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भारत जोड़ो यात्रा के दौरान राहुल गांधी ने ‘क्रोनी कैपिटलिस्ट्स’ को क्यों बनाया निशाना?

भारत में कॉर्पोरेट-वित्तीय-राजनीतिक गठजोड़ पर आज़ादी के आंदोलन के समय की जांच से हासिल कुछ दृष्टिकोण की चर्चा इस लेख में की गई है।
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कांग्रेस नेता राहुल गांधी की भारत जोड़ो यात्रा, जो कन्याकुमारी से शुरू हुई और कश्मीर में जाकर समाप्त होनी है, वह सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक मुद्दों पर चर्चा का एक ज़रिया बन गई है, साथ ही यह मुख्यत नरेंद्र मोदी निज़ाम की कॉर्पोरेट क्षेत्र के साथ सांठगांठ की नीतियों का खुलासा करने वाला मोबाइल मंच बन गया है। इस तरह यह पदयात्रा के भीतर तीन कृषि कानूनों के खिलाफ किसानों के साल भर चले आंदोलन की गूँज भी सुनाई देती है। 2020 और 2021 में, किसानों ने बार-बार उन बड़े कॉर्पोरेट के खिलाफ आवाज उठाई, जिनके व्यापारिक हितों को साधने के लिए केंद्र सरकार कृषि 'सुधारों' के नाम पर ये कानून लेकर आई थी। 

स्वतंत्रता संग्राम के दौरान कांग्रेस और बड़े व्यापारिक घराने 

स्वतंत्रता संग्राम के दौरान बड़े व्यापारिक घरानों और राजनीतिक दलों और जन आंदोलनों के साथ उनके संबंधों की गहनता से छानबीन की गई थी। 4 जून, 1942 को, प्रसिद्ध अमेरिकी पत्रकार लुइस फिशर ने महात्मा गांधी से पूछा था कि क्या यह आरोप सही है कि कांग्रेस पार्टी बड़े व्यवसायों के हाथों में थी और गांधी को बंबई के मिल मालिकों का समर्थन हासिल था, जिन्होंने उन्हें जितना पैसा चाहिए था उतना दिया। सच्चाई के प्रति दृढ़ता से प्रतिबद्ध, गांधी ने स्पष्ट रूप से जवाब दिया, "दुर्भाग्य से, यह सच हैं।" उन्होंने समझाया कि कांग्रेस पार्टी के पास इतना पैसा नहीं है कि वह अपना काम चला सके। शुरू में, पार्टी का मानना था कि प्रत्येक सदस्य से साल में चार आना इकट्ठा करने से वह अपने कार्यक्रमों को अंज़ाम दे पाएगी, लेकिन यह काम नहीं आया।

फिशर ने गांधी से पूछा कि क्या कांग्रेस को जिन व्यापारिक घरानों से पैसा मिल रहा था, तो क्या कांग्रेस ने उनके प्रति नैतिक दायित्व महसूस किया और क्या उनकी राजनीति को प्रभावित किया। यह एक मूक ऋण था। गांधी ने यह भी बताया कि 'असल में हम अमीरों की सोच से बहुत कम प्रभावित होते हैं। वे कभी-कभी पूर्ण आज़ादी की हमारी मांग से डरते हैं।"

गांधी के ये दावे उनकी नीतियां बनाने की स्वायत्तता को दर्शाते हैं, जिसे कांग्रेस पार्टी ने व्यापारिक घरानों से फंडिंग के बावजूद सुरक्षित रखा। व्यापारिक घरानों को पूर्ण स्वतंत्रता का डर इस बात की गवाही देता है कि वे ब्रिटिश शासन से कितने गहरे जुड़े हुए थे, जिसने उनके व्यावसायिक हितों को बनाए रखा था।

भारत जोड़ो यात्रा और कृषि आंदोलन ने क्रोनी पूंजीपतियों को किया बेनकाब 

आज़ादी के आंदोलन से ली गई यह समझ, इस बात को समझने के लिए महत्वपूर्ण है कि भारत जोड़ो यात्रा, जिसमें लाखों लोग भाग ले रहे हैं, ने आज सत्ता की भीतर शासन के साथ बड़े कॉरपोरेट्स के बीच सांठगांठ को कैसे उजागर किया है। इस तरह के कॉर्पोरेट जो अधिकांश मीडिया पर पूरा नियंत्रण रखते हैं और सरकार की नीतियों को उनके अनुकूल तरीके से आकार देने में एक निर्णायक भूमिका निभाते हैं। आज की स्थिति हमारे सामूहिक जीवन में उनकी आधिपत्य की ताक़त की गवाही देती है। और यह कांग्रेस पार्टी के आज़ादी के आंदोलन के दौरान व्यापारिक घरानों को प्रभावित किए बिना अपनी नीतियों की स्वायत्तता की रक्षा करने के ठीक विपरीत है।

