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यूपी के गाँव कोविड के समय में जातिवाद को झेलते हुए

सरकार किसी भी ऐसे संकट को हल करने के लिए ज़रूरी है जिसके आर्थिक और जातिगत दोनों आयाम हैं।
सरकार किसी भी ऐसे संकट को हल करने के लिए ज़रूरी है जिसके आर्थिक और जातिगत दोनों आयाम हैं।
Representational image. | Image Courtesy: Scroll.in

उत्तर प्रदेश के बांदा ज़िले के महुवा ब्लॉक के खेरवा मसरी गाँव के लोग देशव्यापी तालाबंदी से कुछ ही हफ्तों में बेताब तथा दुखी हो गए थे। इसका बड़ा कारण तो यह था कि उनके घर में राशन पूरी तरह समाप्त हो गया था और उनमें से कुछ ने तो दो दिनों से खाना ही नहीं खाया था। कई माताओं ने भोजन करते वक़्त अपने भोजन में से अपने बच्चों के लिए कुछ निवाले बचाने शुरू कर दिए थे ताकि जरूरत पड़ने पर उन्हे परोसा जा सके।

इस गाँव के लोग कुचबंदिया समुदाय के हैं, जिन्हें राज्य में अनुसूचित जाति के रूप में वर्गीकृत किया गया है। वैसे तो पूरा समुदाय बेहद गरीब है और हमेशा भुखमरी, कुपोषण और कम पोषण की अलग-अलग डिग्री का शिकार रहता है, उनमें भी सबसे खराब स्थिति उनकी है जिनके पास राशन कार्ड नहीं हैं। इस गाँव में कई ऐसे लोग हैं, जिनके पास जॉब कार्ड भी नहीं हैं और इसलिए काम उपलब्ध होने पर भी वह मनरेगा के मजदूर नहीं बन सकते हैं।

यह समुदाय आस-पास के गांवों में आजीविका कमाने के लिए छोटे-मोटे काम करते हैं, जो कि ज्यादातर जातिगत परंपरा से संचालित हैं, जैसे कि कुछ किस्म की रस्सी की मरम्मत करना या उन्हे बेचना जो गावों में रोजमर्रा की जिंदगी में उपयोग की जाती है। उनकी आर्थिक गतिविधियाँ ही उनके पड़ोसी गाँवों के लोगों के साथ बातचीत का एक मात्र स्रोत हैं, भले ही दलित होने के नाते उनके साथ भेदभाव किया जाता है।

कोविड़-19 के डर के बाद, पता चला कि इस समुदाय के सदस्यों को और भी अधिक भेदभाव का सामना करना पड़ रहा है, जो कि सामान्य बात है, लेकिन जब वे अक्सर गांवों में अपनी आजीविका कमाने के लिए जाते हैं तो उन्हे शत्रुता का सामना करना पड़ता है। तालाबंदी की घोषणा के बाद उन्हें अपने काम को पूरी तरह से बंद करना पड़ा गया है। न तो वे अपनी ज़रूरतों के लिए आवशयक आपूर्ति को इकट्ठा कर पा रहे हैं और न ही अपने समान को बेचने के लिए बाहर जा पा रहे हैं और न ही उन्हे कोई खरीददार मिल रहा है।

बड़ी तेज़ी के साथ उनकी भूख असहनीय स्तर तक बढ़ती जा रही है। आखिरकार, प्रति व्यक्ति 5 किलो, या यहां तक कि 10 किलो का राशन कब तक चलेगा? जिनके पास राशन कार्ड नहीं हैं, उनकी तो इस राशन तक भी पहुंच नहीं हैं। वास्तव में देखा जाए तो, ऐसी भी कुछ लोग हैं जिनके पास राशन कार्ड तो हैं, लेकिन उनके परिवार के कुछ सदस्यों के कार्ड से नाम गायब हैं। पांच सदस्यों का एक परिवार, 25 किलो अनाज का हकदार है, लेकिन अगर कार्ड से परिवार के दो सदस्यों के नाम गायब हैं, तो राशन की हकदारी घटकर 15 किलो रह जाती है, जबकि सदस्यों की संख्या समान रहती है।

इसलिए खेरवा मसरी के निवासियों ने फैसला किया कि वे भूख हड़ताल पर बैठेंगे। 20 से 23 मई तक, उनमें से लगभग 150 ने इस धरने के ज़रीए सरकार से भोजन, राशन कार्ड और जॉब कार्ड की मांग की। उनकी भूख हड़ताल ने सरकारी अधिकारियों को उनके गांव आने के लिए मजबूर कर दिया, और स्थानीय विधायक ने विरोध स्थल का दौरा भी किया। उनसे सामूहिक उपवास समाप्त करने का अनुरोध किया और कुछ परिवारों को 10 से 15 किलो अनाज दिया गया और सभी कुचबंदिया के घरों में राशन कार्ड और जॉब कार्ड देने का वादा किया गया।

एक अन्य बस्ती में, जो उसी ब्लॉक बांदा में खमोरा पंचायत पड़ती है, वहाँ के लोगों ने खेरवा मसरी में अपने समुदाय के सदस्यों के साथ एकजुटता दिखाने के लिए एक दिवसीय भूख हड़ताल की। खमोरा में भी भूख की स्थिति बहुत गंभीर है, लेकिन यहाँ एक स्वैच्छिक संगठन, विद्याधाम समिति द्वारा सबसे कमजोर परिवारों को अनाज़ और दालों के वितरण से स्थिति आंशिक रूप से सुधरी है।

