प्रतिदिन प्रति व्यक्ति महज़ ₹27 किसानों की कमाई का आंकड़ा सुनकर आपको कैसा लगता है?
जरा सोच कर देखिए कि अगर दिनभर जी तोड़ मेहनत करने के बाद ₹27 प्रतिदिन की कमाई हो तो आप क्या कर पाएंगे? क्या केवल गांव में रहकर खेती करने से जिंदगी का गुजारा हो जाएगा? क्या आप सोच पाएंगे कि आपके बच्चे डॉक्टर इंजीनियर वकील कलेक्टर जैसे बड़े पद वाली नौकरी के लिए पढ़ाई कर पाएं? क्या आप सोच पाएंगे कि आपके घर के बच्चे गांव छोड़कर शहर पढ़ने के लिए जाएं? किताबें देखकर आपको कैसा लगेगा? क्या आप समाज में जाति, धर्म और लिंग के आधार पर होने वाले भेदभाव से देखकर उससे बाहर निकल पाएंगे? क्या आप इमानदार रह पाएंगे? क्या आप पैसे पर चलने वाली राजनीति से इतर स्वच्छ राजनीति और समाज नीति की कल्पना कर पाएंगे? इस तरह के तमाम विषयों को सोच कर देखिए। सोच कर देखिए कि केवल 27 रुपए प्रति दिन की कमाई करने वाले लोग की जीवन की संभावनाओं का कितना कत्ल हर रोज होता होगा?
हाल ही में जारी हुए भारत सरकार की द सिचुएशन एसेसमेंट सर्वे ऑफ फार्मर का यही कहना है कि साल 2018-19 के दौरान भारत के हर किसान ने हर दिन केवल ₹27 की कमाई की।
यानी भारत की तकरीबन 40 फ़ीसदी आबादी का हाल बदहाली से भी बदतर है। उन्हें जीवन की तमाम संभावनाओं से काट कर जीने के लिए छोड़ दिया गया है। यह उनके साथ हो रहा है, जो इस दुनिया का सबसे महत्वपूर्ण काम करते हैं। जिनकी वजह से इस दुनिया की भूख मिटती है। उनकी जिंदगी अंतहीन अन्याय के अंधेरे में फेंक दी गई है।
कृषि क्षेत्र में भारत की सबसे बड़ी आबादी लगी हुई है लेकिन कमाई के लिहाज से सबसे कम कमाई कृषि क्षेत्र से हो रही है। इस सर्वे का कहना है कि साल भर कृषि पर निर्भर होकर कृषि उपज को बेचकर ₹4000 से अधिक कमाने वाले किसान कामगारों की कुल संख्या तकरीबन 9 करोड़ है। और वैसे लोग जो साल भर कृषि पर तो निर्भर रहते हैं लेकिन ₹4000 से कम की कमाई करते हैं उनकी संख्या तकरीबन 7 करोड़ है। यानी कृषि क्षेत्र की आधी आबादी ₹4000 से भी कमाती है।
चार हजार से अधिक कमाने वाले किसानों में से 71 फ़ीसदी किसानों के पास पशुपालन से भी कमाई करने के स्त्रोत है। इसलिए इनकी कमाई 4 हजार तक हो पाती है। नहीं तो स्थिति ऐसी है कि साल 2012 में एक किसान की आमदनी का 48 फीसदी हिस्सा कृषि उपज से आता था तो वह साल 2019 में कम होकर केवल 38 फ़ीसदी हो गया है। यानी किसान केवल खेती किसानी के जरिए पहले से भी कम कमा रहे हैं। आमदनी का तकरीबन 40 फीसदी हिस्सा मजदूरी से हासिल हो रहा है।
कृषि पत्रकार देवेंद्र शर्मा का कहना है कि किसानों की कमाई मजदूरों से भी कम है। अगर 75 साल के सरकारी नीतियों के इतिहास के बाद किसान की खेती से होने वाली कमाई दूसरे जगहों पर की जाने वाली मजदूरी से कम है तो इसका मतलब है कि सरकारी नीतियां खेती किसानी के खिलाफ रहे है। इन नीतियों की डिजाइन ऐसी रही है कि किसानों की कमाई को जानबूझकर कम रखा जाए।कमाई कम होगी तो यह गांव छोड़कर शहरों की तरफ प्रवास करेंगे। शहरों को सस्ते मजदूर मिलेंगे।
कारखानों को सस्ती कीमत पर मजदूर मिलेंगे। मालिक मालमाल होता रहेगा। मजदूर और किसान बदहाल होने के लिए अभिशप्त रहेंगे।
