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दो फ़ैसले, एक सज़ा और एक पैरोल 

एक ही सप्ताह में आये यह दो तरह के एकदम परस्पर विरोधी फ़ैसले बहुत कुछ कहते हैं। इन फैसलों से निकले संदेशे अनेकानेक अंदेशों से भरे हैं। 
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फ़ोटो साभार: पीटीआई

गुजरा सप्ताह भारत की न्यायिक प्रणाली के लिए ख़ास रहा।  छुट्टी के दिन सुनवाई करते हुए सुप्रीम कोर्ट के जस्टिस एम आर शाह ने एक प्रस्थापना  दी  कि ;  "दिमाग ही सारे झगड़े की जड़ है, इसलिए भले हाईकोर्ट द्वारा रिहा किया गया अभियुक्त देह से 90% विकलांग हो, उसका दिमाग काम कर रहा है इसलिए उसे जेल में ही रखना चाहिए। "यह तत्वज्ञान उनकी और जस्टिस बेला एम त्रिवेदी की खंडपीठ ने एक दिन पहले बॉम्बे हाईकोर्ट की नागपुर खंडपीठ द्वारा निर्दोष करार दिए गए दिल्ली यूनिवर्सिटी के प्रोफ़ेसर जी एन साईंबाबा के मामले में महाराष्ट्र की भाजपा सरकार की अपील पर सुनवाई के दौरान दिया।  

प्रो साईंबाबा कथित आपराधिक विचार रखने और सत्ता गिरोह की नई वर्तनी के हिसाब से अर्बन नक्सल होने के जुर्म में 2014 से ही जेल में थे। महाराष्ट्र के गढ़चिरौली जिले की एक सत्र अदालत ने उन्हें और 6 अन्य को दोषी करार दिया था। शुक्रवार 14 अक्टूबर को जस्टिस राहुल देव और अनिल पानसरे की बेंच ने प्रोफेसर को रिहा करने का आदेश जारी कर दिया, 15 अक्टूबर छुट्टी के दिन सुप्रीम कोर्ट की इस विशेष रूप से गठित खंडपीठ ने उसे रोक दिया।  

हालांकि महाराष्ट्र सरकार रिहा किये जाने का आदेश जारी होते ही आननफानन में  शुक्रवार की शाम को ही सुप्रीम कोर्ट में पहुँच गयी थी और भावी चीफ जस्टिस चंद्रचूड़ की अदालत में इस आदेश को स्थगित करने की याचिका पेश कर दी थी।  लेकिन जस्टिस चंद्रचूड़ ने इसे अत्यावश्यक मानने से इंकार करते हुए सुनने से मना कर दिया और कहा कि इसे दो दिन शनिवार इतवार की छुट्टियों के बाद सोमवार को भी प्रस्तुत किया जा सकता है । बहरहाल सॉलिसिटर जनरल तुषार मेहता के ज्यादा अड़ने पर चंद्रचूड़ ने मामला वर्तमान चीफ जस्टिस के विवेक पर छोड़ दिया और उन्होंने छुट्टी के दिन शनिवार को विशेष सुनवाई करने के लिए एक आपात बेंच गठित कर दी। दिमाग की सक्रियता को आतंकवादी कार्यवाहियों का मुख्य स्रोत बताने वाली ऊपर लिखी टिप्पणी जस्टिस एम आर शाह ने उस वक़्त की जब उनके ध्यान में लाया गया  कि प्रोफेसर साईंबाबा तो चल फिर भी नहीं सकते, उनका शरीर 90 फीसद से ज्यादा निष्क्रिय है, उनका कोई नया पुराना आपराधिक रिकॉर्ड भी नहीं है, इसलिए सुप्रीम कोर्ट में सुनवाई पूरी होने तक घर में ही नजरबन्द रखा जा सकता है। 

मामला यहीं तक नहीं रुका,  जो सर्वोच्च खंडपीठ बॉम्बे हाईकोर्ट के रिहाई के फैसले पर सुनवाई असामान्य और अत्यावश्यक मान रही थी, उसी ने उस रिहाई के आदेश को रोकने के बाद अगली सुनवाई की तारीख तीन हफ्ते बाद की, 8 दिसंबर निर्धारित की है।  एक और फैसला दिल्ली हाईकोर्ट का है जिसे 9 सितम्बर को सुरक्षित कर लिया था मगर सुनाया 18 अक्टूबर को और  जेएनयू के पूर्व छात्र उमर खालिद की जमानत याचिका एक बार फिर निरस्त कर दी गयी है क्योंकि पुलिस के अनुसार उसने दिल्ली दंगों से पहले "कुछ मीटिंगों में भाग लिया था।"  यह बात अलग है कि दंगा कराने वाले खुद यह दावा करते हुए घूम रहे हैं कि दंगा उन्होंने किया था। 

