गाज़ा पर भारत का रुख सस्टेनबल क्यों नहीं है इसके 10 कारण हैं
रविवार, 8 अक्टूबर, 2023 को इज़राइली हवाई हमले के बाद गाज़ा शहर में उठता आग और धुआं
शनिवार को हमास और इज़राइल के बीच बड़े पैमाने पर भड़की हिंसा पर भारतीय प्रतिक्रिया ज़मीनी सच्चाई को झुठलाती नज़र आती है जो उस इलाके और विश्व स्तर पर भू-राजनीतिक माहौल की अनदेखी करती है, जबकि इस प्रलयंकारी घटना के सावधानीपूर्वक मूल्यांकन की आवश्यकता है। यह रुख टिकाऊ साबित नहीं होगा और देश के हितों और विश्व स्तर पर देश की प्रतिष्ठा को नुकसान पहुंचा सकता है।
एक तो यह कि भारतीय नीति स्पष्ट रूप से इज़राइल की ओर झुकी हुई है। अटकलों का यह मामला उस वक्त तूल पकड़ गया जब शनिवार को प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के ट्वीट में इज़राइल के साथ भारत की 'एकजुटता' को रेखांकित किया गया था।
यह गूंजती हुई अभिव्यक्ति फ़िलिस्तीन मुद्दे पर भारत के लगातार रुख से एक ऐतिहासिक प्रस्थान का प्रतीक है, जिसे वास्तव में, गांधीजी के नक्शे कदम से दूर जाना कहा जा सकता है, जिनके पास पश्चिमी शक्तियों द्वारा थोपे गए पश्चिम एशिया पर भू-राजनीतिक प्रभाव से ले क्रूर तरीके से फ़िलिस्तीनी मातृभूमि पर इज़राइल के निर्माण का विरोध करने की विवेक और दृष्टि थी।
जिस मुद्दे पर एंजल भी कदम उठाने से डरते हैं, उस पर इस आमूल-चूल बदलाव ने किस बात को प्रेरित किया, यह एक पहेली के भीतर रहस्य में लिपटी एक पहेली बनी हुई है।
दूसरा यह कि, दिल्ली को आने वाले हफ्तों या महीनों में गाजा में क्या होने वाला है, उसका 'पूर्वावलोकन' करने का लाभ मिला है। प्रधान मंत्री बेंजामिन नेतन्याहू ने घोषणा की है कि "दुश्मन इस हमले की भारी कीमत चुकाएगा" और वादा किया कि "इज़राइल इस हमले का ऐसे जवाब देगा जिसके बारे में दुश्मन को पता नहीं है" और इसी के साथ उन्होंने गाजा पर युद्ध की घोषणा कर दी।
नेतन्याहू की विवेकहीन हिंसा की क्षमता बहुत अधिक है। फिर भी, दिल्ली ने भावनात्मक, व्यक्तिपरक स्तर पर प्रतिक्रिया व्यक्त की है।
तीसरा, ज़मीनी हमले और यहां तक कि गाजा पर कब्जे की संभावना वास्तविक है। सीधे शब्दों में कहें तो, भारत का पेटेंट मंत्र कि 'यह युद्धों का युग नहीं है' उसे नेतन्याहू से दूरी बनाने के लिए बाध्य कर सकता है। लेकिन इसके बजाय, भारत राजनीतिक, नैतिक और कूटनीतिक तौर पर होने वाले नरसंहार में एक तरह से पक्षपात करने का जोखिम भरा क़दम उठा रहा है।
ऐसे महत्वपूर्ण मोड़ पर, कम से कम, हमारी सरकार एक 'विश्व गुरु' है जो वसुधैव कुटुंबकम (दुनिया एक परिवार है) की धारणा का अथक प्रचार करती है, वह इस रुख से सब कुछ उजागर कर रहा है। भारत की भूमिका जोड़ने वाली होनी चाहिए।
चौथा, भारत की प्रतिक्रिया स्पष्ट रूप से ग्लोबल साउथ/वैश्विक दक्षिण की भावनाओं के उलट है। क्योंकि, 'सामूहिक पश्चिम' के अलावा, भारत वैश्विक बहुमत में एक अकेला रेंजर बन गया है जो इज़राइल के साथ कंधे से कंधा मिलाकर खड़ा है। हिंसा के पीड़ितों के प्रति सहानुभूति एक बात है, लेकिन सामूहिक पश्चिम के लिए राजनीतिक समर्थन (वास्तव में, विश्व राजनीति में प्रचलित माहौल में यही होता है) दूसरी बात है।
