यूपीः मोदी को घेरने बनारस आ रहे नीतीश, बीजेपी के गढ़ में 24 दिसंबर को फूंकेंगे चुनावी बिगुल
बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार ने प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को उनके गढ़ बनारस में घेरने की रणनीति बनाई है। इसकी शुरुआत आगामी 24 दिसंबर 2023 से होगी। इसी दिन नीतीश चुनावी बिगुल फूंकेंगे। मुद्दा होगा गुजरात मॉडल बनाम बिहार मॉडल। यूपी में सियासी जमीन बनाने के लिए जदयू ने एक बड़ा खाका खींचा है। राजनीतिक विश्लेषकों का मानना है कि नीतीश कुमार फूलपुर अथवा मिर्जापुर से ताल ठोंक सकते हैं। बनारस भी उनके निशाने पर है, क्योंकि पीएम नरेंद्र मोदी, कुर्मी-पटेल वोटरों की बदौलत ही चुनाव जीतते आए हैं। बनारस संसदीय क्षेत्र में आधी आबादी पटेल और मुसलमानों की है।
यूपी की राजनीति में अपनी मजबूत पैठ बनाने के लिए नीतीश कुमार ने अबकी बनारस से चुनावी बिगुल फूंकने का ऐलान किया है। माना जाता है कि बनारस के परमिट के बगैर न कोई धर्म चलता है, न सियासत में किसी की धाक जमती है। नीतीश भी सियासी जमीन तलाशने बनारस आ रहे हैं। 24 दिसंबर 2023 को बनारस के रोहनिया इलाके के जगतपुर डिग्री कॉलेज के प्रांगण में उनकी चुनावी रैली होगी। पूर्वांचल के युवाओं में इसलिए भी नीतीश कुमार का क्रेज ज्यादा है, क्योंकि उन्होंने हाल के दिनों में यूपी के हजारों नौजवानों को बिहार में नौकरियां दी है। बिहार में जातीय जनगणना और सियासत में पिछड़ों की भागीदारी बढ़ाने के लिए भी उन्होंने एक बड़ा संदेश भी दिया है। बनारस का सेवापुरी और रोहनिया विधानसभा क्षेत्र पटेल (पटेल) बहुल है। कैंट विधानसभा क्षेत्र में इस समुदाय का खासा बर्चस्व है। वोट बैंक के लिहाज से रोहनिया जदयू के लिए काफी अहम है।
पांच राज्यों में हुए हालिया चुनाव के बाद बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार की सभा के लिए तैयारियां शुरू हो गई हैं। वाराणसी प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी का निर्वाचन क्षेत्र है। साल 2014 और 2019 के लोकसभा चुनाव में उन्होंने बनारस सीट पर बड़ी जीत दर्ज की थी। उनके रणक्षेत्र में नीतीश के हुंकार भरने से सियासी हलकों में एक बड़ा संदेश गया है। नीतीश की रणनीति कई बातों को हवा दे रही है। उनकी रैली न सिर्फ कांग्रेस और सपा, बल्कि इंडिया गठबंधन के दूसरे दलों के लिए किसी अल्टीमेटम से कम नहीं है। बिहार में आरजेडी और जेडीयू का गठबंधन भी इसी शर्त पर हुआ था कि नीतीश के बाद तेजस्वी अगले मुख्यमंत्री होंगे। बिहार की सियासत में जब तक नीतीश है तब तक तेजस्वी के मुख्यमंत्री बनने की कोई उम्मीद नहीं है। आरजेडी चाहती है कि वह बिहार छोड़कर केंद्र की राजनीति में सक्रिय हों।
जदयू नेताओं का बनारस में डेरा