भारत का संविधान सुनिश्चित करता है कि नागरिक स्वतन्त्रता  सिर्फ भारत के नागरिकों की ही नहीं भारत की धरती पर रहने वाले विदेशी नागरिकों सहित सभी मनुष्यों के लिए है। जब तक दोष सिद्ध नहीं हो जाता तब तक अभियुक्त को निर्दोष मानने की अवधारणा पर टिकी भारत की न्याय व्यवस्था के इस सर्वोच्च संवैधानिक संस्थान की यह असाधारण टिप्पणी पिछले सप्ताह न्यायपालिका के गलियारों से निकली अकेली शीतलहर नहीं हैं। इससे ठीक उलट साबित प्रमाणित अपराधी के दोषी पाए जाने पर उसे "सजा सुनाये जाने" का भी है। दादरी के अख़लाक़ हत्याकांड के मामले में  योगी के उत्तरप्रदेश के ग्रेटर नोएडा के कोर्ट में करीब 7 साल से बिसाहड़ा कांड मामले में बीजेपी के पूर्व विधायक संगीत सोम पर मुकदमा  चल रहा था। वे उस वक्त मेरठ के सरधना से बीजेपी के विधायक हुआ करते थे। 28 सितंबर 2015 की रात गोकशी का आरोप लगाकर भीड़ ने अखलाक की हत्या कर दी गयी थी। अखलाक के बेटे दानिश को भी भीड़ ने पीट पीटकर अधमरा कर दिया था। इस घटना के बाद बीजेपी के पूर्व विधायक संगीत सोम ने ग्रेटर नोएडा के दादरी के बिसाहड़ा गांव में जाकर धारा-144 का उल्लंघन किया था और दंगा करने के लिए भीड़ को भड़काया था। इस आरोप के सत्य सिद्ध पाए जाने पर अपर मुख्य न्यायिक मजिस्ट्रेट-2 की अदालत ने सजा सुनाई है। इसमें संगीत सोम को दोषी तो ठहराया गया है मगर सजा सिर्फ 800 रुपये के जुर्माने की दी गयी है। 

होने को तो गुजरात के तुलसी राम प्रजापति और सोहराबुद्दीन शेख और उसकी पत्नी कौसर बी के फर्जी एनकाउंटर से लेकर इनकी सुनवाई करने वाले जस्टिस लाया की सन्देहास्पद मौत के बारे में सुप्रीम कोर्ट के फैसले,  एहसान जाफरी मामले को खारिज करते में मानवाधिकार कार्यकर्ता तीस्ता सीतलवाड़ और पूर्व डीजीपी श्रीकुमार के मामले में सुप्रीमकोर्ट के "निर्देश" , गुजरात दंगों की सुनवाई के हाल से लेकर बिलकिस बानो प्रकरण के दोष साबित अपराधियों की फूल, माला, तिलक और गाजे बाजे के साथ रिहाई जैसे अनगिनत मामले हैं जो चिंता पैदा करते हैं।  न्यायप्रणाली में जनता के विश्वास को प्रभावित करते हैं।  मगर एक ही सप्ताह में आये यह दो तरह के एकदम परस्पर विरोधी फैसले बहुत कुछ कहते हैं। इन फैसलों से निकले संदेशे अनेकानेक अंदेशों से भरे हैं।  थोड़ा रूककर सोचने के लिए विवश करते हैं।  

सुप्रीम कोर्ट के जानेमाने जस्टिस वी आर कृष्ण अय्यर ने कहा था कि "यह भारत का सर्वोच्च न्यायालय - सुप्रीम कोर्ट ऑफ़ इंडिया - नहीं है, यह सभी भारतीयों का सर्वोच्च न्यायालय - सुप्रीम कोर्ट ऑफ़ इंडियन्स - है। " इन दोनों फैसलों और एक "सजा" ने उनके इस कथन पर सवालिया निशान खड़े कर दिए हैं। न्याय सब के लिए बराबर है की धारणा पर प्रश्नचिन्ह खड़ा कर दिया है।  यह सचमुच में गंभीर बात है।  इस पर चर्चा होनी चाहिए, होगी भी - यह चर्चा जरूरी इसलिए भी है कि इसमें यदि कोई सुधार हो सकता है तो वह उन भारतीयों की पहलकदमी पर हो सकता है जिनका यह न्यायालय है और जिनके पास अब जो थोड़ा बहुत शेष है तो यह न्यायप्रणाली ही है। 

इसी बीच हत्याओं सहित अन्य जघन्य अपराधों में 20 साल के आजीवन कारावास की सजा पाए गुरमीत राम रहीम को एक बार फिर पैरोल मिल गयी है।  इस बाबा का यह पहला पैरोल नहीं है।  वर्ष 2021 में यह तीन बार और 2022 में फरवरी और जून में दो बार लम्बे लम्बे पैरोल पर छूट चुका है। इस बार यह पैरोल 40 दिन की है और इन चालीस दिनों में यह बाबा हवन  नहीं करेगा - वही करेगा जिसके लिए रिहा किया गया है ; भाजपा के लिए चुनाव प्रचार और अपने डेरे के मतांधों का उनके लिए ध्रुवीकरण। हरियाणा के पंचायत चुनावों और हिमाचल प्रदेश के विधानसभा चुनावों की घोषणा के बाद इन्हे पैरोल मिलने की आशंका थी भी। मोदी और खट्टर की और बाकी भाजपा सरकारे आशाओं और उम्मीदों पर भले कभी खरी न उतरें आशंकाओं पर हमेशा खरी उतरती हैं।  यह वही सरकार है जिसने फादर स्टेन  स्वामी को अत्यंत गंभीर बीमारी में भी पैरोल नहीं दिया था, वे जेल में ही मर गए।  वरवरा राव जैसे कवि को पैरोल नहीं दिया - मौजूदा प्रकरण वाले प्रो जी  एन साईंबाबा की माँ के मरने पर भी उन्हें पैरोल नहीं दिया। नताशा नरवाल को मृत्यशय्या पर पहुंचे उनके पिता के अंतिम दर्शन करने के लिए भी छूट नहीं दी। 

यह वह समय है जब तानाशाही अपने बघनखे खोलकर न्याय, संविधान और लोकतंत्र की ताजी हवा के सारे रास्ते बंद करने पर आमादा है।  जो घोषित इमरजेंसी में भी नहीं हुआ उसे बिना इमरजेंसी का ऐलान किये कर रही है।  मगर हर बार तानाशाह इतनी सी बात भूल जाते हैं कि अंततः यह जनता होती है जो आख़िरी इंसाफ करती है और अपना फैसला सुनाती है। 

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