पश्चिमी गठबंधन के लिए अमेरिका ने फिर हासिल किया तुर्की का समर्थन
अमेरिकी राष्ट्रपति जो बाइडेन जिनेवा में 16 जून को रूसी राष्ट्रपति व्लादीमिर पुतिन के साथ पहली शिखर वार्ता के महज 48 घंटे पहले, सोमवार को तुर्की के अपने समकक्ष रेजेप ताय्यिप एर्दोआन से ब्रूसेल्स में मिलेंगे। दोनों के दरम्यान यह बैठक नार्थ अल्टांटिक सिक्यूरिटी ऑर्गनाइजेशन (नाटो) शिखर सम्मेलन के साये में हो रही है। कूटनीति में जहां तक अनुक्रमिक गतिविधियों की योजना होती है, उस लिहाज से यह उत्तम है।
ब्रूसेल्स और जिनेवा में बाइडेन की बैठकें यकीकन सबसे अधिक परिणादायक हैं और यूरोप की अपनी आठ दिवसीय यात्रा में वे सबसे अहम “द्विपक्षीय” बातचीत करेंगे। दोनों घटनाएं परिवर्तनीय हैं, किंतु उनके सह-संबंधी होने में कोई संदेह नहीं हैं।
बाइडेन की एर्दोआन के साथ होने वाली बातचीत के ज्यादातर मसले रूस से संबंधित होंगे। यहां तक कि जब कुछ अमेरिकी-तुर्की मसलों का सीधे-सीधे रूस से तो कोई वास्ता नहीं है, पर वे रूस के अहम हितों पर असर डालते हैं।
अब बाइडेन के पक्ष में जो बात जाती है, वह यह कि एर्दोआन और पुतिन के निजी रिश्तों में अब पहले जैसी बात नहीं रही। तुर्की-रूसी संबंध कई मोर्चों पर बढ़ती तकरार से भार हो गए हैं।
दूसरी तरफ, अमेरिका और रूस के बीच हालिया कुछ महीनों में जैसे ही तनाव बढ़ा है, अमेरिका की क्षेत्रीय रणनीति में तुर्की की अहमियत एक ‘स्विंग स्टेट’ के रूप में नाटकीय रूप से बढ़ गई है। बाइडेन प्रशासन के तुर्की के प्रति कूटनीतिक रुख का आकलन ऐसे ही नजरिये से किए जाने की आवश्यकता है।
इसमें कोई संदेह ही नहीं है कि तुर्की-अमेरिका संबंधों में बड़े मतभेद हैं। दोनों पक्षों के पास समस्याओं की अपनी एक लंबी सूची है। लेकिन इनमें अच्छी बात यह है कि दोनों पक्ष यथार्थवादी हैं और वे उन-उन क्षेत्रों पर फोकस करने के लिए तैयार हैं, जहां परस्पर साझेदारी संभव है। दोनों अपने संबंधों को जल्द से जल्द सुधारने के तकाजे को समझते हैं।
बाइडेन और एर्दोआन एक दूसरे को अच्छी तरह से समझते हैं और उनकी निजी बातचीत द्विपक्षीय संबंधों में एक नया पन्ना पलटने में मदद कर सकती है। निश्चित रूप से, वे दोनों ही संभव हो सकने वाले संबंधों का लक्ष्य रखेंगे। संक्षेप में, मतभेदों का प्रबंधन और पस्पर भागीदारी का पुनरुज्जीवन-यही बाइडेन और एर्दोआन के बीच आगामी सोमवार की बैठक का तकियाकलाम होने जा रहा है।
अमेरिका और तुर्की में तीन तरह के मतभेद हैँ : राजनीतिक, भू-राजनीतिक और व्यक्तिगत। राजनीतिक पक्ष में, मतभेद की असल जड़ यह है कि एर्दोआन तुर्की के प्रति अमेरिकी इरादों को लेकर गहरा अविश्वास रखते हैं। इस अनबन की पैदाइश का सूत्र ओबामा प्रशासन में ढू़ंढ़ा जा सकता है, और बाइडेन जिसका हिस्सा रहे हैं।
जिस तरीके से अमेरिका ने एर्दोआन, जो सीरियाई राष्ट्रपति बशर अल असद के घनिष्ठ पारिवारिक मित्र थे, उन्हें सीरिया में सत्ता परिवर्तन के अपने प्रोजेक्ट के रूप में शामिल होने के लिए बहलाया-फुसलाया और बाद में तुर्की को अधर में छोड़कर खुद ही इस योजना से अलग हो गया, इससे अंकारा को गहरा धक्का लगा।
इसी बीच, ओबामा प्रशासन दवारा सीरियाई कुर्दों के एक धड़े-वाईपीजी-की मदद करने की अमेरिकी नीति की शुरुआत की गई और निस्संदेह, तभी से यह टाइम बम टिक-टिक कर रहा है।
तुर्की के लिए रणनीतिक विरोधाभास को सीधे तौर पर स्वीकार करना कठिन है कि अमेरिका ने उस आतंकवादी संगठन से प्रत्यक्ष रूप से अपने को जोड़ लिया जो नाटो के एक दूसरे सहयोगी देश के साथ लंबे समय से उग्रवादी युद्ध छेड़े रहा है।
