क्यों दुनिया की सबसे बड़ी आर्थिक साझेदारी यानी आरसीईपी में भारत शामिल नहीं हुआ?
दुनिया की जीडीपी में तकरीबन 30 फ़ीसदी हिस्सा रखने वाले और दुनिया के तकरीबन एक तिहाई आबादी का प्रतिनिधित्व करने वाले 15 देशों ने आपस में मिलकर एक दूसरे के आर्थिक सहयोग से जुड़ा एक महत्वपूर्ण क्षेत्रीय समझौता किया है। इस समझौते का नाम रीजनल कंप्रिहेंसिव इकोनामिक पार्टनरशिप है।
भारत के नजरिए से यह समझौता इसलिए भी महत्वपूर्ण है कि भारत पिछले 8 सालों से समझौते से जुड़े प्रस्ताव पर बातचीत किए जाने वाले सदस्य देशों का हिस्सा था। लेकिन पिछले साल नवंबर में भारत ने खुद को रीजनल कंप्रिहेंसिव इकोनामिक पार्टनरशिप में शामिल होने से अलग कर लिया। इसकी वजह यह थी कि भारत के घरेलू हित धारको का दबाव था कि भारत इस समझौते में शामिल ना हो।
अब जब यह समझौता एशिया प्रशांत महासागर से जुड़े 15 देशों के बीच हो चुका है तो भारत में दो तरह की बहस चल रही है। कुछ रणनीतिकारों का मानना है कि भारत को इसमें शामिल होना चाहिए था तो कुछ रणनीतिकार यह मानते हैं कि भारत ने इससे अलग होकर अच्छा किया। एक दूसरे के साथ फ्री ट्रेड एग्रीमेंट से जुड़े इस समझौते में एसोसिएशन ऑफ साउथ ईस्ट नेशन के 10 देश (ब्रूनेई, कंबोडिया, लाओस, मलेशिया, म्यांमार, फिलीपींस, सिंगापुर, थाईलैंड और वियतनाम) के साथ एशिया प्रशांत महासागर से जुड़े पांच अन्य देश (ऑस्ट्रेलिया चीन, जापान, दक्षिण कोरिया और न्यूजीलैंड) शामिल हुए हैं। तकरीबन दो साल के बाद यह समझौता सभी देशों की अंतिम सहमति के बाद अपना अंतिम रूप अख्तियार कर लेगा। इसके बाद यह समझौता विश्व का सबसे बड़ा आर्थिक सहयोग समझौता बन जाएगा।
तो आइए इस समझौते के मद्देनजर हाल फिलहाल यह समझने की कोशिश करते हैं कि भारत द्वारा इस समझौते से अलग हटने का कदम कितना सही है?
सैद्धांतिक तौर पर समझा जाए तो भूमण्डलीकरण के दौर में देश की अर्थव्यवस्थाओं के लिए देश की सीमायें उतनी बड़ी बाधा नहीं है, जितना भूमण्डलीकरण से पहले हुआ करती थी। फिर भी अपनी अर्थव्यवस्था को ध्यान में रखते हुए देश कई तरह के कर लगाकर बाहरी वस्तुओं और सेवाओं से मिलने वाली अनुचित प्रतियोगिता से अपनी अर्थव्यवस्था को बचने की कोशिश भी करते हैं। अपनी अर्थव्यवस्था को अनुचित प्रतियोगिता से बचाए रखने के लिए देशों द्वारा उठाये गए यह कदम जायज होते है।
लेकिन इनका नुकसान भी होता है। हर देश के लिए दूसरा देश किसी बाजार की तरह होता है। और अपने बाजार को बचाए रखने के लिए करों यानी इस संदर्भ में टैरिफ की प्रतियोगिता छिड़ जाती है। जैसे कि चीन और अमेरिका के बीच चल रहा ट्रेड वार, जहां ऊंची दरों पर टैरिफ का निर्धारण कर वस्तुओं और सेवाओं को रोकने की भरपूर कोशिश की जा रही है। अमेरिका अपने देश से बाहरी मजदूरों को निकालने में लगा हुआ है ताकि उसके देश की नौकरियां दूसरे देश के लोगों को न मिले।
इसलिए देशों ने ऐसी संकल्पना पर भी विचार करना शुरू कर दिया कि एक-दूसरे के साथ मिलकर वह मुक्त व्यापार का करार करे। यानी ऐसा करार, जिसके तहत वस्तुओं और सेवाओं का स्वतंत्र आवागमन हो। टैरिफ जैसी कोई रोक टोक न हो। अगर हो भी तो बहुत कम हो। इसी विचार के तहत दक्षिण एशिया के देश भी चीन की अगुआई में RCEP का समूह बनाने की कोशिश कर रहे थे। जहां वस्तुओं और सेवाओं का स्वतंत्र आवागमन हो।
सैद्धांतिक तौर पर अर्थव्यवस्था के आवागमन का यह विचार जितना सुंदर दिखता है उतना ही व्यवहारिक तौर पर इसमें खामियां मौजूद है। इसलिए इन खामियों के बीच संतुलन बिठाते-बिठाते RCEP की कई बार बैठकें हुई। खामियों को इस तरह से समझा जा सकता है हर देश की अर्थव्यवस्था की जमीनी हकीकत दूसरे देश की अर्थव्यवस्था से बहुत अलग है।