यूपी की सियासत में दमखम दिखाने आ रहे नीतीश कुमार की जनसभा को सफल बनाने की जिम्मेदारी उनके सबसे करीबी नेता एवं बिहार के कैबिनेट मंत्री श्रवण कुमार को सौंपी गई है। बनारस में उन्होंने अभी से डेरा जमा लिया है। उनके साथ जदयू के कई कद्दावर नेता भी बनारस आ गए हैं। रैली की तैयारियां शुरू हो गई हैं। पटेल और अन्य पिछड़ी जातियों के बाहुल्य वाले इलाकों में बिहार की तरह जातीय जनगणना और युवाओं को नौकरी के वादे किए जा रहे हैं। बिहार बनाम गुजरात मॉडल का प्रचार शुरू हो गया है।
यूपी की राजनीति में पांव जमाने के लिए नीतीश कुमार ने पिछले महीने ही मजबूत किलेबंदी करनी शुरू कर दी थी। अक्टूबर 2023 के आखरी हफ्ते में जदयू के साथ छोटे दलों के सौ से अधिक प्रतिनिधियों के बैठक में यूपी की राजनीति का खाका खींचा। यूपी के कई राजनीतिक दल अपनी पार्टी का जदयू में विलय चाहते हैं। पटना की इस बैठक में शामिल होने मौर्य-कुशवाहा समाज का प्रतिनिधित्व करने वाले जन अधिकार पार्टी के राष्ट्रीय अध्यक्ष बाबू सिंह कुशवाहा भी पहुंचे थे। नीतीश कुमार कुशवाहा को कोई बड़ी जिम्मेदारी सौंपने के लिए राजी हैं, लेकिन वह चाहते हैं कि बाबू सिंह अपनी जन अधिकार पार्टी का जदयू में विलय कर दें, जिसके लिए फिलहाल वह राजी नहीं हैं।
राजनीति के गलियारों में चर्चा है कि बाबू सिंह कुशवाहा बीजेपी में भी अपना भविष्य टटोलते नजर आ रहे हैं। वह अपनी पत्नी शिवकन्या कुशवाहा के लिए गाजीपुर सीट चाहते हैं। टिकट चाहे बीजेपी दे अथवा इंडिया गठबंधन। बहरहाल, पटना में नीतीश कुमार द्वारा बुलाई गई बैठक में बाबू सिंह कुशवाहा के अलावा अपना दल (बलिहारी) के राष्ट्रीय अध्यक्ष धनराज पटेल, जदयू के चंद्रप्रताप पटेल, महेंद्र राजभर, डॉ श्रीराम सिंह चौहान और जगन्नाथ सिंह चौहान आदि नेता शामिल हुए। किसान पार्टी के राष्ट्रीय अध्यक्ष बीएल वर्मा ने तो बैठक में ही जदयू की सदस्यता ग्रहण भी कर ली थी। इस बैठक में जदयू के राष्ट्रीय अध्यक्ष राजीव रंजन सिंह उर्फ ललन सिंह, वित्त मंत्री विजय चौधरी समेत पार्टी के कई कद्दावर नेता मौजूद थे।
गुजरात मॉडल बनाम बिहार मॉडल
उत्तर प्रदेश में जदयू प्रभारी एवं ग्रामीण विकास मंत्री श्रवण कुमार से ‘न्यूजक्लिक’ ने बात की तो उन्होंने अपना एजेंडा साफ किया। उन्होंने कहा, "उत्तर प्रदेश में कहने को डबल इंजन की सरकार है और गुजरात मॉडल भी है, लेकिन युवाओं के पास न तो नौकरियां हैं और न ही उन्हें भविष्य की कोई डगर दिख रही है। गुजरात मॉडल सिर्फ छलावा है और जुमला है, जबकि बिहार मॉडल वंचितों, शोषितों और गरीबों की आर्थिक बदहाली को दूर करने का सफल फॉर्मूला है। बिहार सरकार ने पूर्वांचल के हजारों युवाओं को नौकरियां दी है। यह बिहार मॉडल का करिश्मा है। डबल इंजन वाली सरकार तो सिर्फ चंद पूंजीपतियों के हितों के लिए काम कर रही है। जो सरकार रोज़ी-रोज़गार नहीं दे सकती, वह किस मुंह से गुजरात मॉडल की बात करती है?"
