बिहार चुनाव: बच्चों में अनियंत्रित थैलेसीमिया का क़हर जारी, लेकिन नहीं दिया जा रहा ध्यान
पटना: “खून न मिलने की वजह से मेरी बहन मर गई”, यह बात सात वर्षीय सोनम कुमारी ने तब कही जब वह बिहार के पटना में नवनिर्मित मेडिकल कॉलेज एंड हॉस्पिटल (पीएमसीएच) के डे-केयर सेंटर में एक गुड़िया के साथ खेल रही थी। सोनम की आँखें उभरकर बाहर आई हुईं थीं, उसके पैर पतले हैं और उसके दाहिने हाथ में एक आईवी ट्यूब डली हुई थी। पीएमसीएच में, कई बच्चे- जो अधिकतर दस साल से कम उम्र के हैं- उनके भीतर वे सभी लक्षण देखे जा सकते हैं जो एक थैलेसीमिया रोगी में होते हैं।
थैलेसीमिया की गंभीर मरीज सोनम की छोटी बहन की 8 अक्टूबर को इस भयानक बीमारी से मौत हो गई थी। उसके माता-पिता उसकी बहन के लिए लगभग नौ महीने तक खून का इन्तजाम करने में नाकाम रहे थे।
सोनम के दादाजी, राम कुमार, जो बिहार के वैशाली जिले के हज़रत जंदाहा कस्बे से हैं- पटना के राज्य मुख्यालय से लगभग 51 किलोमीटर की दूरी पर है- कहते हैं कि, “सोनम के माता-पिता अपनी बेटी के खोने से काफी उदास हैं। अपनी पोती की मृत्यु के बाद से वे किसी से बात नहीं करते हैं, और खुद भी थैलेसीमिया के गंभीर मरीज हैं।”
आंसू भरी आंखों से राम कुमार ने कहा कि लड़की के पिता, प्रेम कुमार, जंदाहा में एक ऑटोमोबाइल एजेंसी में क्लर्क के रूप में काम करते हैं। "उसने 8 अक्टूबर से शायद ही कुछ खाया है। वह परेशान है क्योंकि उसे लगता है कि वह खुद अपने बच्चे की मौत का जिम्मेदार है। तथ्य यह है कि हम आठ महीने से अधिक समय से खून का ट्रांसफ़्यूज़न नहीं करा सके और जब उसे ट्रांसफ़्यूज़न के लिए अस्पताल ले जाया गया तो उसका निधन हो गया।”
सोनम कुमारी अपने दादा के साथ
“थैलेसीमिया एक अभिशाप है जिससे हम निपट रहे हैं। बड़ी बेटी भी जन्म से ही इसी बीमारी की शिकार है। वह सौभाग्यवती है कि वह एक और रक्त ट्रांसफ़्यूज़न (transfusion) से बच गई और अब, चूंकि कोविड-19 लॉकडाउन में ढील दे दी गई है, हम उसके नियमित रक्त ट्रांसफ़्यूज़न की उम्मीद कर रहे हैं,” उसके दादा ने बताया।
थैलेसीमिया और संरचनात्मक हीमोग्लोबिन संस्करण वैश्विक रूप से सबसे आम मोनोजेनिक विकार हैं। भारत में β थैलेसीमिया सिंड्रोम के करीब 1,00,000 और सिकल सेल रोग के लगभग 1,50,000 रोगी हैं। थैलेसीमिया वाहक की औसत व्यापकता तीन से चार प्रतिशत होती है, जबकि हमारी 1.21 अरब की विविध आबादी में 35 से 45 मिलियन वाहक है। कई जातीय समूहों में इसका बहुत अधिक प्रचलन (यानी 4-17 प्रतिशत) है।
बिहार में ब्लड बैंकों की कमी!
