पश्चिम बंगाल: एफ़आरए के तहत अधिकारों की जागरूकता आदिवासी व वन समुदायों को क़रीब ला रही है
कोलकाता: पश्चिम बंगाल के बांकुरा में एक स्कूल के शिक्षक तपन कुमार सरदार भूमिज समुदाय से हैं। बचपन में उन्हें इस बात की जानकारी कम थी कि इसका क्या मतलब है। लेकिन जब वे कॉलेज में दाख़िल हुए तो उन्होंने इस समुदाय की पहचान, इसके समृद्ध इतिहास और अपनी भाषा के बारे में पढ़ा और महसूस किया कि कैसे इस समुदाय के ज़्यादातर लोग अनुसूचित जनजातियों के लिए मौजूद आरक्षण जैसे अपने संवैधानिक अधिकारों का इस्तेमाल भी नहीं करते हैं।
इसलिए, कॉलेज का समय बीत जाने के बाद सरदार ने फैसला किया कि वह इस पर काम करेंगे। एक दशक से अधिक समय से वे भूमिज भाषा पर काम कर रहे हैं और इस समुदाय के लोगों को उनके संवैधानिक अधिकारों के प्रति जागरूक कर रहे हैं।
लेकिन पिछले हफ्ते स्कूल के शिक्षक एक जागरूकता रैली का नेतृत्व कर रहे थे जो उनके सामान्य अभियानों से अलग थी। इस बार का केंद्र बिंदु सिर्फ एक था और बांकुरा के भूमिज गांवों के लिए तुलनात्मक रूप से नया था। इस बार का केंद्र बिंदु था लोगों को 2006 के वन अधिकार अधिनियम (एफआरए) द्वारा दिए गए उनके अधिकारों के बारे में जागरूक करना।
यह अधिनियम अनुसूचित जनजातियों और पारंपरिक वनवासियों के वन अधिकारों को मान्यता देता है और इसका उद्देश्य इन क्षेत्रों में इन समुदायों की संस्कृति की रक्षा करना है। यह उस व्यवस्था में एक महत्वपूर्ण हस्तक्षेप बन गया जहां बड़ी सरकारी या निजी परियोजनाओं के लिए बड़ी संख्या में वनवासियों को विस्थापित किया गया है।
नवगठित संगठन बनाधिकार ओ प्रकृति बचाओ आदिवासी महासभा के नेतृत्व में बांकुरा की तरह पिछले सप्ताह 12 से अधिक जिलों में इसी तरह के जागरूकता अभियान और रैलियां निकाली जा रही थी।
सरदार कहते हैं, "हालांकि बहुत से लोग वास्तव में अधिक जानकारी के लिए रुचि रखते थे लेकिन आदिवासी समुदाय के लिए इस तरह के सबसे सशक्त अधिनियम के बारे में जागरूकता की कमी भारी थी।"
राज्य भर में स्थानीय समुदायों के सदस्यों का एक बड़ा सहयोग भी अपने आप में नया था। उत्तर बंगाल के रवा समुदाय से ताल्लुक रखने वाले और उत्तर बंगाल स्थित अधिकार समूह उत्तरबंग बंजन श्रमजीवी मंच के संयोजक सुंदरसिंह रवा कहते हैं, "हालांकि आदिवासी समुदायों के कई संगठन राज्य में कई सालों से काम कर रहे हैं, लेकिन मैंने कभी ऐसे संगठन के बारे में नहीं सुना जो इतना व्यापक हो।"
रवा का मानना है कि हालांकि उत्तर बंगाल के अलीपुरद्वार शहर या पश्चिम में बांकुरा जैसे बड़े केंद्रों में सैकड़ों लोगों के जुलूस निकाले गए थे जो इन जिलों के कई गांवों तक पहुंचना एक बड़ी उपलब्धि थी।
अनूठे प्रकार के बड़े पैमाने के इस अभियान और एक राज्यव्यापी आदिवासी संगठन की जड़ पिछले चार वर्षों से पुरुलिया के अयोध्या हिल्स में लंबे विरोध प्रदर्शनों में निहित है। जारी यह विरोध तुर्गा पंपेड स्टोरेज प्रोजेक्ट के ख़िलाफ़ है जिससे पहाड़ियों के पारिस्थितिकी तंत्र को खतरे में पड़ने का डर है और आंदोलनकारियों के अनुसार यह एफ़आरए का उल्लंघन है।
पर्यावरण कार्यकर्ता, अयोध्या हिल्स के विरोध के प्रमुख आंदोलनकर्ता और राज्यव्यापी अभियान से भी जुड़़े सौरव कहते हैं, “उस समय हमारे पास 11 से अधिक आदिवासी संगठन थे जो एक मंच प्रकृति बचाओ आदिवासी बचाओ मंच पर आ रहे थे,। यह संगठन आंदोलन का नेतृत्व कर रहा था। राज्य में वन अधिकारों को प्राप्त करने में यह एक महत्वपूर्ण चरण था क्योंकि लोग पहली बार अनुभव कर रहे थे कि वे इस मामले में अपने अधिकारों का दावा करने के लिए कानून का उपयोग कैसे कर सकते हैं।"