इसलिए जब दो या दो से अधिक अर्थव्यवस्थाएं एक दूसरे से मुक्त व्यापार का समझौता करेंगी तो फायदा उनको होगा जो अपने वस्तुओं और सेवाओं को किफायती दाम में बेचने में कामयाब होंगे। ऐसे में केवल कुछ ही देश उत्पादक के तौर पर काम करेंगे और बाकि देश उस पर उपभोक्ता के तौर पर। जैसे कि पिछले वित्त वर्ष में चीन ने भारत को 70 बिलियन डॉलर का निर्यात किया, जबकि भारत द्वारा चीन को किया जाने वाला निर्यात 16 बिलियन डॉलर का था।
भारत इस बात से आशंकित था कि टैरिफ उदारीकरण के बाद दोनों देशों के निर्यात में तो वृद्धि होगी, लेकिन चीन की वृद्धि भारत की तुलना में अनुपातिक रूप से बहुत अधिक होगी जिससे भारत का व्यापार घाटा बहुत बढ़ जाएगा।
विदेश मंत्री एस जयशंकर ने इस समझौते में भारत के शामिल ना होने पर कहा कि खुलेपन के नाम पर हम दूसरे देशों से सब्सिडाइज उत्पाद को आने की अनुमति देते हैं जिसकी कम कीमत की वजह से हमारा पूरा बाजार गड़बड़ हो जाता है। और हम सब इसे खुले और वैश्विकृत अर्थव्यवस्था के नाम पर जायज ठहराते रहते हैं।
फोकस ऑन द ग्लोबल साउथ के मेंबर जोसेफ़ पुरुगुनान वैश्विक मामलों की डिजिटल मीडिया पोर्टल पीपुल्स डिस्पैच पर बात करते हुए कहते हैं कि अगर हम पूरे विश्व की भूराजनीतिक व्यवस्था पर निगाह डालें तो हम पाते हैं कि अमेरिका प्रशांत महासागर के आस-पास जुड़े देशों के साथ ट्रांस पैसिफिक एग्रीमेंट कर अपनी अगुआई में एक इकोनॉमिक ब्लॉक बनाना चाहता है। यूरोपियन यूनियन यह काम पहले से ही करते आ रहा है। और अब चीन की अगुआई में RCEP बनने की तैयारी हो रही है।
इन सबका मतलब है विश्व की मजबूत ताकतें अपना आर्थिक ब्लॉक भी बना रही हैं। यहाँ ध्यान देने वाली बात है कि RCEP के अंतर्गत शामिल होने वाले 15 देश आर्थिक तौर पर उभरते हुए देश हैं, इनके पास संसाधन है, जिनका कच्चे माल के तौर पर इस्तेमाल किया जा सकता है। यह आपस में दुनिया का सबसे बड़ा बाजार बनाते हैं। इसलिए अगर ये RCEP में शामिल हो रहे हैं तो इनके लिए सबसे जरूरी बात यह होगी कि चीन के साथ कैसे संतुलन बिठाते हैं।
इसी मुद्दे पर पब्लिक सर्विस इंटरनेशनल की सुसना बारिया कहती हैं इसकी सबसे अधिक मार मजदूरों को झेलनी पड़ेगी। प्रतियोगिता का दबाव बहुत अधिक होगा। मजदूरी कम होगी। लोगों की आय कम होगी। अपनी वस्तुओं और सेवाओं को सस्ते दर में बेचने की होड़ की प्रवृत्ति का जन्म होगा। ऐसे में आप समझ सकते हैं कि स्थानीय मजदूरों का किस तरह शोषण किया जाएगा। एक देश से दूसरे देश में इन्वेस्टमेंट का प्रवाह मुक्त करने की कोशिश की जायेगी। इस पर रेगुलेशन कम होगा। जिसका मतलब सारी चीजें इस बात पर निर्भर होंगी कि बाजार का झुकाव किस तरफ है और मुनाफा और नुकसान का पलड़ा किस तरफ झुकेगा।
सरकारें जनता द्वारा चुनी जाती हैं और जनता के प्रति उत्तरदायी भी होती हैं। इसलिए उनकी यह जिम्मेदारी बनती है कि कोई भी बड़ा फैसला लेने से पहले उन हितधारकों से भी बात करें जिनके हितों को प्रभावित करने के कदम उठाये जा रहे हैं। अगर ऐसा नहीं हो रहा है तो इसका मतलब है कि सरकारों पर किसी दूसरे का दबाव है। और यहां पर सरकारों पर बड़े कॉरपोरेट का दबाव दिखता है। इस तरह से भारत सरकार ने अपने घरेलू हित धारकों के दबाव में आकर इससे अलग होने का फैसला किया है तो यह ठीक कदम है।