बेतिया के रहने वाले रुपेश कुमार, गंभीर थैलेसीमिया रोग से पीड़ित ग्यारह साल के लड़के के पिता हैं। उनका कहना है कि वह अपने बेटे के इलाज़ के लिए दिल्ली के एक अस्पताल से रक्त संक्रमण और दवाइयाँ प्राप्त करते थे, लेकिन कोविड-19 के चलते लॉकडाउन ने यात्रा को असंभव बना दिया।
अपने गृहनगर में एक छोटा सा भोजनालय चलाने वाले रुपेश कुमार का कहना है कि वे कर्ज में गले तक डूबे हुए हैं चूंकि उन्होंने अपने बेटे के इलाज के लिए रिश्तेदारों से कर्ज लिया है।
पिता ने बड़ी ही दुखभरी आवाज़ में कहा, “जब मैं आज (18 अक्टूबर) को पीएमसीएच ब्लड बैंक गया, तो मुझे बताया गया कि रक्त नहीं है लेकिन एक सामाजिक कार्यकर्ता की मदद से एक पैक्ड रेड ब्लड सेल्स (पीआरबीसी) यूनिट हासिल कर सका। ब्लड बैंक के अधिकारियों ने हमें बताया कि महामारी के कारण लोग रक्तदान नहीं कर रहे हैं। अगर बिना दान का रक्त खरीदा जाता है तो प्रति रक्त ट्रांसफ़्यूज़न की लागत 8,000 रुपये तक जाती है। हम गरीब लोग हैं, हम इसे हर बार बर्दाश्त नहीं कर सकते हैं और राज्य द्वारा संचालित चिकित्सा सुविधाओं पर निर्भर हैं।”
रुपेश कुमार
रुपेश कुमार ने बताया, “मार्च से अब तक मुझे अपने बच्चे का लगभग 17 बार रक्त ट्रांसफ़्यूज़न करवाना पड़ा क्योंकि हम पेक्ड रेड ब्लडसेल नहीं हासिल कर पाए थे। इस बीमारी से पीड़ित बच्चों के लिए हॉल ब्लड का ट्रांसफ़्यूज़न बहुत खतरनाक है क्योंकि डॉक्टरों का कहना है कि बच्चों को यकृत संक्रमण हो सकता है, क्योंकि सफेद रक्त कोशिकाओं में वृद्धि हो सकती है जिसकी मरीज को जरूरत नहीं होती है इसलिए मरीज के लिए घातक हो सकती है।”
राजनेताओं के दावे के मुताबिक, ''बेतिया में दुनिया का सबसे बेहतर अस्पताल है, लेकिन हमें यहां रक्त हासिल करने के लिए आना होता है। मेरे गृहनगर में ऐसी कोई सुविधा नहीं है और हमें पटना पहुंचने में लगभग सात घंटे लगते हैं।
एक मल्टी-स्पेशियलिटी अस्पताल के हेमटोलॉजी विभाग के एक वरिष्ठ डॉक्टर ने बताया कि बीमारी से पीड़ित बच्चों की पीड़ा को कम करने के लिए सरकार कुछ भी नहीं कर रही है। उन्होंने कहा, “यह कहना गलत नहीं होगा कि देश में खून की बहुत कमी है, और जागरूकता की कमी के कारण, समय पर रोग की जांच और उचित इलाज़ तथा शिक्षा के अभाव से थैलेसीमिया के मामले बढ़ रहे हैं। देश में लगभग 25 प्रतिशत मामले बिहार और उत्तर प्रदेश से हैं। ”
उन्होंने आगे कहा, “अब उन मरीजों की स्थिति की कल्पना करें जहां चिकित्सा का बुनियादी ढांचा ढह गया है और मरीज सचमुच वेंटिलेटर पर हैं। थैलेसीमिया के मामलों की बढ़ती संख्या भी देश में सार्वजनिक स्वास्थ्य सेवा के लिए बड़ा खतरा है।
एक रिपोर्ट के अनुसार 20 साल की उम्र से पहले ही एक लाख से अधिक बच्चों की मौत बिना इलाज़ के हो जाती है।
लागत
बिहार के पश्चिम चंपारण जिले के एक टीईटी शिक्षक अनुज कुमार अपने परिवार के तीन बच्चों का केवल रक्त संक्रमण के लिए राजधानी पटना में तैनात हैं।
उन्होंने बताया, “मेरी बेटी और मेरे बड़े भाई के जुड़वां बच्चे थैलेसीमिया के रोगी हैं, और मैं पहली बार इलाज के लिए पटना आया हूं, मैं दिल्ली नहीं जा सका क्योंकि वहां कोविड-19 के कारण स्थिति खराब है। यहां डे-केयर सुविधा में समस्या यह है कि डॉक्टर एक बजे के बाद लाया रक्त स्वीकार नहीं करते हैं जबकि अस्पताल का समय शाम चार बजे तक है। दूसरी समस्या ब्लड बैंक में रक्त की अनुपलब्धता है। यहां के अधिकारियों का कहना है कि अगर आपके पास डोनर नहीं है तो आपको खून नहीं मिलेगा।”