लेकिन इस क्षेत्र के लोगों के दिमाग में बड़ा सवाल यह है कि वे अपनी भूख को मिटाने के लिए इस तरह के अस्थायी कदमों के सहारे कब तक चलते रहेंगे? लोगों की अनाज के अलावा अन्य जरूररियात भी होती हैं, इसलिए वे अपने जीवन को चलाने के लिए फिर से काम करना शुरू करना चाहते हैं। यह भी देखा गया है कि इसके चलते जाति-आधारित भेदभाव भी बढ़ रहा है जो चिंता का बड़ा कारण है। उनका डर है कि ये भेदभाव, गंभीर रूप से उनकी आय को जोकि पहले ही कम को ओर कम कर सकते हैं।

राजा भैया, जो विद्याधाम समिति चलाते हैं, वे एक अन्य चिंता के बारे में भी बताते है: उनके मुताबिक, इस क्षेत्र के निवासियों में तपेदिक और अन्य बीमारियों के भी कई रोगी हैं। उन्हें बेरोकटोक इलाज़ की जरूरत होती है जिसे वे लॉकडाउन की वजह से हासिल नहीं कर पा रहे हैं। कहने की बात नहीं है कि इनमें से कई मरीज बेहद गरीब हैं और अब उनके घरों में भोजन की भी कमी है। उन्होंने कहा, "इन परिवारों और व्यक्तियों को तत्काल राहत और इलाज़ मिलना चाहिए और इसके लिए सरकार द्वारा विशेष कदम उठाए जाने की जरूरत है।"

बांदा जिले के नरैनी ब्लॉक के भीतर नौगांव गाँव में भी कई दलित और मुस्लिम घर हैं, जिनकी आय मामूली है और वस्तुतः आजीविका के अन्य स्रोत या ज़मीन भी नहीं हैं। हाल के वर्षों में, वे देश के अन्य हिस्सों में प्रवास के माध्यम से काम करके अपनी आय का एक हिस्सा घर भेजते थे ताकि घर की बुनियादी जरूरतों को पूरा किया जा सके। अब लॉकडाउन के बाद इन श्रमिकों की एक बड़ी संख्या गांव में वापस लौट आई है। इस बार लेकिन वे नकदी वापस नहीं ला पाए बल्कि उल्टे खाली हाथ और थके-मांदे घर लौटे हैं। वे अपने परिवारों से भी तुरंत नहीं मिल सकते हैं, क्योंकि उन्हे एक स्थानीय स्कूल में क्वारंटाईन के लिए रखा गया है। स्कूल के इन छोटे कमरों में शारीरिक दूरी रखने की जांच करना बहुत मुश्किल था, जो की किसी भी संगरोध प्रणाली के दौरान आवश्यक है, ऐसा इसलिए संभव नहीं था क्योंकि लौटने वाले श्रमिकों की संख्या लगातार बढ़ रही थी।

इस सबके बावजूद सरकार इन श्रमिकों के लिए भोजन की व्यवस्था नहीं कर सकी और इसलिए उनके परिवारों को ही उनकी देखभाल करनी पड़ी - जिनमें वे परिवार भी शामिल हैं, जिनके पास पहले से ही भोजन की सख्त कमी थी। अंत में, इन प्रवासी श्रमिकों को स्व-संगरोध करने के लिए उनके खुद के घरों में भेजने का निर्णय लिया गया।

अतर्रा शहर के पास भरोसपुरवा गाँव में, और बाँदा से भी, लोग बड़ी संख्या में काम के लिए पलायन करते हैं। उनमें से कुछ वापस आ गए हैं, परंतु अन्य लोग, जैसे कि पंजाब में ईंट-भट्ठा श्रमिक हैं वे वापस नहीं आए हैं। उनके परिजनों को अब उनकी चिंता हो रही हैं। और फिर, जो लोग वापस आ गए हैं वे अब भोजन और आजीविका की चिंता में सूखे जा रहे हैं। मौजूदा वर्षों में स्थानीय कृषि संबंधित रोजगार खोजने की संभावना कम हो गई है। इसका एक महत्वपूर्ण कारण यह भी है कि स्थानीय किसानों ने कृषि-आधारित काम का मशीनीकरण कर दिया है और इसलिए हाथ से काम करने वाले खेत मजदूर के लिए काम कम है।

इनमें से कुछ लौटने वाले प्रवासी मजदूरों को दुश्मनी का भी सामना करना पड़ता है, जिसने  सामाजिक और आर्थिक रूप से कमजोर वर्गों के लिए संकट पैदा कर दिया है। सरकार को व्यापक स्तर पर समाज के इन तबकों के लिए व्यवस्था करनी होगी अन्यथा भूख और संकट इस क्षेत्र पर हावी हो जाएगा। स्वयंसेवी संगठन और नागरिक समाज, सामाजिक समरसता को बेहतर बनाने के लिए राहत का काम कर रहे हैं, लेकिन यह सरकार ही है जिसके पास व्यापक पैमाने पर बदलाव लाने की ताकत और संसाधन दोनों हैं।

लेखक एक स्वतंत्र पत्रकार हैं जो कई सामाजिक आंदोलनों से जुड़े रहे हैं। व्यक्त विचार व्यक्तिगत हैं।

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