इंडिया गठबंधन की मजबूती का दावा करते हुए श्रवण कुमार कहते हैं, "कांग्रेस भले ही तीन राज्यों में चुनाव हार गई है, लेकिन इसका मतलब यह नहीं है कि वह बीजेपी को पटखनी देने की स्थिति में नहीं है। एमपी, छत्तीसगढ़ और राजस्थान ऐसे राज्य हैं जो बिना देर किए बाजी पलट दिया करते हैं। तीनों राज्यों में कांग्रेस से चूक हुई, जिससे वह चुनाव हार गई। लोकसभा चुनाव में इंडिया गठबंधन में शामिल दल मिलकर बीजेपी को आसानी से हरा देंगे। देश को यूपी ही प्रधानमंत्री देता रहा रहा है। दस प्रधानमंत्री इसी राज्य से चुने गए हैं। चुनावी नजरिये से बनारस से चुनावी शंखनाद फूंका जाना जरूरी है, क्योंकि यहां से निकलने वाली आवाज पूरी दुनिया में आसानी से पहुंच जाती है। विपक्ष अबकी बनारस में ही मोदी को घेरेगा। इस मुहिम का नेतृत्व नीतीश करेंगे। इसी महीने चुनावी जंग की शुरुआत हो जाएगी।"
"अभी तक यह रैली इंडिया गठबंधन की तरफ से नहीं, बल्कि सिर्फ जेडीयू की तरफ से प्रस्तावित है। इस रैली के जरिये संगठन को मजबूत किया जाएगा। जदयू के कार्यकर्ता काफी दिनों से कई सीटों पर काम कर रहे हैं। 24 दिसंबर को नीतीश कुमार की रैली होगी। इस रैली में आजमगढ़, प्रतापगढ़, प्रयागराज, फूलपुर, अंबेडकर नगर, मिर्जापुर के कार्यकर्ता भी आएंगे। इसके बाद वह 21 जनवरी को झारखंड के हजारीबाग स्थित रामगढ़ में दूसरी चुनावी रैली करेंगे।"
जदयू के यूपी प्रभारी श्रवण कुमार कहते हैं, "हम बिहार का ऐसा मॉडल लेकर यूपी आए हैं जिसमें रोटी-कपड़ा और मकान ही नहीं, युवाओं को नौकरियों की गारंटी होगी। यूपी ने देश को दस प्रधानमंत्री दिए, लेकिन इस राज्य की एक बड़ी आबादी को आज तक साफ पानी नसीब नहीं हो सका है। बिहार जैसा काम किसी राज्य में नहीं हो रहा है। बीजेपी के एजेंडे में जाति-धर्म और पूंजीपति हैं। हमारा एजेंडा भाईचारा-प्रेम है। बीजेपी जब जब कर्नाटक में हारी तो पार्टी के लोग खामोश थे और तीन राज्यों में जीत गए हैं तो वो चहकने लगे हैं। इनकी खुशफहमी ज्यादा दिन रहने वाली नहीं हैं।"
सियासी हलकों में बढ़ी हलचल
बिहार सरकार के काबीना मंत्री एवं जदयू के यूपी प्रभारी श्रवण कुमार के ताजा-तरीन बयान से सियासी हलकों में हलचल बढ़ गई है। विपक्ष को एकजुट करने का दायित्व खुद नीतीश कुमार उठा रहे हैं। वह पटना में यूपी के कई छोटे दलों की बैठकें कर चुके हैं। इसे केंद्रीय राजनीति में उनकी महत्वाकांक्षा से जोड़कर देखा जा रहा है। इंडिया गठबंधन की छतरी के नीचे विपक्ष को खड़ा करने की मुहिम चला रहे नीतीश कई मर्तबा कह चुके हैं कि वह पीएम पद के दावेदार नहीं हैं। लेकिन जदयू नेताओं की सक्रियता सियासी हलकों में बड़ा संदेश दे रही है। जदयू के नेताओं को यह बात समझ में आ गई है कि दिल्ली की सत्ता की बागडोर तभी नीतीश कुमार के हाथ में आ सकती है जब वह बिहार से बाहर निकलेगी।