इतने ही तक गनीमत नहीं थी, 2016 में एर्दोआन के तख्तापलट के विफल प्रयास ने भी तुर्की एवं अमेरिकी रिश्तों पर गहरा आघात पहुंचाया है। एर्दोआन को शक है कि उनके तख्तापलट की कोशिश ओबामा की शह पर की गई थी। उन्होंने ओबामा पर इस्लामी फेतुल्लाह गुलेनी को भी संरक्षण देने का आरोप भी लगाया। जब तुर्की ने गुलेनी के प्रत्यर्पण की मांग की तो वाशिंगटन ने उसकी एकदम अनसुनी कर दी।
यह कहना पर्याप्त है कि, पिछले पांच सालों के अपने कार्यकाल में एर्दोआन ने तुर्की की सामरिक स्वायत्तता को मजबूत करने का प्रयास, रूस के साथ संबंध विकसित करने तथा इस क्षेत्र में,तुर्की को एक क्षेत्रीय महाशक्ति के रूप में निर्मित करने की दिशा में काम किया है।
भूराजनीतिक धरातल पर, सम्पूर्णता में एर्दोआन की स्वतंत्र विदेश नीति के कारण हाल के वर्षों में बहुत सारे मामले सामने आए हैं किंतु जिस मुद्दे पर तुर्की और अमेरिका में दरार पैदा हुई है, वह सिद्धांतत: तुर्की का रूस से S-400 प्रक्षेपास्त्र प्रणाली की खरीदगी है।
तुर्की रूस के साथ S-400 प्रक्षेपास्त्र समझौते से पीछे हट रहा है,अब वाशिंगटन एवं अंकारा परस्पर मान्य होने वाले एक फार्मूले पर बातचीत कर रहे हैं, जिसमें दक्षिण तुर्की में अवस्थित इंसर्लिक हवाई अड्डे के संचालन एवं रख-रखाव का जिम्मा बिना किसी रूसी संलग्नता के, सीधे अमेरिकी नियंत्रण में देने की बात है।
कहा जाता है कि तुर्की ने बाइडेन प्रशासन को इस आशय का एक लिखित आश्वासन दिया है कि वह प्रक्षेपास्त्र प्रणाली को सक्रिय नहीं करेगा। यह कदम तुर्की के खिलाफ CAATSA के तहत लगाए गए अमेरिकी प्रतिबंधों को हटाने का मार्ग प्रशस्त कर सकता है, जो ल़ॉकहीड मार्टिन’ज एफ-35 स्टील्थ लड़ाकू विमानों के कल-पुर्जों के निर्माण में तुर्की की भागीदारी को फिर से सुनिश्चित करेगा। यह ब्रूसेल्स में भावी बैठक का एक बेहतर नतीजा हो सकता है।
अगर S-400 का मसला, जिसे तुर्की और अमेरिका के बीच संबंधों में हालिया तनाव का एक कारण माना जाता है, उसको दूर किया जा सकता है तो रूस की सभी क्षेत्रीय रणनीतियों में गहरा धक्का लगेगा और निजी तौर पर पुतिन के लिए बाइडेन के साथ शिखर बैठक के ऐन पहले उनकी बड़ी मानहानि होगी क्योंकि विगत कुछ वर्षों में रूस-तुर्की के संबंधों में बदलाव उनकी निजी उपलब्धि रहा है।
इसमें कोई संदेह नहीं, अमेरिका के समर्थन के साथ, तुर्की से शीत युद्धकाल में रूस के विरुद्ध पश्चिमी रणनीतियों के मोहरे की निभाई गई भूमिका की अपेक्षा की जा सकती है। इतना ही नहीं, इतिहास में पहली बार, काला सागर में नाटो की एक मजबूत उपस्थिति हो सकती है। बेशक, तुर्की के समर्थन से, यूक्रेन नए आत्मबल से भरकर रूस को पीछे ठेल दे सकता है।
कुल मिला कर, यह रूस के पश्चिमी और दक्षिणी-पश्चिमी पिछवाड़े में अमेरिका की क्षेत्रीय कूटनीति के लिए खेल बदलने वाला साबित होगा। दिलचस्प है कि बाइडेन के साथ बैठक के तुरंत बाद एर्दोआन, एक प्रतीकात्मक युक्ति में, दक्षिणी काकेशस के कानोगोर्नो काराबाख भूभाग के दौरे पर निकल जाएंगे, जिसे तुर्की की मदद से अजरबैजान ने कुछ ही महीने पहले हासिल किया है।
यह कहना पर्याप्त है कि, इस तुर्की के ईर्द-गिर्द के क्षेत्रों की भूराजनीतियां अपने संक्रमण बिंदु पर हैं। काकेशस से लेकर काला सागर तक, यूक्रेन से लेकर पोलैंड तक के सम्पूर्ण क्षेत्र में रूस का प्रतिरोध करने के लिए अमेरिका को तत्काल ही तुर्की को अपने साथ लेने की आवश्यकता है। रूस और ईरान को नियंत्रित करने के अमेरिकी प्रयास में तुर्की संभावित रूप से एक बेहतर क्षेत्रीय भागीदार है।
