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कितना याद रखें, कितना मन को मनाएं और कितना भूलें? 

इस बात को लेकर जरा भी विवाद नहीं है कि विभाजन की त्रासदी के शिकार लोगों एवं उनके परिजन हरेक भारतीय की सहानुभूति एवं समर्थन के हकदार हैं। 
कितना याद रखें, कितना मन को मनाएं और कितना भूलें? 

प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी एक बार फिर इस पर मुद्दे पर बोले। वे विवाद पैदा करने में माहिर हैं। उनका लक्ष्य बड़ा सरल है। हिन्दुत्व की भावना को उभाड़ने वाली बातों को नियम से थोड़े-थोड़े दिनों पर बाद हवा देते रहना, उनका शगल है, जिससे कि लोग इसी में मशगूल रहें और वे उनसे चीजों की बढ़ती कीमतों, बढ़ती बेरोजगारी, एवं गतलखाते में जा रही देश की विदेश नीति को लेकर परेशान करने वाले प्रश्नों को पूछना न शुरू कर दें। यहां तक कि केंद्र-राज्य संबंधों या पेगासस खुफिया सॉफ्टवेयर के मद्देनजर देश के नागरिकों की निजता एवं उनकी गोपनीयता की रक्षा के अधिकार जैसे बड़े सरोकारों के बारे में सवाल न पूछने लगें। 

नरेन्द्र मोदी के डिसप्ले बोर्ड पर अब एक नया आइटम टंग गया है, वह उनकी नई घोषणा है, जिसमें कहा गया है कि हरेक साल 14 अगस्त (15 अगस्त भारत का स्वतंत्रता दिवस है।) को विभाजन विभीषिका स्मृति दिवस के रूप में मनाया जाएगा। याद करें कि 14 अगस्त पाकिस्तान का स्वतंत्रता दिवस है। यह दो पड़ोसी देशों के लिए शायद ही वांछनीय होगा कि वे एक ही दिन को परस्पर शोक दिवस एवं समारोह दिवस के रूप में मनाएं। एक तंग राजनयिक नजरिये बोलते हुए, यह सुनिश्चित किया गया है कि भारत उस दिन पाकिस्तान को एक उसकी आजादी की सालगिरह पर एक बधाई संदेश तक नहीं भेज सकता है। यह ठीक है कि पाकिस्तान आज भारत का नम्बर एक दुश्मन देश हो सकता है, लेकिन किसी दिन उसके साथ हमारे रिश्ते सुधर भी सकते हैं, अंतरराष्ट्रीय संबंधों में यह आम तौर पर देखने को मिलता है।

स्वतंत्रता दिवस पर लाल किले के प्राचीर से प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने घोषणा की: “मेरे प्यारे देशवासियों, जबकि आज के दिन हम आजादी का जश्न मनाते हैं, लेकिन बंटवारे का दर्द आज भी हिंदुस्तान के सीने को छलनी करता है। यह पिछली शताब्दी की सबसे बड़ी त्रासदी में से एक है। स्वतंत्रता मिलने के बाद, ये लोग इसे तत्काल भूल गए थे। अभी कल ही भारत ने उसकी याद में एक भावुक निर्णय किया है। हम लोग विभाजन के सभी पीड़ितों की याद में आगे से 14 अगस्त को विभाजन विभीषिका स्मृति दिवस के रूप में मनाएंगे। वे लोग जो अमानवीय परिस्थितियों के शिकार हुए थे, क्रूर व्यवहारों से पीड़ित हुए थे, उन्हें एक सम्मानजनक अंतिम संस्कार का अधिकार भी न मिला। वे सभी अवश्य ही हमारी स्मृतियों में जिंदा रहेंगे और हमारी यादों से कभी नहीं मिटेंगे। भारत की स्वतंत्रता की 75वीं वर्षगांठ के अवसर पर विभाजन विभीषिका स्मृति दिवस मनाने का निर्णय उनके शिकार हुए लोगों के प्रति प्रत्येक भारतीयों की तरफ सच्ची श्रद्धांजलि है।”