इंडिया गठबंधन की नींव रखने के लिए पटना से दिल्ली और कोलकाता से चेन्नई तक जाने वाले बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार इस बात से वाकिफ हैं कि दिल्ली की सत्ता यूपी से होकर जाती है। बीजेपी ने साल 2014 में जब नरेंद्र मोदी को पीएम पद का दावेदार बनाया था तब उनके लिए बनारस सीट चुनी गई थी। यह सीट बीजेपी के लिए सबसे आसान मानी जाती रही है। जदयू के सभी नेता नीतीश को फूलपुर से चुनाव लड़ने की बात कह रहे हैं, लेकिन सियासी विश्लेषकों का मानना है कि फूलपुर के बजाय मिर्जापुर सीट उनके लिए सबसे आसान रहेगी।
मिर्जापुर के वरिष्ठ पत्रकार राजीव ओझा कहते है, "उत्तर प्रदेश के पटेल वोटरों में दो बार की सांसद एवं केंद्रीय मंत्री अनुप्रिया पटेल की मजबूत पकड़ रही है। अधिकतर पटेल मतदाता अनुप्रिया की पार्टी अपना दल (एस) और बीजेपी के साथ रहे हैं। मिर्जापुर की बेहद लोकप्रिय कलेक्टर दिव्या मित्तल के तबादले के बाद से जिले के लोग अनुप्रिया पटेल और उनके पति आशीष पटेल से गैर तो गैर अपने भी खफा हो गए हैं। पटेल समुदाय के जो लोग इनके साथ हैं, उनके पास अभी तक कोई दूसरा मजबूत राजनीतिक विकल्प नहीं था।
नीतीश कुमार अगर पटेल बहुल मिर्जापुर से चुनावी मैदान में उतरते हैं तो अनुप्रिया की समूची सियासत एक झटके में धराशायी हो जाएगी। वह पूर्वांचल की सियासत में आसानी से एक बड़ी लकीर खींच सकते हैं। दूसरी बात, पीएम नरेंद्र मोदी के गढ़ बनारस की दो विधानसभा सीटें सेवापुरी व रोहनिया मिर्जापुर से सटी हैं। दोनों इलाकों में पटेल समुदाय के वोटरों की बाहुल्यता है। इसका असर सीधे तौर पर मोदी के चुनाव पर पड़ेगा।"
"बनारस सीट पर इंडिया गठबंधन से पटेल समुदाय का कोई कद्दावर नेता मैदान में उतरता है तो बीजेपी के पसीने छूट सकते हैं। इसकी बड़ी वजह यह है कि पटेल-पटेल, मुसलमान और यादव मतदाताओं का थोक वोट इंडिया गठबंधन प्रत्याशी के झोली में आसानी से जा सकता है। नीतीश अगर मिर्जापुर से चुनाव मैदान में उतरते हैं तो इससे यूपी और बिहार, दोनों ही राज्यों में विपक्ष को इसका लाभ मिल सकता है। बिहार में जातीय जनगणना से लहालोट पिछड़े तबके के वोटर भी नीतीश के साथ खड़ा हो सकते हैं।"
नीतीश के लिए फूलपुर सबसे सेफ
