तुर्की भूकंप: सरहदों में बंटी दुनिया बंधी है ‘इंसानियत के धागे से’....
एक तरफ़ यमुना नदी में मिलता गंदा नाला और दूसरी तरफ़ उड़ती धूल, ऐसी धूल की हाथ में थामे मोबाइल पर नज़र गई तो धूल की एक मोटी परत नज़र आई। ऐसा महसूस हो रहा था कि हर सांस के साथ धूल की एक-अच्छी ख़ासी मात्रा भी फेफड़ों तक पहुंच रही होगी। कुछ और आगे बढ़े तो दिल्ली के कालिंदी कुंज इलाक़े से थोड़ी ही दूरी पर एक बेहद उबड़-खाबड़ पगडंडी मिलती है जो मदनपुर खादर से सटे कंचन कुंज को जाती है। इस पगडंडी पर गुज़रते हुए हमें एक-टक निहारती नज़रें दिखीं, बांस और पॉलीथीन से ढके घर दिखे, कुछ घर ज़मीन से ऊपर प्लेटफ़ॉर्म पर बने थे तो कुछ पगडंडी नुमा सड़क से नीचे। एक ऐसा माहौल जहां देखने पर साफ़ महसूस हो रहा था कि ये वे लोग हैं जो यहां सिर्फ़ ज़िदा रहने के लिए पड़े हैं। एक अजीब सी ख़ामोशी के बीच अपनी ही दुनिया में गुम उधम मचा रहे बच्चों का शोर ही वाहिद ऐसी बात लग रही थी जो इस बात का एहसास करवा रही थी ये भी इंसानी रिहाइश ही है।
इसी रिहाइश में एक झुग्गी में दाख़िल होने पर एहसास होता है कि कुछ लोगों के लिए सिर्फ़ सांस लेना ही ज़िंदगी होता है। ये अमीना ख़ातून के बड़े बेटे सलीम का घर है जहां वो कुछ दिन के लिए आई हुई थीं। अमीना ख़ातून वो रोहिंग्या रिफ़्यूज़ी हैं जो भारत में रहती हैं और पिछले दिनों तुर्की में आए भूकंप के बाद वो तुर्की एंबेसी मदद लेकर पहुंची थी, उन्होंने जिस तरह से मदद की उसकी काफी चर्चा हो रही है।
अमीना जिनकी ख़बर वायरल हुई वो अपने बेटे के घर पर
कौन हैं अमीना ख़ातून?
अमीना ख़ातून एक रोहिंग्या रिफ़्यूज़ी हैं जो दिल्ली में रोहिंग्या बस्ती में अपने परिवार के साथ रहती हैं। साल 2012 में म्यांमार से जान बचाकर बर्मा के रास्ते वो भारत पहुंची थीं। अमीना को जब पता चला कि तुर्की में आए ज़ोरदार भूकंप के बाद इंसानी जिंदगियों को मदद की दरकार है तो उन्होंने भी मदद करने के बारे में सोचा। तुर्की से आ रही दिल दहला देने वाली तस्वीरों ने अमीना को वो मंज़र याद दिला दिया जब वो भी घर से बेघर हो गई थीं वो बताती हैं, "म्यांमार में हमारा भी अच्छा ख़ासा कारोबार था लेकिन जब हम वहां से जान बचाकर निकले थे तो हमारे भी हाथ ख़ाली थे।" उन दिनों को याद करते हुए अमीना के पास जो उनका सरमाया था-महज़ दो सोने की चूड़ियां-उनमें से उन्होंने एक चूड़ी को बेच दिया और उससे मिली रकम में से उन्होंने तुर्की के भूकंप प्रभावित लोगों के लिए कंबल, दूध, बिस्किट और जैकेट ख़रीदे और डोनेट करने के लिए तुर्की एंबेसी पहुंच गईं।
अमीना कहती हैं, "यहां मेरे पास सिर्फ़ इनता ही था अगर मैं अपने देश में होती तो कमाई का बड़ा हिस्सा देती या फिर अपनी ज़मीन बेचकर मदद करती, लेकिन यहां मेरे पास कुछ नहीं है, ले देकर मेरे पास बस मेरी दो चूड़ियां ही बची थी जिनमें से मैंने एक बेच दी और मदद करने की कोशिश की है।"