यह थोड़ा हैरतअंगेज है कि प्रधानमंत्री के 80 मिनटों का लंबा संबोधन जिसमें सरकार के उच्चस्तरीय कार्यक्रमों के बारे में एवं जाति या पंथ (सबका साथ, सबका विकास, सबका प्रयास) से परे हटकर हरेक भारतीय के जीवनस्तर के उन्नयन के वादों जैसे सकारात्मक समाचारों से भरे होने के बीच क्या ऐसे विभाजनकारी तत्व का समावेश किया जाना चाहिए था। आखिरकार, वे शेखी बघार रहे थे कि यहां से आगे की 25 वर्ष की अवधि में देश गौरव (अमृतकाल) की दहलीज पर होगा। 

इस बात को लेकर जरा भी विवाद नहीं है कि विभाजन की त्रासदी के शिकार लोगों एवं उनके परिजन हरेक भारतीय की सहानुभूति एवं समर्थन के हकदार हैं। लेकिन दिक्कत है कि मोदी साफ तौर पर बंटवारे से पीड़ित होने वालों में केवल हिन्दू एवं सिख को गिन रहे थे एवं उनके लिए सहानुभूति की मांग कर रहे थे, गोया कि मुसलमान को कुछ भी नहीं झेलना पड़ा था। अगरचे आप मोदी के भाषण के मेरे इस अभिप्राय को नहीं मानते हैं, उनके भाषण को एक बार फिर पढ़ने का कष्ट करें: “

जिन लोगों को अमानवीय परिस्थितियों का सामना करना पड़ा, उनके साथ यातनापूर्ण व्यवहार किया गया, वे अपनों का एक सम्मानजनक दाह संस्कार तक नहीं कर सके (जोर दिया गया)।” अब मोदी के 2017 के उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनाव के दौरान दिए गए भाषणों की याद करें। इनमें उन्होंने हिन्दुओं शमशान के रख-रखाव में कोताही के लिए तात्कालीन उत्तर प्रदेश की समाजवादी पार्टी की अखिलेश यादव सरकार पर साफ तौर पर निशाना साधा था, और मुसलमानों के कब्रिस्तानों के रखरखाव को अधिक तवज्जो देने पर उस पर उंगली उठाई थी। इसके अलावा भी कई उदाहरण हैं, जब मोदी ने भारतीय मुसलमानों की कीमत पर हिन्दू वोटों को ऊर्जस्वित करने के प्रयास में वही संदेश भेज दिया था। इसलिए, मोदी की ताजा मुनादी पर इस कदर माथा ठनकने का एक बड़ा कारण है। 

मोदी ने जो कुछ कहा, उसका उनकी पार्टी के नेताओं ने तत्काल समर्थन कर दिया। भारतीय जनता पार्टी के विदेश मामले विभाग के प्रभारी विजय चौथाईवाले ने इसको और स्पष्ट कर दिया: “जरा उस स्थिति की कल्पना कीजिए: एक संयुक्त परिवार में, कोई शिशु जन्म लेता है और उसी दिन परिवार के एक सर्वाधिक प्रतिष्ठित सदस्य का क्रूरता से कत्ल कर दिया जाता है। जबकि सभी नवजात के आने का उत्सव मनाएंगे...तो कोई भी इस समारोह में कहेगा कि इस हत्या की बात को बस भुला देना चाहिए-अपने परिवार के वरिष्ठ जन की हत्या पर शोक करना तो दूर, आंसू गिराने की बात भी भूल जानी चाहिए?” अब जरा उनके “सबसे बड़े” और “सबसे प्रतिष्ठित व्यक्ति” जैसे शब्दों के उल्लेख पर गौर कीजिए। यहां उनका स्पष्ट आशय हिन्दुओं से है।

इसके अलावा, इस देश में कौन किसी को शोक मनाने अथवा आंसू बहाने से रोक रहा है? बंटवारे के मसले पर किए गए शोधग्रंथों के खंड के खंड (मौखिक रूप से कहे गए इतिहास समेत) बताते हैं कि हिन्दू, मुसलमानों एवं सिखों या इन्हीं के जैसे अन्य समुदायों को कैसी भीषण त्रासदी झेलनी पड़ी थी। मेरी जानकारी में, हालांकि, पीड़ितों के उनके समुदायों के आधार पर तो आंकड़े नहीं हैं, लेकिन इतना तो हम जानते हैं कि बंटवारे की विभीषका से लाखों लाख लोग पीड़ित हुए थे। खास स्थानों एवं परिस्थितियों के अंतर के साथ, सभी समुदाय के लोगों को एक जैसी शारीरिक एवं मनोवैज्ञानिक वेदना से गुजरना पड़ा था। 

