेंट कोविड-19 के मरीज़ भी हैं। वहीं इस मामले पर दिल्ली हाईकोर्ट में भी सुनवाई जारी है।
सुप्रीम कोर्ट और दिल्ली हाईकोर्ट तक पहुंचा मामला
दिल्ली विश्वविद्यालय (डीयू) में बीकॉम ऑनर्स के अंतिम वर्ष के छात्र कबीर सचदेवा ने परीक्षाओं के ख़िलाफ़ दिल्ली हाईकोर्ट में याचिकाएं दायर की हैं। उनके वकिल ध्रुव पांडे का कहना है कि "मार्च के बाद जब परीक्षाएं टाली गईं तब देश में कोरोना संक्रमण के कम मामले थे और जुलाई में मामले बढ़ने पर परीक्षाएं अनिवार्य की जा रही हैं. इस वक़्त सभी बच्चों के पास समान संसाधन और स्थितियां नहीं हैं. मान लीजिए कि परीक्षा के दौरान किसी स्टूडेंट के घर पर बिजली चली जाती है और वहीं, कोई दूसरा स्टूडेंट घर में ऐसी में बैठकर पेपर देता है, तो परीक्षण में बराबरी कैसे होगी?"
बता दें कि डीयू में हाल ही में ऑनलाइन परीक्षाओं को लेकर एक मॉक टेस्ट हुआ था। इसमें स्टूडेंट्स के पास गलत प्रश्न पत्र पहुंच गए और कई बच्चों की आंसर शीट सब्मिट ही नहीं हो पाई। ऐसे में परीक्षाएं लेने से पहले तकनीकी पक्ष को मज़बूत करना यूजीसी और विश्वविद्यालयों के समक्ष एक अहम चुनौती है।
गौरतलब है कि इस मुद्दे को लेकर देशभर के तमाम विश्वविद्यालयों के छात्र संघ और छात्र संगठन लगातार विरोध कर रहे हैं। हाल ही में स्टूडेंट फेडरेशन ऑफ इंडिया दिल्ली ने सोमवार, 27 जुलाई को मानव संसाधन मंत्रालय के समक्ष परिक्षाओं के आयोजन को लेकर आपत्ति दर्ज करवाई साथ ही इस संबंध में एक ज्ञापन भी सौंपा। ऑल इंडिया स्टूडेंट्स एसोसिएशन ने मंगलवार 28 जुलाई को देश भर में विरोध प्रदर्शन आयेजित किया। बुधवार, 29 जुलाई को अखिल भारतीय विश्वविद्यालय एवं महाविद्यालय शिक्षक संघ (एआईफुक्टो) ने यूजीसी के दिशा-निर्देशों के खिलाफ अपनी आवाज उठाई। इसके अलावा ‘ऑल इण्डिया फोरम टू सेव पब्लिक एजुकेशन’ नाम के तहत एक संयुक्त मंच बनाकर 11 जुलाई से 14 जुलाई तक सड़क से लेकर सोशल मीडिया तक बड़ा प्रदर्शन भी किया गया था।
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