अमीना 2012 में म्यांमार के रखाइन प्रांत के एक गांव से किसी तरह से निकल कर जैसे-तैसे भारत पहुंची थीं, यहां भी जहां वे रहते हैं कई बार आग लग चुकी है (या लगाने का आरोप है), वो भारत सरकार की बहुत शुक्रगुज़ार हैं लेकिन भारत में रोहिंग्या को किस नज़र से देखा जाता है ये किसी से छुपा नहीं है।
रोहिंग्या बस्ती में दस बाई दस फीट या इससे भी छोटी झुग्गियों को देखकर एहसास होता है कि इनके लिए ज़िंदा रहना ही ज़िंदगी का सबसे बड़ा मकसद है। ना पीने के लिए साफ़ पानी और ना ही शौचालय। सड़क, बिजली तो इनके लिए किसी लग्ज़री की तरह है।
लेकिन ऐसे हालात में रहकर भी अमीना ही नहीं कुछ और औरतों ने भी तुर्की के भूकंप पीड़ितों के लिए मदद का हाथ आगे बढ़ाया है।
तुर्की एंबेसी और सीरिया एंबेसी में इस दौरान क्या माहौल है ये जानने के लिए हमने दोनों ही एंबेसी में आने वाले लोगों से बातचीत की और देखा कि लोग किस तरह से मदद कर रहे हैं।
‘ऑपरेशन दोस्त' ख़त्म हो चुका है’
रिपोर्ट्स के मुताबिक 6 फ़रवरी को तुर्की में आए विनाशकारी भूकंप में मरने वालों का आकंडा 50 हज़ार पहुंच गया है। जबकि लाखों मकान ढह गए हैं। गौरतलब है कि भारत उन मुल्क़ों में से एक है जो मदद के लिए सबसे पहले आगे आया था। भारत की तरफ से राहत और बचाव के लिए 'ऑपरेशन दोस्त' चलाया गया था, इस ऑपरेशन के पूरा होने पर भेजी गईं सभी टीमें वापस लौट चुकी हैं।
तुर्की एंबेसी
‘लेकिन भारत के लोग अब भी कर रहे हैं मदद’
भारत सरकार का 'ऑपरेशन दोस्त' भले ही ख़त्म हो चुका है लेकिन अब भी मदद का सिलसिला ख़त्म नहीं हुआ है। तुर्की की तरफ़ से मदद की अपील पर देशभर से लोग आगे आ रहे हैं और अपनी गुंजाइश के मुताबिक़ तुर्की और सीरिया के लोगों की मदद कर रहे हैं। इन लोगों में जहां कुछ लोग अकेले मदद पहुंचा रहे हैं तो कुछ दोस्तों का ग्रुप बनाकर मदद करने की कोशिश करते दिखे, कई NGOs, स्कूल भी मदद के लिए आगे आ रहे हैं। इन लोगों में दिल्ली की तमाम यूनिवर्सिटी के छात्र भी शामिल हैं। जिस वक़्त हम एंबेसी के बाहर आते-जाते लोगों को देख रहे थे उस वक़्त कुछ कुरियर के ऐसे पैकेट भी आते दिखे जो भले ही छोटे थे लेकिन इंसानियत के जज़्बे से लबरेज़ थे।
इन मददगारों में कई ऐसे चेहरे देखने को मिल रहे हैं जिन्हें देखकर एहसास होता है कि इस दुनिया को जो एक डोरी आपस में बांध रही है वो है इंसानियत का जज़्बा है। इस दौरान हमें तुर्की और सीरिया की एंबेसी के बाहर कई ऐसे लोग दिखे जो इस मुश्किल वक़्त में खड़े होकर बताना चाहते हैं कि ये दुनिया एक परिवार है।
''मुश्किल वक़्त में बस इंसानियत ही दिखती है''
तुर्की एंबेसी के बाहर हमें गुरुप्रीत सिंह मिले, कुछ कंबल लेकर पहुंचे गुरुप्रीत हमें एक वाक्या बताते हैं कि तिलक नगर वेस्ट में जिस वक़्त तुर्की के भूकंप पीड़ितों के लिए वे कंबल ख़रीद रहे थे तो उन्हें एक भिखारी मिला और जब उसे पता चला कि गुरुप्रीत भूकंप पीड़ितों के लिए कंबल ख़रीब रहे हैं तो उसने भी उस वक़्त तक मिले पैसों में से आधे पैसे गुरुप्रीत को दे दिए। वो बताते हैं, "हमारे देश में बहुत मोहब्बत है कोई ये सोचकर मदद नहीं करता कि मदद किसको मिल रही है, मुश्किल वक़्त में बस इंसानियत ही दिखती है।"
गुरुप्रीत सिंह