देश के एक नामी-गिरामी भेंटकर्ता एवं टिप्णीकार करन थापर के एशियन एज में पखवाड़े के कॉलम में जम्मू में 1947 में हुए मुसलमान विरोधी दंगे से संबंधित लेख के प्रकाशित होने के बाद, अखबार के प्रबंधन ने इसे असुविधानजनक महसूस किया और उनके कॉलम को आगे से रोक दिया। संभवतः इस पेपर में यह उनका आखिरी स्तंभ था। थापर का ‘जुर्म’ इतना था कि उन्होंने जम्मू में 1947 के अक्टूबर-नवम्बर में वहां के मुसलमानों के कत्लेआम के बारे में लिख दिया था। उस समाचार पत्र के संपादकगण इस बात से जरूर सहमत होंगे कि एक लेख को प्रकाशित होने से रोक कर वास्तविकता को ढंका-मुंदा नहीं जा सकता:  यह सच है कि जम्मू में भारी तादाद में मुसलमानों का संहार किया गया था। क्या हमने नहीं पढ़ा है कि नोआखाली (पूर्वी बंगाल, जो अब बांग्लादेश का हिस्सा हो गया है) में हिन्दुओं की हत्याओं का बदला तारापुर (बिहार) और गढ़मुक्तेश्वर (उत्तर प्रदेश) में भारी तादाद में मुसलमानों का संहार कर लिया गया था?

स्मृति का विज्ञान एक गंभीर अकादमिक उपक्रम है। इसे क्षुद्र राजनीतिक नेताओं की भनभनाहट (पिंग-पोंग) के हवाले नहीं कर देना चाहिए। लेख की अपनी सीमा को देखते हुए मैं यहां जल्दी से कुछ बिंदुओं को रखता हूं। पहला, जवाहरलाल नेहरू ने विभाजन की उस असह्य पीड़ा से पार पाने के लिए अपने कार्यकाल में एक समावेशी राष्ट्र-निर्माण एवं विकास कार्यक्रमों के प्रति अपनी प्रतिबद्धता पूरी करने में अपने आप को झोंक दिया था। दो, त्रासदी के साथ तालमेल बिठाना न केवल आवश्यक है बल्कि इसके लिए सतत मानवीय प्रयास की आवश्यकता भी होती है, जैसा कि प्रलय या सर्वनाश एवं विगत में हुई त्रासदियों के अनेक अनुभवों से हमें सीख मिलती है। 

इन दिनों तो इतिहास की किताबों से नेहरू का पन्ना फाड़ देने का, उनके अवदानों को मिटा देने का का जैसे एक राजनीतिक फैशन हो गया है। नेहरू के विरोधियों का विश्वास है कि अगर इस आदमी के बारे में देश के बच्चों को नहीं बताया गया तो आज से 50 साल बाद सभी भारतीय यही मानने लगेंगे कि भारत का स्वतंत्र इतिहास उनके देहावसान के दिन 27 मई 1964 से ही शुरू होता है। नेहरू को नीचा दिखाने की भाजपा की प्रवृत्ति कभी-कभी उसे क्षुद्रता के पाताल में धकेल देती है। हाल ही में, सरकार के दखल वाले (हालांकि तकनीकी तौर पर स्वायत्त) भारतीय इतिहास अनुसंधान परिषद (आइसीएचआर) ने भारत की आजादी की 75वीं सालगिरह पर एक पोस्टर जारी किया है। इसमें पोस्टर में, महात्मा गांधी, बीआर अम्बेडकर, सरदार पटेल, सुभाष चंद्र बोस, राजेन्द्र प्रसाद, मदन मोहन मालवीय, भगत सिंह एवं विनायक दामोदर सावरकर (हिन्दुत्व विचारधारा के जनक) के चित्र उकेरे गए हैं। लेकिन नेहरू की तस्वीर जानबूझ कर उसमें शामिल नहीं की गई है। 