पत्रकार राजीव यह भी कहते हैं, "यूपी में फूलपुर इकलौती ऐसी सीट है जहां नीतीश कुमार के मैदान में उतरने पर मुकाबला एकतरफा हो सकता है। फूलपुर में करीब 20 लाख वोटर हैं, जिनमें सर्वाधिक पटेल और उसके बाद मुसलमान हैं। आबादी में तीसरे नंबर पर यादव हैं। फूलपुर का इतिहास रहा है कि पटेल वोटरों ने जिसका समर्थन कर दिया, उसके जीतने की संभावनाएं बढ़ जाती हैं। इस सीट पर अब तक नौ मर्तबा पटेल समुदाय के ही सांसद चुने गए हैं। यादव और मुस्लिम मतदाता भी फूलपुर सीट का सांसद चुनने में अहम भूमिका निभाते हैं। अभी तक इन्हें समाजवादी पार्टी का परंपरागत मतदाता माना जाता रहा है। नीतीश के यूपी से चुनाव लड़ने के फैसले से सिर्फ पटेल ही नहीं, पिछड़े समुदाय का हर तबका काफी उत्साहित नजर आ रहा है।"
फूलपुर पूर्वांचल की हाट सीट रही है। इस संसदीय क्षेत्र से देश के दो प्रधानमंत्री संसद में प्रतिनिधित्व कर चुके हैं। आजाद भारत के पहले प्रधानमंत्री पंडित जवाहरलाल नेहरू और पिछड़ों की राजनीति करने वाले वीपी सिंह लोकसभा में फूलपुर क्षेत्र की नुमाइंदगी कर चुके हैं। समाजवादी नेता डॉ. राममनोहर लोहिया और बसपा के संस्थापक कांशीराम भी इस सीट से चुनाव लड़ चुके हैं। जदयू इस सीट से नीतीश कुमार को चुनाव मैदान में उतारकर बगैर कुछ बोले, प्रधानमंत्री पद के दावेदार के रूप संदेश दे देना चाहती है। हालांकि यूपी की कई ऐसी सीटें हैं जहां से मुख्यमंत्री नीतीश कुमार आसानी से चुनाव जीत सकते हैं। ऐसे में वह मिर्जापुर और फूलपुर ही नहीं, आंबेडकर नगर और प्रतापगढ़ सीट भी आसानी से झटक सकते हैं। इसी रणनीति के तहत जदयू ने पूर्वांचल में बनारस, मिर्जापुर, सोनभद्र, प्रतापगढ़, फूलपुर, जौनपुर, फतेहपुर, अंबेडकरनगर में रैली और जनसभाएं करने का निर्णय लिया है।
उत्तर प्रदेश में पटेल समुदाय की करीब छह फीसदी आबादी राज्य के 25 जिलों में चुनावी फिजा बदलती है। दर्जन भर सीटें ऐसी हैं जहां पटेल समुदाय के वोटर ही प्रत्याशियों के भाग्य का फैसला करते हैं। पूर्वांचल ही नहीं, बुंदेलखंड और अवध से लगायत रुहेलखंड तक राजनीतिक दलों का भविष्य पटेल समुदाय के लोग ही तय करते हैं। बसपा से निकलकर अपना दल की स्थापना करने वाले सोनेलाल पटेल ने मजबूती के साथ इस समुदाय को राजनीतिक ताकत दी थी। बाद में अनुप्रिया पटेल के हाथ में पार्टी की कमान आई तो उनकी अपनी बड़ी बहन पल्लवी पटेल और मां कृष्णा पटेल के बीच मतभेद पैदा हो गए। तब अनुप्रिया ने अपना दल (सोनेलाल) नाम से अलग पार्टी बना ली और उनकी मां, बड़ी बहन ने अपनी पार्टी का नाम अपना दल (कमेरावादी) रखा। अनुप्रिया की पार्टी फिलहाल सत्तारूढ़ दल बीजेपी के साथ है तो मां कृष्णा और बहन पल्लवी समाजवादी पार्टी के खेमे में हैं। पल्लवी फूलपुर से सपा विधायक हैं, जिन्होंने बीजेपी के कद्दावर नेता एवं उप मुख्यमंत्री केशव प्रसाद मौर्य को बुरी तरह पराजित किया था।