सबसे महत्वपूर्ण बात यह कि, भूमध्यसागर में रूस की बढ़ती ताकत के प्रतिरोध के लिए तुर्की का सहयोग बेहद खास है, जहां अमेरिका हाल ही में एक नया अड्डा स्थापित कर रहा है। इसके अलावा, तुर्की और अमेरिका के समान हित रूस को लीबिया (जिसकी नाटो अफ्रीका में अपने विस्तार की योजना में एक प्रवेशद्वार के रूप में परिकल्पित करता है) से दूर रखने में है।
इसी तरह, वाशिंगटन और अंकारा अफगानिस्तान में तुर्की सेना की तैनाती पर भी बातचीत कर रहे हैं ताकि अमेरिकी सेना की वापसी, जो अगले महीने प्रस्तावित है, के बाद भी काबुल हवाई अड्डे से नाटो के सदस्य देशों की गतिविधियों का संचालन तथा उनकी पहुंच सुनिश्चित की जा सके।
तुर्की के रक्षामंत्री हुलुसी अकरो ने सोमवार को कहा कि नाटो के सदस्य देशों से वित्तीय, रणनीतिक और राजनीतिक समर्थन मिलने पर तुर्की इस मिशन का बीड़ा उठाने के लिए तैयार है। यह वादा अमेरिका और तुर्की के बीच विश्वास जमाने में एक अहम कदम होगा। अब यह देखना बाकी है कि मध्य एशिया में अमेरिकी हितों को आगे बढ़ाने में तुर्की क्या भूमिका निभा सकता है। दिलचस्प है कि ब्रुसेल्स जाने के ठीक पहले एर्दोआन किर्गिजस्तान के नवनिर्वाचित राष्ट्रपति सदिर जपारोवी की मेजबानी कर रहे हैं जिनकी छवि अपने देश में एक कट्टर राष्ट्रवादी की है।
जाहिर है, एर्दोआन आंतरिक रूप से काफी दबाव में हैं क्योंकि हाल के दिनों में उनकी पार्टी की लोकप्रियता में ह्रास हुआ है, अर्थव्यवस्था की हालत बुरी हुई है और जन असंतोष स्पष्ट दृष्टिगोचर हो रहा है। इसके अलावा, तुर्की ने अपने परम्परागत मित्रों एवं सहयोगियों का विश्वास खो दिया है। यूरोपीयन यूनियन के साथ तुर्की के संबंधों में गतिरोध उत्पन्न हो गए हैं, जबकि ग्रीस और फ्रांस से तनावपूर्ण संबंध बने हुए हैं।
आखिरकार, एर्दोआन मौजूदा हालात में बाइडेन के साथ एक समावेशी बैठक को वहन नहीं कर सकते। इसलिए एर्दोआन की मौजूदा रणनीति तुर्की को अमेरिका के एक बेहतर क्षेत्रीय भागीदार के रूप में पेश करने की होगी। हाल ही में, उन्होंने रूस के हितों-स्वार्थों के विरुद्ध काम करने की इच्छा जाहिर भी की है। इस प्रकार कि, वे जार्जिया, पोलैंड और उक्रेन-सभी के सभी रूस के विरोधी-नेताओं की अपने देशों में ताजपोशी के तत्काल बाद अप्रैल से ही उनकी मेजबानी करते रहे हैं।
एर्दोआन ने जार्जिया को नाटो में शामिल कराने के प्रयास को अपना पूरा समर्थन दिया है, पोलैंड के साथ ड्रोन पर करार किया है और यूक्रेन के रूस के साथ विवाद में हर तरह से उसका समर्थन दिया है। यह भी कि, तुर्की ने मई के अंत में रोमानिया में नाटो के स्टीडफास्ट डिफेंडर अभ्यास में सक्रिय हिस्सा लिया है।
किसी गलतफहमी में न रहें, एर्दोआन 2023 में निर्धारित अगले चुनाव के बाद अगले और पांच वर्षों तक अपने शासन को विस्तारित करने के लिए समय गुजार रहे हैं। और इस काम में उन्हें बाइडेन के सहयोग की आवश्यकता है। एर्दोआन एक अनुभवी नेता हैं और बाइडेन भी। ऐसे में कोई आश्चर्य नहीं होगा, अगर दोनों ही राजनेता वाशिंगटन और अंकारा के बीच कई सारे मतभेदों के बावजूद आगे बढ़ने के लिए कोई साझा आधार पा लें।
सौजन्य: इंडियन पंचलाइन
अंग्रेज़ी में प्रकाशित मूल आलेख को पढ़ने के लिए नीचे दिये गये लिंक पर क्लिक करें।
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