जैसा कि अन्य ऐतिहासिक शख्सियत के साथ होता है, कोई भी नेहरू की नीतियों के अनेक आयामों की आलोचना कर सकता है। लेकिन यह अतिरिक्त उत्तेजना एवं उनको इतिहास से मिटा देने का हताशा भरा प्रयास न तो राजनीति के लिहाज से अच्छा है और न ही इतिहास के लिए भला है। तथ्य तो यह है कि पश्चिमी पंजाब से आए लाखों लाख शरणार्थियों के पुनर्वास समेत विभाजन के आघात से निबटने के सवाल पर नेहरू के योगदान उल्लेखनीय हैं। इससे भी बढ़कर, वे इससे बेहतर वाकिफ थे कि भारत के विकास के स्पष्ट लक्ष्यों एवं राष्ट्र-निर्माण की प्राथमिकताओं के लिहाज से बंटवारे के आघात को लोगों की स्मृति या मानसिकता पर हावी न होने देना कितना महत्त्वपूर्ण है। 

जवाहरलाल नेहरू ने अपने 17 वर्षों के प्रधानमंत्री के कार्यकाल में, भारत सरकार के तत्वावधान में कार्यरत फिल्म्स डिविजन ऑफ इंडिया ने लगभग 1,700 डॉक्यूमेंटरी फिल्म बनाईं जिनका एकमात्र मकसद देश में जारी विभिन्न विकास परियोजनाओं के बारे में आम लोगों को जागरूक करना था, उन्हें शिक्षित बनाना था। इन वृत्त चित्रों में देश में बनने वाले नए-नए पुलों, बांधों, बिजली घरों, इंजीनियरिंग कॉलेजों एवं महत्त्वपूर्ण सार्वजनिक सेवाओं के शुरू किए जाने की कहानियां होती थीं। यह सब करते हुए भी इनमे बंटवारे का जिक्र तक नहीं किया गया था। यहां तक कि बॉलीवुड तक ने बंटवारे की स्मृतियों को खुरचने में सकारात्मक भूमिका निभाई थी। (इस प्रसंग में 1960 के इस गीत को याद करें-छोड़ों कल की बातें, कल की बात पुरानी। नए दौर में लिखेंगे हम मिलकर नई कहानी; यानी कटु अतीत को बिसरा दें।)। लेकिन इसने मुस्लिम संस्कृति एवं उसके अस्तित्व के संकट की थीम को छू दिया था, यह एक दूसरा विषय था, जिसे फिल्म्स डिविजन के वृत्त चित्रों से परहेज किया गया था।

अब हम अपने दूसरे बिंदु पर आते हैं, एक सामूहिक त्रासदी के साथ सामंजस्य बिठाने की क्या अहमियत है और वह कितनी जरूरी है, इसे समझने के लिए मार्था मिनोव की किताब मददगार हो सकती है, जिनकी इस विषय पर महारत हासिल हैं। अपनी किताब, Between Vengeance and Forgiveness (1998), में वे लिखती हैं,“ प्रतिशोध और क्षमा के बीच का रास्ता तलाशना भी अत्यधिक स्मृति और अत्यधिक भूलने के बीच का एक मार्ग का तलाश करना है। अत्यधिक स्मृति भी एक प्रकार की बीमारी होती है।” इसी तरह, इसी विषय के एक अन्य लेखक लिखते हैं,“हम बीती यादों के कैदी होकर ही तो अतीत को जिंदा रखते हैं। हम इसको भूले बिना भविष्य में इसके दोहराए जाने के जोखिम से कैसे बच सकते हैं?”

इस प्रसंग में कुछ किए गए व्यावहारिक प्रयासों का यहां स्मरण करना महत्त्वपूर्ण हो सकता है। 1992 की शुरुआत में, मोना सू वेसमार्क, जिनके माता-पिता नाजी कंस्ट्रेशन कैंपों में किसी तरह जिंदा बच गए थे, और इलोना कुफाल ने, जिनके पिता नाजी एसएस (शुट्ज़स्टाफ़ेल, एक शीर्ष अर्ध सैन्यबल की ईकाई) के अफसर के रूप में अपनी सेवाएं दी थी, उन दोनों बेटियों ने मिलकर उस सामूहिक संहार में बचे हुए लोगों के बच्चों एवं नाजियों के बच्चों को परस्पर मिलाने का एक सिलसिला चलाया था। इसके पीछे उनका मकसद पीढ़ीगत यादों और उनके अपराधबोध,  उनके क्रोध और आक्रोश की भावनाओं की खोज के माध्यम से भविष्य के साझा पुनर्निर्माण की संभावनाओं को खंगालना था। नेल्सन मंडेला का ट्रूथ एंड रिकॉंन्सिलेशन कमीशन का गठन भी इसी विचार का एक दूसरा उदाहरण है, जिसे व्यवहार में उतारा गया है। इसी तरह, अपने देश में, पूर्व प्रधानमंत्री राजीव गांधी की बेटी प्रियंका गांधी और उनके पिता की हत्या में शामिल नलिनी श्रीहरन के बीच 15 अप्रैल 2008 को वेल्लोर जेल में हुई मुलाकात भी कठिन यादों के साथ तालमेल बिठाने का एक ताजा उदाहरण है। इस भेंट के बाद प्रियंका ने कहा था, “मैंने जिस हिंसा और नुकसान को (इतने वर्षों में) अनुभव किया है, उनके साथ शांतिपूर्ण तरीके से रहने का यह (भेंट) मेरा अपना तरीका था।” 

