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ईश्वर की इच्छा से किया गया न्याय?

क्या हिंदू राष्ट्र की स्थापना के लिए न्यायपालिका का आंतरिक रूप से अपहरण किया जा रहा है?
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प्रतीकात्मक तस्वीर। Rawpixel

ऐसे बहुत कम कानूनी स्कॉलर या वकील हैं जिन्होंने भारत की न्यायपालिका की गतिशीलता को बड़ी बारीकी से देखा है और हमें उन खतरों के बारे में आगाह किया जो केवल इन्हीं मार्गों से हमारे सामने आ सकते हैं।

डॉ. मोहन गोपाल इस मामले में एक अपवाद हैं।

वे इतने जाने-माने स्कॉलर हैं, जो हिंदू राष्ट्र की स्थापना के लक्ष्य को हासिल करने के मामले में हिंदुत्व वर्चस्ववादी ताकतों की विश्वदृष्टि और रणनीतियों को बारीकी से समझते हैं, वे इसे हासिल करने की उनकी रणनीति को “संविधान को उखाड़ फेंकने से नहीं, बल्कि सुप्रीम कोर्ट द्वारा हिंदू दस्तावेज की व्याख्या करने” के काम से समझाते हैं।

लाइव लॉ द्वारा आयोजित एक कार्यक्रम में बोलते हुए डॉ॰ गोपाल ने इसकी प्रक्रिया को दो चरणों में समझाया:

पहला, ऐसे न्यायाधीशों की नियुक्ति करना जो संविधान से परे हटकर चर्चा को तैयार हों।

दूसरा, संविधान के बजाय धर्म में कानून का स्रोत खोजने वाले धर्मतंत्री न्यायाधीशों की संख्या में वृद्धि करना, इससे उसी संविधान के ज़रिए देश को हिंदू धर्मतंत्र घोषित करना आसान हो जाएगा।

इस महत्वपूर्ण भाषण में, पूर्ववर्ती कांग्रेसनीत संयुक्त प्रगतिशील गठबंधन सरकार और बाद में नरेन्द्र मोदी के नेतृत्व वाली सरकार के तहत न्यायाधीशों की नियुक्तियों से संबंधित तथ्यों का उल्लेख किया गया और बताया गया कि किस प्रकार विभिन्न नियुक्तियों में संविधान से चिपके रहने का प्रयास किया गया या अपने विभिन्न निर्णयों में उससे परे देखने का प्रयास किया गया।

डॉ गोपाल के लिए, सर्वोच्च न्यायालय द्वारा हिजाब पर दिया गया निर्णय, जिसमें उसने विभाजित फैसला सुनाया था, इस दिशा में एक महत्वपूर्ण मील का पत्थर था।

यह अलग बात है कि इस प्रख्यात स्कॉलर को भी कभी यह अहसास नहीं रहा होगा कि एक दिन ऐसा आएगा जब भारत के मुख्य न्यायाधीश (सीजेआई) सार्वजनिक रूप से स्वीकार करेंगे कि यह संविधान नहीं, बल्कि उनका व्यक्तिगत विश्वास और उनका अपना देवता है जो उनके महत्वपूर्ण कानूनी निर्णयों पर हावी है जो उन्हें निर्णय लेने में मदद करता है।

मुख्य न्यायाधीश द्वारा अपने पैतृक गांव में दिए गए इन वक्तव्यों और इससे उत्पन्न विवाद पर स्कॉलर्स, अधिवक्ताओं और विश्लेषकों ने काफी टिप्पणियां की हैं।

मुख्य न्यायाधीश की इस स्वीकारोक्ति का एक अन्य दिलचस्प दुष्परिणाम निकला।

विवादास्पद बाबरी मस्जिद निर्णय, जिसने न केवल 1948 में दक्षिणपंथी तत्वों द्वारा बाबरी मस्जिद के अंदर राम लला की मूर्ति रखने के कृत्य को 'अवैध' बताया, बल्कि यह भी कहा कि इसका विध्वंस "कानून के शासन का घोर उल्लंघन" था - जिसे तत्कालीन सीजेआई रंजन गोगोई की अगुआई वाली सुप्रीम कोर्ट की पांच जजों की बेंच ने सुनाया था - आज तक इस निर्णय के लेखक का नाम नहीं है। इस निर्णय पर किसी ने हस्ताक्षर नहीं किए थे।