दो दिन बाद जब व्लादिमीर पुतिन ने एक ख़ास भाषण में बहुध्रुवीय दुनिया में एक सभ्य हुकूमत के रोल मॉडल के शानदार उदाहरण के रूप में मोदी के भारत की प्रशंसा की, और इसे शिकारी नव-औपनिवेशिक पश्चिमी शक्तियों से अलग बताया था, तो ऐसा कर भारत ने उनकी थीसिस को अस्वीकार कर दिया है।
इसमें कोई संदेह नहीं है कि भारतीय रुख ग्लोबल साउथ/वैश्विक दक्षिण के नेता होने के दावे के विरोधाभास को उजागर करता है।
पांचवां, इज़राइल की प्रतिक्रिया, जो पहले से ही चालू है, उसके बड़े पैमाने पर, निरंतर और क्रूर होने की उम्मीद है। गाजा पर इज़राइली कब्जे की बहुत अधिक संभावना है, फिर भले ही यह अंततः कितना भी मूर्खतापूर्ण साबित हो। इज़राइली रक्षा मंत्री योव गैलेंट के "गाजा में हक़ीक़त को बदलने" की कसम खाने वाले डरावने शब्दों का मतलब यह होगा कि क्षेत्र और वैश्विक दक्षिण के देशों और यहां तक कि अमेरिका और यूरोप में 'इज़राइल के दोस्तों' के लिए भी निष्क्रिय रहना मुश्किल हो जाएगा।
छठा, संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद का स्थायी सदस्य बनने की भारत की योग्यता के संबंध में परेशान करने वाले प्रश्न उठ सकते हैं। आख़िरकार, क्या भारत अपने हितों के अलावा किसके हितों का प्रतिनिधित्व करता है? यह एक कठिन प्रश्न बन गया है जिसका कोई आसान उत्तर नहीं है। संक्षेप में कहें तो, लगातार भारतीय नेतृत्व और राजनयिकों की दशकों की कड़ी मेहनत का फल बर्बाद हो रहा है।
सातवां, सभी युद्ध बातचीत के माध्यम से समाप्त होते हैं। लेकिन यह आने वाला युद्ध लंबा और व्यापक होगा। नेतन्याहू एक चतुर राजनेता, जो घरेलू स्तर पर भारी दबाव में हैं, व्यक्तिगत कानूनी आरोपों का सामना कर रहे हैं और अति-राष्ट्रवादी और दक्षिणपंथी साझेदारों की मदद से सत्ता पर काबिज़ हैं, इज़राइल के महान रक्षक के रूप में अपनी प्रतिष्ठा बचाने और सभी को अपने पीछे लाने के अवसर का लाभ उठाएंगे। उनके देश में राजनीतिक और सुरक्षा महकमे, जो गहराई से विभाजित है, और हमास के साथ बातचीत की मेज पर बैठने की कोई जल्दी नहीं करेगा।
दूसरी ओर, अमेरिकी इरादा ईरान-सऊदी मेलजोल के बाद पश्चिम एशियाई राजनीति के ध्रुव पर अपनी जगह बनाने का होगा। बल के एक बड़े प्रदर्शन में, युद्धपोतों और विमानों का एक विशाल शस्त्रागार पूर्वी भूमध्य सागर की ओर बढ़ रहा है। यह सैन्य बल प्रक्षेपण कैसे लागू होगा यह देखा जाना बाकी है।
पश्चिम एशिया में अमेरिकी आधिपत्य को फिर से स्थापित करने और राष्ट्रपति बाइडेन को एक निर्णायक नेता के रूप में पेश करने का प्रलोभन ऐसे समय में होगा, जब एक तरफ, 2024 के चुनाव में उनकी दोबारा चुने जाने की गहरी इच्छा है और दूसरी तरफ, यूक्रेन में अपमानजनक हार का डर उनके राष्ट्रपति पद पर मंडरा रहा है।