सौरव का कहना है कि सुंदरवन डेल्टा के अलावा दक्षिण बंगाल में 2006 के एफ़आरए के लिए कोई अभियान नहीं चला है। ऐसा इसलिए है क्योंकि ऐसे लोगों को ढूंढना मुश्किल है जो उस क़ानून को समझ पाते हों और इन क्षेत्रों में आने और काम करने के इच्छुक हों।
वे कहते हैं, “लोगों को उनके वन अधिकारों के बारे में जागरूक करने के लिए 2006 से एकीकरण और अभियानों के कई प्रयास किए गए हैं। लेकिन उनमें से किसी ने भी वास्तव में काम नहीं किया या फैल नहीं सका। अयोध्या हिल्स पर विरोध प्रदर्शन के दौरान यह सब बदल गया। यह देखा गया स्थानीय लोग जो कि पश्चिम बंगाल के जंगलमहल क्षेत्र में बांकुरा, पुरुलिया और झारग्राम और अन्य पड़ोसी जिलों में हैं वे धीरे-धीरे शामिल हुए।“
प्रकृति बचाओ आदिवासी बचाओ मंच के आंदोलनों और अभियानों में उनकी भागीदारी के समय इन ज़िलों और अन्य स्थानों के लोग आदिवासी समुदाय के वन अधिकारों और अधिकारों के दावे के गवाह थे।
कार्यकर्ता और पुरुलिया के निवासी राजेन टुडू कहते हैं, “इससे एक नई राजनीतिक चेतना पैदा हुई है और हमने एक बड़े संगठन पर चर्चा शुरू कर दी है। इसके अलावा झारग्राम और पुरुलिया ज़िलों में अधिकारों को लेकर विभिन्न ग्राम सभाओं में भी चर्चा तेज हो गई है। इसका एक हिस्सा यह है कि जब गांव के बारे में प्रशासनिक निर्णय लेने की बात आती है तो एफ़आरए ग्राम सभा को एक महत्वपूर्ण निकाय के रूप में सशक्त बनाता है।"
जब बातचीत शुरू हुई तो राष्ट्रीय स्तर पर प्रमुख घटनाक्रमों का प्रभाव यहां भी पड़ने लगा। साल 2019 में औपनिवेशिक वन अधिनियम में संशोधन का एक प्रस्ताव था जिसे बाद में ठुकरा दिया गया फिर विवादास्पद 2022 वन संरक्षण नियम आया जिससे लोगों को डर था कि गांवों के लोगों को बताए बिना निजी मामलों के लिए वनों पर कब्जा करना आसान हो गया।
सौरव कहते हैं, “अब, जब सरकार बीरभूम के देवचा पचमी में कोयला खनन परियोजना शुरू करना चाहती थी, तो इन आंदोलनों के बीच सहयोग मजबूत हो गया। आंदोलन के अनुभव और अयोध्या हिल्स में उनके द्वारा इस्तेमाल किए गए संवैधानिक अधिकारों के साथ वहां के गांव के नेताओं ने देवचा पचमी के गांवों को एफ़आरए के अनुसार ग्राम सभा बनाने में मदद की ताकि वे अपने विरोध को सही दिशा में ले जा सकें।”
लेकिन उन्होंने महसूस किया कि एक बड़ी घटना होने पर जानकारी और जागरूकता साझा करने के लिए राज्य के एक छोर से दूसरे हिस्सों में जाने वाले कार्यकर्ता की गतिविधि कोई बड़ा मॉडल नहीं हैं।
सौरव कहते हैं, "इस साल, हमने एक ही योजना के साथ एक संगठन बनाने के लिए एक साथ आने का फैसला किया। इसका मतलब यह नहीं है कि अलग-अलग हिस्सों में लोगों के अन्य मुद्दों को नहीं उठाया जाएगा। बस, अब हम जितना संभव हो सकेगा वन अधिकारों के मामले में लोगों को सशक्त बनाने पर ध्यान केंद्रित करेंगे।”
लेखक कोलकाता स्थित स्वतंत्र पत्रकार हैं।
मूल रूप से अंग्रेज़ी में प्रकाशित लेख को नीचे दिए लिंक पर क्लिक कर पढ़ा जा सकता हैः
West Bengal: Awareness of Rights Under FRA Brings Tribal, Forest Communities Closer
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