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सरकार-जी की तपस्या में भला क्या कमी!

सरकार जी भी तपस्या कर रहे थे, यह हमें तभी पता चला जब सरकार जी ने खुद हमें बताया कि शायद तपस्या में कमी रह गई है। अन्यथा हमें तो यह ही पता था कि सरकार जी तो अपने राजमहल में मशरूम खा रहे हैं और आराम फरमा रहे हैं।
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कार्टून, कार्टूनिस्ट मंजुल के ट्विटर हैंडल से साभार

इन तीन कृषि कानूनों को वापस लेते हुए 'सरकार जी' ने कहा कि लगता है कि उनकी तपस्या में ही कोई कमी रह गई है। हमने अजीब सरकार जी चुने हैं, जब सरकार चलाते हैं तो सरकार चलाने में कमी रह जाती है। जब फकीर बनते हैं तो फकीरी में कमी रह जाती है। और जब तपस्या करते हैं तो तपस्या में कमी रह जाती है। ऐसे सरकार जी भी भला किस काम के।

सरकार जी भी तपस्या कर रहे थे, यह हमें तभी पता चला जब सरकार जी ने खुद हमें बताया कि शायद तपस्या में कमी रह गई है। अन्यथा हमें तो यह ही पता था कि सरकार जी तो अपने राजमहल में मशरूम खा रहे हैं और आराम फरमा रहे हैं। और विदेशों के दौरे खुलते ही, विदेशों का दौरा कर रहे हैं। पर अब जब कह रहे हैं कि तपस्या में कमी रह गई तो जरूर ही रह गई होगी। तो हमने सोचना शुरू किया कि सरकार जी और उनके लोगों ने इस कानून के लिए क्या क्या तपस्या की कि तपस्या में कमी रह गई।

सरकार जी ने जब यह कानून शुरू किया तो पहली तपस्या यह की कि यह कानून अध्यादेश ला कर शुरू किया। बहुत ही अधिक जरूरी कानून था, अध्यादेश लाना पड़ा। कानून आने में दो चार दिन की भी देरी होने से देश का, देश के किसानों का और उससे भी अधिक सरकार जी के मित्रों का नुकसान हुआ जा रहा था। एक-एक दिन की देरी मित्रों को भारी पड़ रही थी। मित्र हैं, तो देश है। मित्र हैं, तो सरकार जी हैं और मित्र हैं इसीलिए सरकार जी की सरकार है। मित्र हैं, तो चुनावी जीत है। मित्र हैं तो सारी दुनिया है। मित्र नहीं तो कुछ भी नहीं। सरकार जी को मित्रों की अहमियत पता है। तो पहली तपस्या तो यही की कि बिना देरी किए, अध्यादेश ला कर मित्रों की इच्छानुसार कानून बनाया गया। उस समय तो तपस्या में कहीं भी कोई भी कमी नहीं रह गई थी।

दूसरी तपस्या सरकार जी ने तब की जब बिल को संसद में पेश किया गया और पास करवाया गया। कोई बहस नहीं, कोई मतदान नहीं। बस ध्वनि मत से, शोर-शराबा कर, चीख-चिंघाड़ कर पास करा लिया गया। इतनी तपस्या तो की ही गई न कि संसद में बहसों और मतदान से अधिक महत्व जोर-जोर से बोलने को दे दिया गया। क्या यह तपस्या कुछ कम थी जो कहा गया कि तपस्या में कमी रह गई है।

तपस्या तो सिर्फ सरकार जी ने ही नहीं, सरकार जी के वजीरों ने भी की और भरपूर की। आंदोलन कर रहे किसानों की तो सरकार जी ने सिर्फ आंदोलन जीवी और परजीवी कह कर ही प्रशंसा की परन्तु सरकार जी के वजीरों और अन्य सभासदों ने तो आंदोलनकारियों की प्रशंसा के पुल ही बांध दिए। उन्होंने तो आंदोलनकारी किसानों को आतंकवादी कहा, खालिस्तानी कहा, देशद्रोही कहा, मवाली कहा, और न जाने क्या क्या कहा। कहा कि ये तो किसान नहीं, दलाल हैं। इतनी प्रशंसा करने के बाद क्या कुछ और भी प्रशंसा करनी बाकी रही थी जो कहा जा रहा है कि तपस्या में कमी रह गई।

