कटाक्ष: लो जी, आपने यजमान भी न बनने दिया
बेचारे भक्तों को कम से कम अब इस तरह के सवालों से छुट्टी मिल जानी चाहिए कि बेचारे सीता और राम को अलग क्यों कर दिया? न सियाराम रहने दिया, न सीताराम। जै-जै राम, सीताराम भी नहीं। राम अकेले-अकेले। न सीता साथ में, न लक्ष्मण और तो और हनुमान भी साथ में नहीं। हां धनुष जरूर साथ में, वह भी कंधे पर आराम से विश्राम करता हुआ नहीं, चढ़ी हुई प्रत्यंचा के साथ, हाथ में। बाण छोड़ने को हर क्षण तैयार। सदा क्रोध से भरे हुए। शांति और कोमलता से कोसों दूर। पहले के राम तो ऐसे नहीं थे। पर पहले ऐसा किसी पीएम के साथ भी तो नहीं हुआ था, जैसा अब मोदी जी के साथ हुआ है। सब करने धरने के बाद भी बेचारे अपने ही राज में बने राम मंदिर में, अपने के निर्देशन में हो रही प्राण प्रतिष्ठा में, खुद मुख्य यजमान बनने से चूक गए। अरे चूक क्या गए, दुश्मनों ने मुख्य यजमान का मिला-मिलाया आसन छिनवा दिया, बेचारे से।
जिस आसान के लिए राजा होकर भी कठोर तप-त्याग किया। मंदिरों में झाड़ू-पोंछा तक किया और अपने सारे मंत्रियों से भी कराया। जमीन पर कंबल पर सोए। सिर्फ फलाहार किया और जल भी सिर्फ नारियल का पिया। गायों को चारा खिलाया। डटकर दान-पुण्य किया। राज्यों को घूम-घूमकर सरकारी खजाने से गिफ्ट पर गिफ्ट दिए। फिर भी, दुष्ट विरोधियों ने शंकराचार्यों से मिलकर मुख्य यजमान का आसन छिनवा दिया। और क्यों? सिर्फ एक अदद स्त्री के न होने की वजह से।
यजमान के आसन पर कोई सपत्नीक ही बैठ सकता है। हथौड़ामार दलील यह कि अश्वमेध यज्ञ के लिए तो राम को भी साथ में बैठने के लिए सोने की सीता बनवानी पड़ी थी। फिर मोदी जी कैसे जसोदा बेन के बिना मुख्य यजमान के आसन पर बैठ जाएंगे! तो जिस स्त्री का न होना तक बने-बनाए काम बिगड़वा सकता है, उसे पुरुष बेकार में क्यों सिर पर ढोते रहेंगे और कब तक! राम भी कब तक शुभ कार्यों में विघ्न डालने वाली सीता का नाम, अपने नाम से आगे लगाए रहते। तुलसीदास भी ऐंवें ही थोड़े ही कह गए थे--ढोल, गंवार...नारी, ये सब ताड़न के अधिकारी! ताड़न करना या देना अगर ज्यादा ही लगे तब भी, कम से कम नारी को शुभ कार्यों से दूर तो रखा ही जा सकता है, जिससे अमृतकाल में किसी पुरुष को वह नहीं झेलना पड़े, जो त्रेता में अश्वमेध के समय राम से लेकर, कलियुग में अमृतकाल के द्वार पर मोदी जी तक को झेलना पड़ा है।
रही बात राम के पहले जैसा नहीं रहने की तो, पहले तो और भी बहुत कुछ वैसा नहीं था, जैसा अब है। पहले मोदी जी पीएम थे क्या? नहीं ना। पहले योगी जी अयोध्या के सीएम भी नहीं थे। और पहले अयोध्या कौन सी वही थी, जो अब है। बस नाम ही पहले वाला है। और वह भी मोदी जी-योगी जी की कृपा है कि इतना कुछ बदल दिया, फिर भी नाम नहीं बदला, जबकि वे तो नाम पहले बदलने में विश्वास करते हैं, बाकी कुछ बदले नहीं बदले। अयोध्या नगरी थी, अवधपुरी थी, पर अयोध्या धाम कभी नहीं था। पर अब है। पुराना नाम, नया धाम।
और भव्य राम मंदिर--उसकी तो पहले बात ही कौन करता? राम लला को पहली बार ही अपना पक्का घर मिला है, वर्ना तीस-बत्तीस साल से तो बेघरों की तरह तंबू में ही पड़े हुए थे। उसके पहले घर जरूर था और घर भी पक्का था, चार सौ साल से ज्यादा पुराना। फिर भी घर अपना नहीं था, जबरन कब्जे का था। और उससे पहले? दरवाजा तोडक़र मस्जिद में प्रकट होने से पहले की कहानी राम जी ही जानें! पर बाद की कहानी से डिफरेंट तो जरूर ही होगी।
असल में सीता जी तो तभी पीछे छूट गयी थीं, जब पिचहत्तर साल पहले रामलला प्रकट हुए थे। झगड़े के बीच अकेले ही प्रकट हो गए, इतना ही बहुत था। पूरे दरबार के साथ प्रकट होने चलते, तब तो हो लिया था प्राकट्य! ऐसे लड़ाई-झगड़े के कामों में बंदा अकेला ही सही रहता है। कम से कम लेडीज लोग का ऐसे मौकों पर कोई काम नहीं है। उल्टे उनके होने से बंदा लड़ाई में कमजोर ही पड़ता है। लेडीज को बचाए या विरोधियों से भिडऩे जाए! रही बाल रूप में भी योद्धाओं के तेवर की बात, तो लड़ाई-झगड़े में बंदा ऐसा हो ही जाता है। बचकाना भोलापन काम नहीं आता, हाथ में हथियार से लेकर, चेहरे पर रौद्र तक, विरोधियों को डराने के लिए सब कुछ चाहिए। भगवा पलटनों से बेहतर इसे कौन जानता है। मस्जिदों के सामने डीजे बजाकर डांस करते हैं, तब भी सिर्फ डराते हैं। डराना जरूरी है। तुलसी दास जी ही तो यह भी कह गए हैं कि--भय बिनु प्रीति होइ नहीं देवा! भय होगा, डराने वाले से प्रीति तो तब भी होगी। राहुल गांधी जैसे लोग बेकार मोहब्बत की दुकान का शोर मचाते हैं और डराने वालों को नाहक नफरत-नफरत कहकर बदनाम करते हैं। असली मोहब्बत तो नफरत फैलाने वाले ही फैलाते हैं। डरने वाले और डराने वाले, सब के बीच मोहब्बत। समरसता इसी को तो कहते है। मंदिर वहीं बनवाने वाले राम जी भी अगर मोहते कम हैं और डराते ज्यादा हैं, तो इसमें भी बुरा क्या है?
(इस व्यंग्य स्तंभ के लेखक वरिष्ठ पत्रकार और लोक लहर के संपादक हैं।)
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