राजनीतिक विश्लेषकों का मानना है कि बीजेपी को केंद्र की सत्ता से उतारने के लिए नीतीश कुमार ने एक पुख्ता रणनीति बनाई है। इसी रणनीति का हिस्सा है यूपी में नीतीश कुमार की पहली चुनावी रैली। उत्तर प्रदेश में लोकसभा की 80 सीटें हैं। इस राज्य का पूर्वांचल ऐसा इलाका है जहां बीजेपी को आसानी से पटखनी दी जा सकती है। यूपी के पिछले विधानसभा चुनाव में सपा को इसी इलाके से सर्वाधिक सीटें मिली थीं। नीतीश ने एक तीर से कई निशाना साधने का मन बनाया है। वह बनारस की राजनीति को अंतरराष्ट्रीय छितिज पर ले जाना चाहते हैं। नीतीश के सहारे इंडिया गठबंधन भी उत्तर प्रदेश में बड़ा संदेश देने की कोशिश कर सकता है।
टोटके की तरह है बनारस से सियासत
पूर्वांचल की माटी से जुड़े दिल्ली के वरिष्ठ पत्रकार अमरेंद्र राय कहते हैं, "बनारस से राजनीति एक ऐसे टोटके की तरह है जो सफलता की गारंटी देता है। साल 2014 में मोदी के खिलाफ चुनाव लड़ने वाले अरविंद केजरीवाल बाद में दिल्ली के मुख्यमंत्री बन गए। मोदी से दो बार चुनाव हारने वाले अजय राय का कद इतना बड़ा हो गया कि कांग्रेस ने उन्हें यूपी जैसे बड़े राज्य की कमान सौंप दी। सियासी टोटके के चलते सपा मुखिया अखिलेश यादव कुछ रोज पहले ही चुनावी बिगुल फूंकने बनारस आए थे। 24 दिसंबर को वाराणसी में नीतीश कुमार की चुनावी जनसभा से पहले पीएम नरेंद्र मोदी 17 दिसंबर 2023 को बनारस आ रहे हैं। वह भी लोकसभा चुनाव-2024 के अपने चुनाव प्रचार का शंखनाद करेंगे। रैली के जरिये वह जनता की नब्ज टटोल सकते हैं। नीतीश कुमार की वाराणसी में जनसभा की रणनीति ने इंडिया गठबंधन के दलों में भी हलचल मचा दी है।"
अमरेंद्र कहते हैं, "नीतीश कुमार अगर मिर्जापुर अथवा फूलपुर से चुनाव लड़ते हैं तो उनके मुकाबले को पीएम नरेंद्र मोदी से माना जा सकता है। यूपी में बीजेपी के पास गैर-यादव और पिछड़ा वोट बैंक काफी मजबूत है। इस वोट बैंक में पटेल वोटरों की तादाद बहुत ज्यादा है, जिन पर सभी दलों की नजरें टिकी हैं। सपा ने अपना प्रदेश अध्यक्ष इसी समुदाय के नरेश उत्तम को बना रखा है। फिर वो इस समुदाय को अपनी पार्टी के साथ नहीं जोड़ पा रहे हैं। यूपी में ओबीसी वोट बैंक पर सपा सुप्रीमो अखिलेश यादव और दलितों में बसपा मुखिया मायावती की पकड़ काफी ढीली पड़ चुकी है। पिछड़े तबके के वोटरों को लगता है कि अब वह सिर्फ यादवों के नेता बनकर रह गए हैं। लगातार चुनाव हारने की वजह से यादव मतदाता भी उनसे छिटकते जा रहे हैं।"