सरकार जी की इस तपस्या में सरकार जी के दोस्त मीडिया ने, जिसे प्रेम पूर्वक गोदी मीडिया भी कहते हैं, भी बहुत सहयोग किया। सरकार जी से ज्यादा तो उन्होंने कानून को बिना समझे ही, किसानों को समझाया कि इस कानून से किसानों को कितना लाभ है। उन्होंने भी किसानों को प्यार भरे विभिन्न अलंकारों से नवाजा। उन्होंने ही तो जनता को बताया कि ये किसान तो पिज्जा खाते हैं, ट्रैक्टर में बैठते हैं, ए.सी. में रहते हैं, मुलायम गद्देदार बिस्तरों पर सोते हैं और पैरों की मसाज करवाते हैं। ये किसान फटी धोती और गंदा कुर्ता नहीं, जींस पहनते हैं। अरे! ये तो अमीर हैं। ये किसान हो ही नहीं सकते हैं। किसान तो गरीब ही होता है और उसे गरीब ही रहना चाहिए। सरकार जी का यही मानना है, हम मध्य वर्ग को भी यही लगता है। सरकार जी इसी के लिए ही तो तपस्या कर रहे थे। आखिर कमी रह कहां गई? 

सरकार जी की तपस्या में अभिनेताओं और अभिनेत्रियों ने भी भरपूर साथ दिया। एक अभिनेत्री को उसके अभिनय के लिए तो पुरस्कार मिला ही, उसने सरकार जी की तपस्या में इतना सहयोग किया कि सरकार जी को उसके इस सहयोग के लिए पद्म पुरस्कार भी देना पड़ गया। उस अभिनेत्री ने भी अपनी तरफ से कोई कमी नहीं छोड़ी। उसने इस पुरस्कार देने के अहसान का बदला अगले दिन ही चुका दिया, जब उसने सरकार जी के सरकार बनाने के वर्ष को ही असली आजादी का वर्ष घोषित कर दिया। सरकार जी तो अब अपनी तपस्या भंग कर चुके हैं पर वह अभिनेत्री अभी भी तपस्या में लीन है।

सरकार जी की इस तपस्या में सरकार जी के दल की राज्य सरकारों ने भी सहयोग किया और भरपूर सहयोग किया। 'दिल्ली चलो' का नारा दे दिल्ली की ओर कूच कर रहे किसानों को दिल्ली की ओर बढ़ने से रोकने की पूरी तैयारी की। रास्ते खुदवाये, वाटर कैनन चलवाई, बड़े-बड़े कंटेनरों से सड़क रूकवाई। जब किसानों के जत्थे दिल्ली बार्डर पर पहुंचे तो बैरिकेडिंग की, कंटीले तार बिछाये गए, सड़क पर कीलें ठोक दीं। दिल्ली पहुंचने से रोकने के लिए इतनी गंभीर तपस्या की गई और सरकार जी कह रहे हैं कि तपस्या में शायद कोई कमी रह गई।

सरकार जी की ओर से तपस्या में तो और भी बहुत सारे लोग सहयोग कर रहे थे। हरियाणा के एक अफसर ने तो पुलिस को किसानों के सर फोड़ देने के आदेश तक दे दिये। और उधर लखीमपुर-खीरी में एक केंद्रीय मंत्री जी के सुपुत्र ने तो किसानों पर जीप ही चढ़ा दी। अब सबके इतना सहयोग करने के बाद सरकार जी कहते हैं कि तपस्या में शायद कोई कमी रह गई है तो अवश्य ही रह गई होगी।

इतनी सारी तपस्याएं गिनाने के बाद हमने सोचा कि आखिर कमी रही क्या होगी? सरकार जी जब स्वयं कमी की बात कर रहे हैं तो कमी जरूर ही रही होगी। सरकार जी ने अपनी जिंदगी में पहली बार अपनी कोई कमी मानी है नहीं तो वे नेहरू और गांधी की कमियां ही गिनवाते रहते हैं। अब अपनी कमी कह रहे हैं तो कमी रही ही होगी। सबकुछ कर लिया फिर भी कुछ कमी रह गई। लेकिन जब बहुत सोचा-विचारा तब ध्यान में आया कि सरकार जी ने सबकुछ तो कर लिया बस किसानों पर गोली चलवाना ही भूल गए। बस एक कमी गोली चलवाने की ही रह गई। उन्होंने किसानों पर गोली तो चलवाई ही नहीं। बस, समझ में आ गया कि उनकी 'तपस्या' में यही कमी रही होगी जिसकी सरकार जी ने उन्नीस नवंबर को बात की थी।

(इस व्यंग्य स्तंभ के लेखक पेशे से चिकित्सक हैं।)

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