RCEP में भारत के लिए भी यही सारी चिंताएं थी। उसके स्थानीय उत्पादकों की भी यही चिंता थी कि उसके लिए नीतियां उसका देश नहीं तय करेगा, बल्कि देशों का समूह तय करेगा। उसमें भी उस देश की भूमिका सबसे अधिक होगा जो आर्थिक तौर पर सबसे अधिक मजबूत होगा। जैसा कि RCEP में अभी चीन की स्थिति है।
भारत के संदर्भ में डेयरी उत्पादकों की RCEP से जुड़ी चिंताओं को उदाहरण के तौर पर समझा जाना चाहिए। गुजरात के तकरीबन 75 हजार डेयरी फार्म में काम करने वाली औरतों ने प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को चिठ्ठी लिखकर दूध और अन्य दुग्ध उत्पादों को RCEP समझौते से बाहर रखने की गुहार लगाई थी।
भारत दूध उत्पादन में आत्मनिर्भर है यानी दूध उपभोक्ताओं की जरूरतों को पूरा करने में भारत खुद सक्षम है। अभी कुछ दिन पहले ही आईएनएस एजेंसी में राष्ट्रीय डेयरी विकास बोर्ड के अध्यक्ष दिलीप रथ का लंबा बयान छपा है। रथ का कहना था कि डेयरी उत्पादों को रीजनल कांप्रिहेंसिव इकॉनोमिक पार्टनरशिप (RCEP) के दायरे में लाने से देश के 6.5 करोड़ दुग्ध उत्पादन करने वाले किसान प्रभावित होंगे। भारत दुनिया में दूध का सबसे बड़ा उत्पादक होने के साथ-साथ सबसे बड़ा उपभोक्ता भी है।
दिलीप रथ ने बताया कि पिछले साल 2018-19 में भारत में दूध का उत्पादन 18.77 करोड़ टन हुआ था जो कि कुल वैश्विक उत्पादन में 21 फीसदी है और देश में दूध का उत्पादन सालाना आठ फीसदी की दर से बढ़ रहा है। किसानों को धान और गेहूं के उत्पादन का जितना दाम मिलता है उससे ज्यादा दाम दूध के उत्पादन से मिलता है। साल में दूध के कुल उत्पादन का मूल्य 3,14,387 करोड़ रुपये है जो कि धान और गेहूं के कुल उत्पाद के मूल्यों के योग से ज्यादा है। दूध और दूध से बनने वाले उत्पाद किसानों की आमदनी बढ़ाने का एक प्रमुख जरिया है।
रथ ने कहा था कि इस समय देश में दूध की खपत प्रति व्यक्ति 374 ग्राम है, शहरी क्षेत्र में दूध की बढ़ती खपत को देखते हुए उम्मीद की जाती है कि यह आंकड़ा आने वाले पांच साल में 550 ग्राम प्रति व्यक्ति हो जाएगा। इस प्रकार, उत्पादन बढ़ने के साथ-साथ खपत भी बढ़ेगी, लेकिन रथ का कहना था कि अगर डेयरी उत्पादों को RCEP के दायरे में लाया गया तो न्यूजीलैंड और आस्ट्रेलिया से शून्य आयात कर पर सस्ते दुग्ध उत्पाद देश में आएंगे जिससे दूध उत्पादकों पर असर पड़ेगा।
इसी तरह से समझौते पर ट्रेड यूनियन सामाजिक कार्यकर्ताओं स्वास्थ्य के मुद्दे से जुड़े कार्यकर्ताओं द्वारा जमकर विरोध दर्ज किया गया है। एशिया पेसिफिक फोरम ऑन विमेन लॉ एंड डेवलपमेंट ने स्टेटमेंट रिलीज कर कहा है कि इस समझौते की वजह से जेनेरिक मेडिसिन का उत्पादन कम होगा। यह समझौता किसानों और स्थानीय लोगों पर उल्टा प्रभाव डालेगा। कामगारों का मेहनताना कम किया जाएगा। पब्लिक सर्विस की बजाए प्राइवेट सर्विस की बढ़ोतरी होगी। अच्छी नौकरियां नहीं मिलेंगे। जनहित में औद्योगिक और राजकोषीय नीति बनाने कि सरकार की काबिलियत पर यह समझौता अंकुश लगाएगा।
इसलिए हाल फिलहाल तो भारत द्वारा इस समझौते से अलग हो जाने का कदम ठीक लग रहा है। लेकिन अभी महामारी का वक्त चल रहा है। दुनिया की सारी अर्थव्यवस्थाएं ठप पड़ चुकी हैं। सब को एक दूसरे की जरूरत है। इस लिहाज से आरसीएपी से बाहर रहने का फैसला भारत के लिए तभी बहुत अधिक जायज साबित होगा जब आत्म निर्भर भारत का नारा मीडिया और चुनावी भाषणों से निकलकर जमीनी हकीकत में तब्दील होगा। हाल फिलहाल तो ऐसा नहीं दिख रहा है। अभी तो कई सारे आयात करों के बाद भी भारत में निर्यात से ज्यादा आयात होता है।
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