पुनश्च:  बंटवारे के कारण हुए हिन्दू-मुस्लिम आघात की पृष्ठभूमि के विपरीत, बॉलीवुड उस समय के नेहरूवादी धर्मनिरपेक्ष लोकाचार के साथ उल्लेखनीय रूप से जुड़ा हुआ था। 1947 की पृष्ठभूमि पर बनी हुईं तब की अधिकांश फिल्मों में हिन्दू एवं मुस्लिम किरदारों में एक जुड़ाव स्पष्ट दिखता था। यह प्रायः होता था कि मुस्लिम अभिनेता या अभिनेत्री हिन्दू किरदार निभाएं और हिन्दू नायक-नायिकाएं मुस्लिम किरदार। अमर फिल्म (1954) ऐसी ही एक फिल्म है। इसका गीत ‘इंसाफ का मंदिर है ये, भगवान का घर है’; यह मुस्लिम मामला था, जिसे एक मंदिर में फिल्माया गया था। मेहबूब खान ने इस दृश्य को निर्देशित किया था, दिलीप कुमार, मधुबाला एवं निम्मी ने, जो सभी के सभी मुस्लिम थे, उन्होंने मुख्य हिन्दू भूमिकाएं निभाई थीं। शकील बदायूनी के गीत को नौशाद ने संगीतबद्ध किया था और जिसे गाया था कभी न भुलाए जा सकने लायक गायक मोहम्मद रफी ने।

ऐसे में यहां कहना लाजिमी है कि अपने दुश्मनों की कोशिशों के बावजूद “भारत का विचार” बरकरार है। इसी साल मार्च-अप्रैल में पश्चिम बंगाल विधानसभा चुनाव में हिन्दू-मुस्लिम के बीच बढ़ते ध्रुवीकरण की रिपोर्टिंग करते हुए दि हिन्दू के संवाददाता शिव सहाय सिंह ने अपनी डायरी के पन्ने पलटे और उसमें एक लिखे नोट का उल्लेख किया: ‘2017 में बसिरहाट में हुए दंगे के दौरान, 65 साल के कार्तिक घोष को भी छुरा घोप दिया गया था। उनके बेटे प्रभासीश घोष जब अपने घायल पिता को अस्पताल ले जा रहे थे तो इसी हिंसा के शिकार हुए एक अन्य व्यक्ति फजलुम इस्लाम को भी उसी एंबुलेंस में अस्पताल ले गए थे। इलाज के दौरान ही उनके पिता की मृत्यु हो गई लेकिन इस्लाम बच गए थे। इसी तरह, आसनसोल में 2018 में हुए दंगे में मौलाना इमादुल्लाह राशिदी ने अपने 16 वर्षीय बेटे के मारे जाने के बाद भी अपने समुदाय के लोगों से हिंसा से तौबा करने की अपील की थी। मौलाना ने ऐलानिया तौर पर कहा था “अगर हमारे समुदाय के लोगों ने दूसरे समुदाय के लोगों को निशाना बनाया तो मैं यह शहर छोड़कर चला जाऊंगा।”

(लेखक नई दिल्ली के इंस्टिट्यूट ऑफ सोशल साइंसेज में सीनियर फेलो हैं, इसके पहले वे आइसीएसएसआर के नेशनल फेलो भी रहे हैं और जेएनयू में दक्षिण एशियाई अध्ययन केंद्र में प्रोफेसर हैं। लेख में व्यक्त विचार उनके निजी हैं।)

अंग्रेजी में मूल रूप से प्रकाशित लेख को पढ़ने के लिए नीचे दिए गए लिंक पर क्लिक करें

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