"मौजूदा दौर में उत्तर प्रदेश में अनुप्रिया पटेल अपने समुदाय की सबसे कद्दावर नेता हैं और वह बीजेपी के साथ हैं। ऐसे में नीतीश को यहां लाकर पटेल समुदाय के वोटरों को अपनी तरफ मोड़ने की योजना है। नीतीश कुमार भी इसी समुदाय से आते हैं, जो पटेल वोटरों में आसानी से बड़ा चेहरा बन सकते हैं। अगर वह यूपी से चुनाव लड़ते हैं तो मुकाबला काफी दिलचस्प होगा। मेरा मानना है कि तीन राज्यों में कांग्रेस की हार के बाद नीतीश कुमार को लग रहा है कि इंडिया गठबंधन का नेतृत्व मजबूती के साथ झटकने का यही सही समय है। पूर्वांचल के किसी सीट से चुनाव लड़कर राष्ट्रीय स्तर पर अपनी इमेज बना सकते हैं।"
विपक्ष के पास नीतीश का विकल्प नहीं
वरिष्ठ पत्रकार अमरेंद्र कहते हैं, "कमेरा समुदाय में नीतीश कुमार का कद दूसरे सभी नेताओं से बहुत ऊपर है। अगर उनकी दिलचस्पी यूपी के चुनाव में होती है तो अनुप्रिया पटेल की तुलना में ज्यादा प्रभावशाली होगा। देखने की बात यह होगी कि अगर नीतीश जदयू के बैनर तले आएंगे तो वह जहां से चुनाव लड़ेंगे वहां पटेल समुदाय से भरपूर समर्थन मिलेगा, लेकिन दूसरी सीटों पर ऐसा नहीं होगा कि यह समुदाय अपने नेताओं को छोड़ दे। अगर नीतीश को इंडिया गठबंधन का कन्वीनर बना दिया जाता है तो पटेल समुदाय उनमें पीएम देखने की संभावना तलाशेगा। इस समुदाय के लोग अगर बीजेपी का साथ छोड़कर इंडिया अलायंस से जुड़ते हैं तो उसका असर दोगुना होगा।"
यूपी के मिर्जापुर की मूल निवासी प्रज्ञा सिंह सोशल एवं पॉलिटकल एक्टिविस्ट हैं। वह कहती हैं, "नीतीश कुमार पिछड़ों और महिलाओं के मुद्दों को लेकर यह संदेश देने आ रहे हैं कि वो बीजेपी के खिलाफ मजबूती से लड़ने के लिए तैयार हैं। बनारस की रैली के जरिये वह यूपी में अपनी पकड़ मजबूत बनाना चाहते हैं। उनकी सक्रियता से बीजेपी की पार्टनर अनुप्रिया पटेल की राजनीति सबसे ज्यादा प्रभावित होगी, क्योंकि पूर्वांचल की सियासत में वह स्वतंत्र चेहरा नहीं हैं। बीजेपी ने इनकी बात कभी नहीं सुनी। उनके कहने पर मिर्जापुर के कलेक्टर भले ही बदल दिए गए, लेकिन विकास का कोई नया मॉडल खड़ा कर पाने में नाकाम रहीं। मिर्जापुर का विकास पिछले एक दशक से उसी ढर्रे पर चल रहा है जिस ढर्रे पर दूसरे जिले चल रहे हैं।"
"बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार के आगे अनुप्रिया के नेतृत्व को खारिज करने के लिए पूर्वांचल की जनता तैयार है। खासतौर पर पटेल वोटर तो उन्हें सिरे से खारिज कर देंगे। पूर्वांचल की बात छोड़िए, मिर्जापुर में अनुप्रिया ने कोई ऐसा काम नहीं किया है जिसके दम पर वह नीतीश के राजनीतिक कद को छोटा कर पाएंगी। पिछड़ों के आरक्षण के मुद्दे पर भी वह तभी कुछ बोलती हैं जब किसी चुनाव का ऐलान हो चुका होता है। किसानों