भारत जोड़ो यात्रा और कृषि आंदोलन ने खुले तौर पर भारत के सबसे प्रभावशाली कॉर्पोरेट्स को निशाना बनाया था। इसलिए, एक राजनीतिक दल की यात्रा और एक गैर-राजनीतिक आंदोलन में एक बात तो समान है: कि दोनों प्रधानमंत्री मोदी के नेतृत्व वाली राजनीतिक सत्ता के साथ क्रोनी पूंजीपतियों के संबंध को उजागर करने का प्रयास कर रहे हैं।

याद कीजिए कि जब दो साल पहले राहुल गांधी ने 4 अक्टूबर, 2020 को लुधियाना के पास जट्टपुरा में एक किसान रैली को संबोधित किया और प्रधानमंत्री पर आरोप लगाया कि वे  उनका इस्तेमाल कॉरपोरेट्स अपने हितों कॉ साधने के लिए कर रहा है। उन्होंने कहा, “ये नरेंद्र मोदी की सरकार नहीं है। ये अंबानी और अदानी की सरकार है। नरेंद्र मोदी उनके लिए ही काम करते हैं, और वे जो कहते हैं, नरेंद्र मोदी वही करते हैं- यह नरेंद्र मोदी की सरकार नहीं है - यह बड़े कॉरपोरेट की सरकार है और नरेंद्र मोदी उनके लिए काम करते हैं। अपनी पूरी यात्रा के दौरान, गांधी भारत की कुछ प्रमुख कंपनियों का हवाला देकर बड़े व्यापार-राजनीतिक गठजोड़ को निशाना बनाते रहे हैं।

शायद, उनके व्यापारिक साम्राज्य के प्रत्यक्ष संदर्भों ने अडानी समूह के प्रमोटर गौतम अडानी को अपनी छवि और व्यावसायिक गतिविधियों का बचाव करते हुए समाचार पत्रों और टेलीविजन चैनलों को साक्षात्कार देने के लिए प्रेरित किया। इन साक्षात्कारों में, उन्होंने कहा है कि पूर्व प्रधानमंत्रियों राजीव गांधी और नरसिम्हा राव के नेतृत्व वाले कांग्रेस शासन के दौरान उनके हितों में तेजी आई थी।

यह भी उल्लेखनीय है कि लोगों ने सत्ता में सरकार के साथ कुछ बड़े कॉर्पोरेट्स के घनिष्ठ संबंध के बारे में राहुल गांधी की टिप्पणी पर सहमति व्यक्त की है। उन्हें जो स्वीकृति मिल रही है, वह भारतीय राजनीति और नीतियों को गढ़ने में इन कॉरपोरेट्स की वर्चस्ववादी भूमिका को दर्शाता है। यह भी एक अचूक संकेत है कि शासन के प्रमुख क्षेत्रों से नव-उदारवादी सत्ता का पैर खींचना और निजी क्षेत्र को रोजगारविहीन विकास का इंजन बनने देना, आम लोगों में इसका असर सही नहीं गया है।

व्यापार-समर्थक राजनीतिक व्यवस्थाओं का झुकाव

क्रिस्टोफ़ जाफ़रलॉट, अतुल कोहली और कांता मुरली ने मॉडर्न साउथ एशिया द्वारा 2019 में प्रकाशित अपनी सह-संपादित पुस्तक, ‘बिज़नेस एंड पॉलिटिक्स इन इंडिया’ की प्रस्तावना में लिखा है कि: “पिछले तीन से चार दशकों में, भारत में राजनीति और नीति लगातार व्यापार-समर्थक दिशा में आगे बढ़ी है।” वे कहते हैं कि 1980 में ही इंदिरा गांधी के सत्ता में लौटने पर राजनीतिक और नीतिगत झुकाव में बदलाव की "शुरुआत" की गई थी। इस झुकाव को उनके बेटे राजीव गांधी ने आगे बढ़ाया और 1991 में वह आर्थिक उदारीकरण में बदल गया था। और वे लिखते हैं कि, "नरेंद्र मोदी के वर्तमान में भारत के प्रधानमंत्री होने से, एक समाजवादी राजनीतिक अर्थव्यवस्था से धीमे ही सही लेकिन उस निश्चित बदलाव से मुड़ना मुश्किल होगा जो आर्थिक विकास और व्यावसायिक हितों को तेजी से प्राथमिकता देता है।" 

मोदी के उदय ने कॉर्पोरेट हितों को और भी अधिक प्राथमिकता दी है और भारतीय अर्थव्यवस्था के लिए समाजवादी आयाम के मामूली रूप को भी बुनियादी तौर से बदल दिया है। जाफरलॉट ने "बिजनेस फ्रेंडली गुजरात" पर अपने अध्याय में मोदी के मुख्यमंत्री के रूप में उनके कार्यकाल के दौरान छोटे और मध्यम व्यवसायों की कीमत पर बड़े कॉर्पोरेट्स पर जोर देने के बारे में लिखा है। इसने आर्थिक विकास और औद्योगीकरण को बढ़ावा दिया लेकिन  स्वास्थ्य और शिक्षा क्षेत्रों को धन से भूखा बना दिया था।  