अगर कमाई कम है तो जिंदगी कर्ज का बोझ ज्यादा होना भी स्वाभाविक है। यही हुआ है। साल 2012-13 में हर किसान पर औसतन 47 हजार का कर्जा का बोझ था। यह बढ़कर साल 2018-19 में तकरीबन 74 हजार हो चुका है। तकरीबन 50 फ़ीसदी किसान कर्ज के बोझ तले दबे है। जो राज्य आर्थिक तौर पर ज्यादा बेहतर है, वहां पर किसानों ने और भी ज्यादा कर्जें लिए है। मतलब यह है कि आर्थिक तौर पर मजबूत राज्यों ने भी किसानों के लिए कुछ ज्यादा बेहतर काम नहीं किया है कि उनकी कमाई उतनी हो कि वह कर्जा लेने के लिए मजबूर ना हो।
इसी सर्वे के मुताबिक भारत में तकरीबन 70 फ़ीसदी किसानों के पास 1 हेक्टयर से कम की जमीन है। तकरीबन 9 फ़ीसदी किसानों के पास 1 से लेकर 2 हेक्टयर तक की जमीन है। महज 0.2 फ़ीसदी किसानों के पास 10 हेक्टयर से अधिक जमीन है। केवल 37 फ़ीसदी किसानो को मिनिमम सपोर्ट प्राइस जैसी किसी अवधारणा के बारे में पता है। मतलब भारत का कृषि क्षेत्र संरचनात्मक तौर पर भीतर से बहुत कमजोर है जिसे सरकारी मदद की हर वक्त जरूरत है। लेकिन फिर भी सरकारी मदद नहीं मिलता। इसलिए यही रिपोर्ट कहती है कि तकरीबन 97 फ़ीसदी किसान स्थानीय बाजार में अनाज बेचने के लिए मजबूर हैं। जहां किसानों को अपनी उपज का कम कीमत तो मिलता ही है साथ में दूसरी और कई तरह के शोषण होते हैं। लेकिन फिर भी सरकार ऐसा कानून बनाती है, जिससे देश में सरकारी मंडियां नहीं बनेंगी। एमएसपी की लीगल गारंटी नहीं मिलेगी। बल्कि पहले से मिल रही सरकारी मंडियों की सुविधा और एमएसपी भी खत्म होने का खतरा है।
कृषि उपज की बिक्री में से लागत घटाने पर हर महीने एक किसान की कमाई तकरीबन ₹816 की होती है। प्रतिदिन के हिसाब से प्रति किसान महज ₹27। इसलिए ऐसी रिपोर्ट पढ़ने के बाद पूंजीपतियों के दम पर चलने वाली सरकार के वह अर्थशास्त्री जो मुख्यधारा में छाए हुए हैं वह जोर-जोर से चिल्लाकर अपनी पुरानी राय दोहराने लगते हैं कि कृषि क्षेत्र घाटे का क्षेत्र है। वहां मुनाफा नहीं है। इसलिए ऐसी नीतियां बनाई जाएं जहां पर कृषि क्षेत्र बाजार की तरफ जाने के लिए मजबूर हो जाए। इसी सोच से वैसे कानून बनते हैं जिन का विरोध भारत के तमाम किसान पिछले 9 महीने से कर रहे हैं।
गहरी हकीकत यह है कि अनाज एक ऐसा उत्पाद है जो इस दुनिया के बाजार में तब तक रहेगा जब तक इंसान हैं। बड़े-बड़े पैसे वालों की निगाहें कृषि क्षेत्र से जुड़े बाजार पर टिकी हुई हैं। अगर ऐसा होता है तो फायदा चंद मुट्ठी भर पूंजीपतियों के सिवाय और किसी को नहीं होगा। यही हो रहा है। गांव खेती-किसानी छोड़कर सस्ते मजदूर बन रहे हैं। इसलिए सबसे बड़ा सवाल यही है कि भारत के किसान क्या यह बड़ी लड़ाई जीत पाएंगे। जहां पर खेती किसानी पर उनका हक हो और कमाई केवल ₹27 प्रतिदिन प्रति किसान न हो।
अपने टेलीग्राम ऐप पर जनवादी नज़रिये से ताज़ा ख़बरें, समसामयिक मामलों की चर्चा और विश्लेषण, प्रतिरोध, आंदोलन और अन्य विश्लेषणात्मक वीडियो प्राप्त करें। न्यूज़क्लिक के टेलीग्राम चैनल की सदस्यता लें और हमारी वेबसाइट पर प्रकाशित हर न्यूज़ स्टोरी का रीयल-टाइम अपडेट प्राप्त करें।