अनुज कुमार
“पिछले एक साल में तीनों बच्चे को लगभग 37 बार हॉल ब्लड ट्रांसफ़्यूज़न से गुजरना पड़ा है, क्योंकि बेतिया कैंट और जिला अस्पताल में पीआरबीसी खून उपलब्ध नहीं है। इसने हमारे बच्चों की जान का जोखिम बढ़ा दिया है और इलाज़ इतना महंगा हो गया है कि हम अस्थि मज्जा प्रत्यारोपण (Bone Marrow Transplant) नहीं करा सकते हैं। अब मैं सात लाख रुपये के कर्ज में डूब गया हूं और मुझे नहीं पता कि मैं कब तक उनका इलाज जारी रख पाऊँगा।'
उन्होंने कहा, 'मैंने कई मौकों पर सीएमओ से बात की लेकिन उनका कहना है कि बेतिया में मेडिकल कॉलेज खुलने पर ही हम पीआरबीसी रक्त हासिल कर सकेंगे। हमें तो यही जवाब मिलता है।”, यह कहते हुए अनुज कुमार की आँखों में आँसू बहने लगे।
लॉकडाउन के दौरान किसी भी अधिकारी को थैलेसीमिया के रोगियों का ख्याल नहीं आया कि वे क्या करेंगे और ऊपर से ब्लड ट्रांसफ़्यूज़न यात्रा का कोई भी साधन उपलब्ध नहीं था। मुकेश हिसारिया, जो ऐसे रोगियों की मदद करने के लिए और रक्त की व्यवस्था करने के लिए एक एनजीओ चलाते हैं, के अनुसार, लोगों को पीएमसीएच पहुंचने और रक्त हासिल करने में कुछ किलोमीटर पैदल चलने के अलावा दूसरों से वाहन भी किराये पर लेने के लिए मजबूर होना पड़ता है।
हिसारिया के अनुसार, शरीर में आयरन के स्तर को सामान्य बनाने के लिए आवश्यक दवा की उपलब्धता भी परिवारों के लिए एक बड़ा मुद्दा है।
जब इस रिपोर्टर ने पीएमसीएच में डे-केयर सेंटर का दौरा किया, तो वहां दवा उपलब्ध नहीं थी। अस्पताल के प्रवेश द्वार पर एक नोटिस बोर्ड पर ऐसा लिखा था। हालांकि सेंटर के कर्मचारियों ने दावा किया कि अनुपलब्धता अस्थायी है, रोगियों और उनके परिवारों का कहना है कि यह एक नियमित घटना है।
पीएमसीएच एकमात्र नहीं है जहां ट्रांसफ़्यूज़न सुविधा के लिए दवा की अनुपलब्धता की बीमारी है। हिसारिया के अनुसार, यह बीमारी पूरे राज्य में मौजूद है। उन्होंने कहा “दवा की कोई कमी नहीं है, लेकिन सिस्टम की वजह से इसकी उपलब्धता प्रभावित होती है। अधिकारी एक-दूसरे को जिम्मेदार ठहराते रहते हैं लेकिन पीड़ित बच्चे होते हैं। ” राष्ट्रीय स्वास्थ्य मिशन के तहत राज्य को प्रदान की गई धनराशि खर्च नहीं की जाती है और वापस कर दी जाती है। हिसारिया ने कहा कि थैलेसीमिया रोगियों के लिए वापस किए जा रहे और आवंटित फंड्स का इस्तेमाल निहायत जरूरी है ताकि कुछ ज़िंदगियों को बचाया जा सके।
राज्य के स्वास्थ्य विभाग से संपर्क करने पर इस बारे में कोई प्रतिक्रिया नहीं मिली।
अंग्रेज़ी में प्रकाशित मूल रिपोर्ट पढ़ने के लिए नीचे दिए गए लिंक पर क्लिक करें
Bihar Elections: Unchecked and Ignored, Thalassemia Wreaks Havoc among Children
अपने टेलीग्राम ऐप पर जनवादी नज़रिये से ताज़ा ख़बरें, समसामयिक मामलों की चर्चा और विश्लेषण, प्रतिरोध, आंदोलन और अन्य विश्लेषणात्मक वीडियो प्राप्त करें। न्यूज़क्लिक के टेलीग्राम चैनल की सदस्यता लें और हमारी वेबसाइट पर प्रकाशित हर न्यूज़ स्टोरी का रीयल-टाइम अपडेट प्राप्त करें।