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इतवार की कविता: मुजरिम कभी जो भूक से इंसाँ हुआ तो क्या

23 अक्टूबर, शायर वामिक़ जौनपुरी के जन्म का दिन था। ‘भूका है बंगाल रे साथी, भूका है बंगाल’ वह नज़्म है, जिसने 1943 के बंगाल के हालात की ऐसी तर्जुमानी की कि पूरा देश हिल उठा। ऐसी नज़्म लिखने वाले शायर ने ग़ज़लें भी ख़ूब कहीं। आइए आज इतवार की कविता में उनकी एक ग़ज़ल 
Wamiq Jaunpuri

ग़ज़ल

दिल तोड़ कर वो दिल में पशीमाँ हुआ तो क्या

इक बेनियाज़-ए-नाज़ पे एहसाँ हुआ तो क्या

 

अपना इलाज-ए-तंगी-ए-दिल वो न कर सके

मेरा इलाज-ए-तंगी-ए-दामाँ हुआ तो क्या

 

जब बाल-ओ-पर ही नज़्र-ए-क़फ़स हो के रह गए

सेहन-ए-चमन में शोर-ए-बहाराँ हुआ तो क्या

 

इक उम्र रख के रूह मिरी तिश्ना-ए-नशात

अब नग़्मा-ए-हयात पर-अफ़्शाँ हुआ तो क्या

 

जब मेरे वास्ते दर-ए-मय-ख़ाना बंद है

सहबा में ग़र्क़ आलम-ए-इम्काँ हुआ तो क्या

 

टूटे पड़े हैं साज़-ए-मोहब्बत के तार तार

अब शाहिद-ए-ख़याल ग़ज़ल-ख़्वाँ हुआ तो क्या

 

आदम ने एक ख़ोशा-ए-गंदुम को क्या किया

मुजरिम कभी जो भूक से इंसाँ हुआ तो क्या

 

'वामिक़' की तीरा-बख़्ती का आलम वही रहा

ज़ुल्मत-कदे में चश्मा-ए-हैवाँ हुआ तो क्या

 

-    वामिक़ जौनपुरी

-    (साभार: रेख़्ता)

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