बेहद हंसमुख गुरुप्रीत उसी वक़्त डोनेशन का सामान लेकर पहुंचे एक और ग्रुप से बातचीत करते हुए कहते हैं, "मदद अगर मिलकर की जाए तो ज़्यादा बेहतर तरीक़े से हो सकती है''....उनके मुताबिक़, "इस काम के लिए किसी जान-पहचान की ज़रूरत नहीं हम सब एक हैं।"
इस दौरान हमें बाइक पर आए एक शख़्स मिले वो तुर्की एंबेसी पर लगे उस नोटिस को पढ़ रहे थे जिसमें मदद के लिए बैंक डीटेल्स लिखी थीं। बातचीत कर पता चला कि वो पुरानी दिल्ली से आए हैं और उन्हें पता चला है कि तुर्की में कुदरत के क़हर के बाद लोगों को मदद की ज़रूरत है, तो वो ये जानने के लिए पहुंचे थे कि किस तरह से मदद पहुंचाई जा सकती है।
चाणक्यपुरी में तुर्की एंबेसी के अंदर पूरा स्टाफ जल्द से जल्द सामान को पैक कर ट्रक रवाना करने में लगा था, बातचीत के दौरान पता चला कि जिस तरह से भारत के लोगों की तरफ से सहयोग मिल रहा है वे उनके लिए बहुत ही भावुक कर देने वाला है।
मदद के लिए झारखंड से दिल्ली पहुंचे
जिस दौरान हम एंबेसी के बाहर बैठे थे, वहां एक ऑटो रुका जिसमें से तीन लोग निकले, ये लोग एंबेसी की तरफ बढ़े और कुछ देर बाद एंबेसी से जुड़ी एक महिला ने आकर उनसे बातचीत की। वे बड़ी जल्दी में वहां से निकल रहे थे लेकिन कुछ देर के लिए हमसे बातचीत हुई तो बताने लगे कि वो लोग सिर्फ़ तुर्की और सीरिया में भूकंप पीड़ितों की मदद के मकसद से झारखंड के जमशेदपुर से दिल्ली पहुंचे हैं। हालांकि वे तीनों एक संस्था से जुड़े थे और अपनी संस्था की तरफ़ से यहां मदद पहुंचाने आए थे। हमसे बातचीत में उन्होंने कहा, "ये एक इंसानी जज़्बा है, किसी भी इंसान को दर्द में देखकर आगे आना इंसानियत है, हो सकता है हम उनके क़रीब नहीं हैं, लेकिन दर्द तो समझ में आ रहा है। उनकी तकलीफ़ तो महसूस की जा सकती है, उसी दर्द को समझते हुए हम लोग यहां तक पहुंचे हैं, हमारी कोशिश है कि हम मदद के लिए जहां तक पहुंच सकते हैं वहां तक पहुंच कर तुर्की और सीरिया की मदद करें।"
तुर्की और सीरिया की एंबेसी पर झारखंड से दिल्ली पहुंचे लोग
ज़रूरी सामान की लिस्ट लेकर ये लोग मार्केट पहुंचे और दी गई लिस्ट के मुताबिक़ सामान ख़रीद कर तुर्की और सीरिया की एंबेसी में डोनेट कर अगले दिन झारखंड की ट्रेन पकड़ने की तैयारी में लग गए। ये लोग वापस लौटकर झारखंड चले जाएंगे और अपने पीछे एक ख़ूबसूरत संदेश छोड़ जाएंगे कि तुर्की और सीरिया के इस मुश्किल वक़्त में भारत के नागरिक भी उनके साथ खड़े हैं।
शाहीन बाग़ की NGO ने बढ़ाया मदद का हाथ
मदद के लिए आगे आए लोगों की तलाश हमें शाहीन बाग़ पहुंचा देती है जहां हमारी मुलाक़ात आसिफ़ मुज्तबा से हुई, देर रात जिस वक़्त हम उनके ऑफ़िस पहुंचे तो बहुत ही गहमागहमी का माहौल था।ऑफ़िस में चारों तरफ़ स्लिपिंग बैग और टेंट रखे हुए थे, आसिफ़ ख़ुद भी बहुत ही गर्मजोशी के साथ सामान पैक करने में लगे थे। कई टीमों में बंटकर यहां काम हो रहा था कोई स्लिपिंग बैग्स को लपेट रहा था तो कोई उनपर टेप लगा रहा था, तो कोई उनपर स्टिकर लगाकर बकायदा उसमें सामान की संख्या लिख रहा था साथ ही इसपर एक स्टिकर लगाया जा रहा था जिसपर लिखा था-‘Prayers from Delhi to Ankara’