यहां इतना कहना काफी होगा कि बाइडेन और नेतन्याहू के राजनीतिक हित आपस में मिल रहे हैं और इज़राइल के युद्ध की दुर्गंध संभवतः आसमान को छू लेगी और समय बीतने के साथ इलाके के अन्य देशों को भी अपनी चपेट में ले सकती है। सर्वनाशकारी परिदृश्य में भारतीय नेतृत्व को नेतन्याहू के साथ अपनी मित्रता प्रदर्शित करने में कठिनाई होगी।
आठवां, मोदी सरकार निकट भविष्य में यूरोप तक भारत-अरब आर्थिक गलियारा बनाने के भव्य विचार को भी अलविदा कह सकती है। इसका मतलब है कि, हाइफ़ा पोर्ट, जिसे नेतन्याहू के आशीर्वाद से 1.13 बिलियन डॉलर की कथित लागत पर "रणनीतिक खरीद" में अडानी समूह द्वारा अधिग्रहित किया गया था, को बिगाड़ देगा जिसमें स्मार्ट आर्थिक कूटनीति में अरब-इज़राइल मित्रता को बढ़ावा देना शामिल था।
नौवां ये कि, भारत सरकार ने इस बात से नज़रअंदाज़ कर दिया है कि इज़राइल आतंकवाद को बढ़ावा देने वाला देश है। राजनीति और अंतरराष्ट्रीय मामलों में यह समझ मायने रखती है, और ऐसे समय में जब भारत की अपनी साख पश्चिमी जांच के अधीन है, यह दोगुना महत्वपूर्ण है कि वह अपने शब्दों और व्यवहार में सावधान रहे। एक पुरानी कहावत है, "मुझे अपने दोस्त दिखाओ और मैं तुम्हें अपना भविष्य दिखाऊंगा!” अगर इरादा उत्तरी अमेरिका में इज़राइली लॉबी के पंखों पर उड़ने का है - या बाइडेन की नज़र में आने का है - तो यह कहना होगा कि इसमें कम से कम भोलेपन की बू आती है।
अंत में, हमें पता होना चाहिए कि अंतिम विश्लेषण में, पापों को भुला दिया जाता है और माफ कर दिया जाता है। जब एक राजनीतिक आंदोलन जिसके टूलबॉक्स में हिंसा का इस्तेमाल हो सकता है, उसे जनता का भारी समर्थन मिलता है। सचमुच, ऐसा ही होना चाहिए। उस पैमाने के आधार पर, हमास ने दशकों पहले, 2014 में भाजपा की सरकार बनने से बहुत पहले, लिटमस टेस्ट पास कर लिया था।
हमास आज फ़िलिस्तीनी आकांक्षाओं का निर्विवाद नेता है, जो अपने साथ के समूहों से बहुत ऊपर है और इलाकाई ताक़तों के लिए एक मुख्यधारा का वार्ताकार है। यहां तक कि इसका मॉस्को में एक प्रतिनिधि कार्यालय भी है। स्पष्ट रूप से, भारतीय प्रतिक्रिया, जो वर्तमान विकास को आतंकवाद की एक 'अकेली' घटना के रूप में देखती है, कालानुक्रमिक है।
एक स्थायी फ़िलिस्तीनी समझौते को समावेशी होना चाहिए और आशा यह है कि जो अपने आप में एक दुस्साहस भी हो सकता है कि बाद इसमें हमास भी शामिल होगा। भाजपा नेतृत्व को अपने प्रांतीय नेताओं को अंतरराष्ट्रीय मामलों पर बेहतरीन ढंग से शिक्षित करना चाहिए कि वैश्विक समुदाय में इस्लामवाद को आतंकवाद के साथ नहीं जोड़ा जाना चाहिए, खासकर मुस्लिम ब्रदरहुड की राजनीति जिसमें हमास शामिल है।
(एम.के. भद्रकुमार एक पूर्व राजनयिक हैं। वे उज्बेकिस्तान और तुर्की में भारत के राजदूत रह चुके हैं। विचार निजी हैं।)
अंग्रेज़ी में प्रकाशित मूल लेख को पढ़ने के लिए नीचे दिए गए लिंक पर क्लिक करें:
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