जैफ्रेलॉट लिखते हैं, “विशाल निगमों को प्रदान की जाने वाली बड़ी सब्सिडी ने सार्वजनिक वित्त में कटौती की है; जिसके कारण इस दबाव के चलते शिक्षा और स्वास्थ्य के निवेश में गिरावट आई है। बड़ी कॉर्पोरेट फर्मों के निवेश का पैटर्न भी अधिक पूंजी गहन रहा है, जिससे अतीत की तुलना में निवेश की प्रति यूनिट ने कम नई नौकरियां पैदा की हैं। एक महत्वपूर्ण अवलोकन यह है कि "सरकार-व्यापार सहयोग के साथ-साथ व्यापक भ्रष्टाचार भी हुआ है।"

लेखक यह भी लिखते हैं कि भारतीय राजनीति का एक कैज्वल ऑब्जर्वर भी इस बात से नहीं चूकेगा कि कैसे मोदी "शायद पहले भारतीय प्रधानमंत्री हैं जिन्हें व्यापारिक समुदाय के नेताओं ने खुले तौर पर अभिषिक्त किया गया है"। भारत जोड़ो यात्रा के दौरान जताई गई सावधानी की आवाजें और उनके आंदोलन के दौरान व्यक्त की गई किसानों की आशंकाएं इस प्रकार जाफरलॉट और उनके सह-संपादकों के विद्वतापूर्ण विश्लेषण के साथ मिलती नज़र आती हैं।

'टाटा-बिड़ला की सरकार' का दौर

भारत में एक समय था जब विपक्षी दलों और जन-आंदोलनों ने कांग्रेस शासन को "टाटा-बिड़ला की सरकार की सरकार" के रूप में वर्णित किया था। उनकी मुख्य चिंता यह थी कि कांग्रेस की नीतियों ने इन कॉर्पोरेट घरानों का पक्ष लिया है, जिन्होंने आर्थिक लाभ हासिल कर अपने व्यापारिक हितों का विस्तार किया था। सार्वजनिक क्षेत्र की इकाइयों को उन दिनों कॉरपोरेट्स द्वारा अधिग्रहित नहीं किया जाता था, जिसे करने में अब सत्ताधारी दल और सरकार सक्षम हैं। 2014 से पहले और बाद में राजनीतिक-कॉर्पोरेट गठजोड़ कैसे संचालित होता है, यह एक और महत्वपूर्ण अंतर है।

लोकतंत्र नागरिकों से सरकार चलाने की ताक़त और वैधता हासिल करता है, न कि कॉर्पोरेट्स से 

राजनीति और नीतियों को आकार देने में कॉरपोरेट्स की वर्चस्ववादी भूमिका का बढ़ना और नागरिकों की चिंताओं को दरकिनार करना लोकतंत्र को नुकसान पहुंचाता है। जाफरलॉट और अन्य ने नोट किया कि वर्तमान युग में व्यापार, फिर बड़े व्यापार, संकीर्ण पूंजीवादी हितों को बढ़ावा देता है और लोकतंत्र की वैधता को कमजोर करता है। ऐसा इसलिए है क्योंकि लोकतंत्र की वैधता को बनाए रखने के लिए नागरिकों और समूहों के व्यापक स्पेक्ट्रम के बीच सत्ता तक पहुंच जरूरी है। व्यावसायिक समूह पूंजीवादी व्यवस्था में केंद्रीय और वैध भागीदार होते हैं, लेकिन हित समूह जितना संकीर्ण होता जाता है, और जब यह "वीटो पावर" पा लेता है, तो यह लोकतांत्रिक कामकाज के लिए खतरा बन जाता है।

इन सब कारणों से नागरिकों को भारत जोड़ो यात्रा के प्रति जागृत होते देखना सुखद लगता है। एक राजनीतिक दल और हाल के दिनों में एक लोकप्रिय आंदोलन द्वारा व्यक्त यह भावना, इस बता का संकेत है कि नागरिक, क्रोनी पूंजीवाद के खतरे से अवगत हैं। जब ऐसे हित सार्वजनिक नीतियों को अपने पक्ष में करने का प्रयास करते हैं, तो इसके इलाज़ के प्रति उम्मीद पैदा करने के लिए लोकप्रिय आंदोलन भी पैदा होते हैं। आखिरकार, हमारे लोकतंत्र का अस्तित्व ही दांव पर लगा है।

लेखक, भारत के पूर्व राष्ट्रपति केआर नारायणन के ऑफ़िसर ऑन स्पेशल ड्यूटी रह चुके हैं। व्यक्त विचार व्यक्तिगत हैं।

इस लेख को मूल अंग्रेज़ी में पढ़ने के लिए नीचे दिये गए लिंक पर क्लिक करें।

Why Rahul Gandhi Targets Crony Capitalists in Bharat Jodo Yatra

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