बिना रुके लगातार पैकिंग में लगे यहां लोग फरवरी की रातों में भी पसीने में नहाए हुए थे लेकिन फिर भी चेहरे पर मुस्कुराहट के साथ सामान को जल्द से जल्द तुर्की एंबेसी रवाना करना चाहते थे।
आसिफ़ मुज्तबा अपनी टीम के साथ
मदद में लगे आसिफ़ मुज्तबा कोई नया नाम नहीं हैं। दिल्ली के शाहीन बाग़ में हुए CAA-NRC के विरोध प्रदर्शन में इन्होने बढ़-चढ़कर हिस्सा लिया था। तुर्की में आए भूकंप पीड़ितों की मदद के लिए भी इनका NGO आगे आया और अबतक वो तीन बार राहत का सामान भिजवा चुके हैं जिसमें बच्चों के खाने-पीने की चीजें, स्लिपिंग बैग, जैकेट और टेंट शामिल हैं। आसिफ़ मुज्तबा के NGO के साथ मिलकर कुछ और NGO भी इस मदद में हाथ बंटा रहे हैं।
आसिफ़ मुज्तबा अपने ऑफिस में
''दिल्ली दंगे में प्रभावित बच्चों को समर्पित है ये मदद''
हमसे बात करते हुए आसिफ़ बताते हैं, "जैसे ही तुर्की में आए भूकंप के बारे में पता चला, मैंने तुरंत दिल्ली स्थित तुर्की एंबेसी को ई-मेल कर मदद की पेशकश की थी जिसके बाद हमने दो तरह से काम किया, पहले जो भी ज़रूरत का सामान था जैसे जैकेट, बच्चों के खाने-पीने या फिर और भी दूसरी ज़रूरत के सामान वो हमने जमा किया, पैक किया और एंबेसी में पहुंचा आए। इसे आप ऐसे देख सकते हैं कि हम, भारत के लोगों की तरफ़ से आई मदद को तुर्की के लोगों तक पहुंचाने का एक ज़रिया बने।" वो अपने NGO की बेवसाइट खोलकर तीन साल पहले हुए दंगे के उन प्रभावित बच्चों की तस्वीर दिखाते हैं जिनके अपनों को मौत के घाट उतार दिया गया था वो कहते हैं कि, "हमारा ये रिलीफ़ का काम इन्हीं मासूम बच्चों को समर्पित है।"
आसिफ़ की टीम तुर्की एंबेसी पर
वो देर रात तक ऑफ़िस में अपनी पूरी टीम के साथ पैकिंग करने में लगे रहे और फिर एक दिन बाद उनकी टीम तुर्की एंबेसी पहुंची जहां हमने देखा कि उनके NGO के तीन छोटे ट्रक मदद का सामान लेकर पहुंचे थे जिनमें टेंट, स्लिपिंग बैग और जैकेट थीं।
'तुर्की और सीरिया एंबेसी की एक अलग तस्वीर'
तुर्की एंबेसी में लगातार लोगों के आने का सिलसिला जारी था लेकिन इस बीच हम सीरिया की एंबेसी वसंत विहार पहुंचे, ये एंबेसी एक बंगले में है जिसके बाहर का नज़ारा देखकर बेहद अफसोस हो रहा था। मदद के लिए पहुंचा बहुत सा सामान यूं ही पड़ा था। तुर्की और सीरिया दोनों ही जगह भूकंप आया था हालांकि ज़्यादा नुक़सान तुर्की में बताया जा रहा है लेकिन सीरिया के हालात इस लिहाज़ से बुरे बताए जा रहे हैं कि क्योंकि वहां चल रहे राजनैतिक घमासान और अमेरिका की तरफ़ से लगाई गई बंदिशों की वजह से राहत सामान पहुंचने और पहुंचाने में दिक़्क़त हो रही है। हालांकि मीडिया रिपोर्ट्स के मुताबिक़ अब राहत का सामान पहुंचाने के लिए रास्ते बनाने की कोशिश की जा रही है।