और पिछड़ों के आंदोलन को भी उन्होंने कभी प्रमुखता से नहीं उठाया है। बिहार में जातीय जनगणना की रिपोर्ट आने के बाद वह कहतीं कि हम इसके पक्ष में हैं तो पिछड़े तबके के लोग उनकी बात जरूर सुनते। जातीय जनगणना को लेकर भी अनुप्रिया पटेल का अपना कोई स्टैंड नहीं रहा। उन्होंने यह बात कभी नहीं कही कि बीजेपी अगर अमुक काम नहीं करेगी तो हम उसके साथ नहीं रहेंगे।"
प्रज्ञा कहती हैं, "कुर्मी बहुल सीटों पर अनुप्रिया पटेल कोई ऐसा फेस नहीं है जो अपने बूते एक भी सीट जीत सकें। उनका वजूद तभी तक है जब तक वह बीजेपी के साथ हैं। यह बात बीजेपी भी जानती है। इसी लिए बीजेपी वालों ने उनकी बात को गंभीरता से कभी नहीं लिया। सच यह है कि अनुप्रिया के साथ कोई नहीं है। पटेल वोट बैंक बीजेपी के साथ है। अनुप्रिया अगर अपना दल से चुनाव लड़ेंगी तो 50 हजार से ज्यादा वोट हासिल नहीं कर पाएंगी।"
"इंडिया एलायंस में नीतीश इकलौते ऐसे नेता हैं जो मोदी के चुनाव पर सबसे ज्यादा प्रभाव डाल सकते हैं। वह महिलाओं, पिछड़ों और दलितों के वोट बैंक में दमदारी के साथ सेंधमारी कर सकते हैं। वह एक जाति के नेता नहीं हैं। उनकी लोकप्रियता सिर्फ पिछड़ों में नहीं, अगड़ों में भी है। मोदी को घेरने में विपक्ष की गोलबंदी भी बहुत मायने रखेगी। अगर विपक्ष उन्हें पीएम का चेहरा बनाता है तो राजनीति में बड़ा गेमचेंजर साबित होगा।
प्रज्ञा यह भी कहती हैं, "विपक्ष के पास इस समय नीतीश के अलावा कोई ऐसा चेहरा नहीं है जो मोदी के सामने खड़ा होकर उन्हें ललकारने की हिम्मत दिखा सके। यूपी की सियासत में नीतीश के कूदने से सिर्फ पूर्वांचल ही नहीं, समूचा उत्तर प्रदेश प्रभावित होगा। पिछड़ों की राजनीति नई करवट ले सकती है। जनता को पता है कि मंदिर-मस्जिद से किसी का पेट नहीं भरने वाला। इसलिए ये मुद्दे अबकी लोकसभा चुनाव में नहीं चलेंगे। आज देश का बड़ा मुद्दा है बेरोजगारी। जातीय जनगणना देश का बड़ा मुद्दा बन गया है। महिलाओं को आरक्षण दिया है। पिछड़ों का आरक्षण बढ़ा दिया है। बीजेपी के पास इनकी कोई काट नहीं है। बिहार ने जितने बड़े पैमाने पर नौजवानों को नौकरियां दी है उसके मुकाबले बीजेपी का सांसद रोजगार मेला फेल है। मोदी के भाषणों को हटा दीजिए तो बीजेपी के पास कोई नया दांव नहीं है।"
(लेखक बनारस के वरिष्ठ पत्रकार हैं)
अपने टेलीग्राम ऐप पर जनवादी नज़रिये से ताज़ा ख़बरें, समसामयिक मामलों की चर्चा और विश्लेषण, प्रतिरोध, आंदोलन और अन्य विश्लेषणात्मक वीडियो प्राप्त करें। न्यूज़क्लिक के टेलीग्राम चैनल की सदस्यता लें और हमारी वेबसाइट पर प्रकाशित हर न्यूज़ स्टोरी का रीयल-टाइम अपडेट प्राप्त करें।