इतवार की कविता: मुजरिम कभी जो भूक से इंसाँ हुआ तो क्या
ग़ज़ल
दिल तोड़ कर वो दिल में पशीमाँ हुआ तो क्या
इक बेनियाज़-ए-नाज़ पे एहसाँ हुआ तो क्या
अपना इलाज-ए-तंगी-ए-दिल वो न कर सके
मेरा इलाज-ए-तंगी-ए-दामाँ हुआ तो क्या
जब बाल-ओ-पर ही नज़्र-ए-क़फ़स हो के रह गए
सेहन-ए-चमन में शोर-ए-बहाराँ हुआ तो क्या
इक उम्र रख के रूह मिरी तिश्ना-ए-नशात
अब नग़्मा-ए-हयात पर-अफ़्शाँ हुआ तो क्या
जब मेरे वास्ते दर-ए-मय-ख़ाना बंद है
सहबा में ग़र्क़ आलम-ए-इम्काँ हुआ तो क्या
टूटे पड़े हैं साज़-ए-मोहब्बत के तार तार
अब शाहिद-ए-ख़याल ग़ज़ल-ख़्वाँ हुआ तो क्या
आदम ने एक ख़ोशा-ए-गंदुम को क्या किया
मुजरिम कभी जो भूक से इंसाँ हुआ तो क्या
'वामिक़' की तीरा-बख़्ती का आलम वही रहा
ज़ुल्मत-कदे में चश्मा-ए-हैवाँ हुआ तो क्या
- वामिक़ जौनपुरी
- (साभार: रेख़्ता)
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