बात भारत से राहत पहुंचाने की कोशिश की करें तो जितने व्यवस्थित तरीक़े से तुर्की की एंबेसी में काम होता दिखाई देता है उतनी ही 'अव्यवस्था' सीरिया की एंबेसी में दिखी और इसकी सबसे बड़ी वजह थी सीरिया की एंबेसी में इतने लोग ही नहीं दिखे कि इस विपदा की घटी में इस 'एक्ट्रा' काम को संभाल सकें। वहां मदद लेकर पहुंचे कुछ लोगों से बात हुई तो पता चला कि वो यहां मदद का सामान देने पहुंचे थे लेकिन जब देखा कि एक महीने में ख़त्म होने वाले आटे की थैली को कई दिन यहीं गुज़र गए तो वो वक़्त पर कैसे भूकंप पीड़ितों तक पहुंच पाएगा इसलिए उन्होंने ख़ुद ही एंबेसी से इजाज़त लेकर कुछ और लोगों को मदद के लिए बुलाया और अब वे ख़ुद ही एंबेसी में बिखरे सामान को तरतीब से पैक करवाने में मदद दे रहे हैं।
मदद के लिए आगे आए छात्र
यहां (सीरियन एंबेसी) हमें छात्रों का एक ग्रुप भी मिला जो इंटरनैशल लेवल पर छात्रों के लिए काम करता है। इन छात्रों में दिल्ली यूनिवर्सिटी, जवाहरलाल नेहरू, DTU (Delhi Technological University), NLU (National Law University, Delhi) के छात्र शामिल थे। इनमें से एक छात्रा ने कहा कि, "हमारा मोटो (Motto) है-वसुधैव कुटुम्बकम, इसलिए हम यहां डोनेशन पहुंचाने के लिए आए हैं। सीरिया में आए भूकंप से प्रभावित हुए भाई-बहनों की मदद के लिए के लिए, हम जूते, जैकेट जैसी चीजें लेकर आए हैं, हमारा कल्चर बताता है कि ज़रूरत के वक़्त हम सबको एक दूसरे की मदद करनी चाहिए।"
इसी ग्रुप के एक बांग्लादेशी छात्र जो NLU में पढ़ाई कर रहे हैं वो कहते हैं, "सीरिया में जो कुछ भी हुआ है वो ऐसा है मानो हमारे परिवार के साथ ही हुआ हो, तो इस वक़्त हम किसी ग़ैर नहीं बल्कि अपने ही परिवार के लिए खड़े हुए हैं।"
''इंसानियत का तकाज़ा है''
यहां हमें जामिया नगर से आए दोस्तों का एक ग्रुप भी मिला जो ज़रूरत के तमाम सामान लेकर आए थे। वे हमें बताते हैं कि, "हम कुछ दोस्त अपनी गुंजाइश के मुताबिक मिलकर सामान लेकर आए हैं। इस वक़्त इंसानियत का तकाज़ा है, इसलिए हम मदद के लिए आगे आए हैं, ये हमारी छोटी सी मदद है, वैसे मुश्किल वक़्त में मदद के लिए बढ़ाया गया हाथ बहुत बड़ा संदेश देता है तो इस वक़्त सभी को आगे आने की ज़रूरत है।"
यहां कई लोग ऐसे भी मिले जो बहुत ही ख़ामोशी से अपना काम कर रहे थे वे नहीं चाहते थे कि वे जो मदद कर रहे हैं उसका ज़िक्र किया जा जाए। उनके मुताबिक़ ये इंसानियत का वो काम है जिसे किसी को बता कर नहीं किया जाना चाहिए। उनके मुताबिक़ कुदरती आफ़त के वक़्त तो सभी को आगे आना चाहिए और एक दूसरे की मदद करनी चाहिए।
इस स्टोरी को करने के दौरान उन तमाम लोगों से मुलाक़ात हुई जो इस मुश्किल वक़्त में तुर्की और सीरिया के साथ खड़े हैं और सभी का यही कहना था कि कुदरत का कहर जगह और देश देखकर नहीं टूटता इसलिए ऐसे मौक़ों पर इंसानियत का तकाज़ा है कि हर किसी को आगे आना चाहिए। लेकिन गुरुप्रीत सिंह को मिले भिखारी के योगदान की कहानी ज़ेहन में बैठ गई। ग़म के ख़ज़ाने को ढोने वाले इन लोगों के लिए तुर्की के लोगों का ग़म इस वक़्त उनके हालात से ज़्यादा ग़मगीन कर देने वाला है।
लोगों की ये मदद देखकर एहसास होता है कि सरहदों में बंटी दुनिया शायद इंसानियत के इसी धागे से बंधी है जो बेहद ख़ास और ख़ूबसूरत है।
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