कोई गलत हो सकता है, लेकिन शायद यह भारत के स्वतंत्रता के बाद के इतिहास का पहला फैसला था, जिस पर किसी के हस्ताक्षर नहीं थे।

इसका कारण तो कोई नहीं जानता, लेकिन मुख्य न्यायाधीश ने ईश्वर से अपने संबंध की इस स्वीकारोक्ति को देखते हुए क्या यह कहा जा सकता है कि वेदों की तरह, जिन्हें ‘अपौरुषेय’ (मानव द्वारा निर्मित नहीं, अर्थात ईश्वर द्वारा निर्मित) कहा गया है, शायद इस निर्णय को भी उसी श्रेणी में शामिल किया जा सकता है?

सबसे चौंकाने वाली बात यह है कि आज तक, बाबरी मस्जिद के फैसले से जुड़े अधिकांश तथ्य - इसके लेखक को छोड़कर - जिसे हमारे गणतंत्र के मुस्तकबिल के लिए एक 'मील का पत्थर' माना जा सकता है, हाल के दिनों में दर्ज किए गए थे। हम यह भी जानते हैं कि तत्कालीन सीजेआई गोगोई ने इस सर्वसम्मत फैसले के बाद अपने सहयोगियों को एक पांच सितारा होटल में डिनर कराया था और सबसे अच्छी वाइन भी मंगवाई गई थी।

सत्तारूढ़ व्यवस्था के आलोचक इस मामले में, ‘नॉन-बायलोजिकल’ प्रधानमंत्री और मुख्य न्यायाधीश के बीच समानता भी देख सकता हैं, जो भगवान के साथ सीधे संवाद का दावा करते हैं, और कई मौकों पर उनके बीच एक तरह की तालमेल देखने को मिलती है, जैसा कि हाल ही में गणेश चतुर्थी समारोह के दौरान देखा गया। ‘नॉन-बायलोजिकल’ प्रधानमंत्री के अपने ट्विटर हैंडल (जिसे अब ‘एक्स’ कहा जाता है) ने खुद उस अवसर की तस्वीरें तब जारी की, जब वे सीजेआई के घर गए थे और उन्होंने साथ मिलकर गणेश पूजा की थी, जिससे काफी राजनीतिक विवाद पैदा हुआ था।

कानूनविदों ने यहां तक रेखांकित किया कि कैसे इस निमंत्रण के साथ सीजेआई ने “कार्यपालिका और न्यायपालिका के बीच शक्तियों के विभाजन को खतरे में डाल दिया है।” या कैसे इसने “न्यायपालिका को एक बहुत बुरा संकेत भेजा है, जिसका काम नागरिकों के मौलिक अधिकारों को कार्यपालिका से बचाना और यह सुनिश्चित करना है कि सरकार संविधान की सीमाओं के भीतर काम करे।”

ऐसा कहा जाता है कि एक सच्चा धार्मिक व्यक्ति ईश्वर से अपनी बातचीत को निजी मामला ही बनाए रखना पसंद करता है। जिस तरह से इस निजी निमंत्रण को, जिसे अघोषित रूप से जाना चाहिए था, सार्वजनिक होने दिया गया, उससे प्रधानमंत्री मोदी और निवर्तमान मुख्य न्यायाधीश के बीच एक और समानता सी उजागर हुई है।

शायद, दोनों को अपने निजी पलों को व्यापक जनता के साथ साझा करना पसंद है।

उदाहरण के लिए, यह याद होगा कि कैसे कुछ महीने पहले, मुख्य न्यायाधीश डीवाई चंद्रचूड़ ने अपनी पत्नी के साथ द्वारकाधीश मंदिर की एक बहुचर्चित यात्रा की थी, जहां उन्हें भगवा रंग की पोशाक पहने देखा गया था। यह यात्रा भी गुजरात के राजकोट में नए न्यायालय भवन का उद्घाटन करते समय उनके द्वारा की गई टिप्पणियों के कारण आलोचना के घेरे में आई थी। तटस्थ लोगों को भी इस बात से चिढ़ हुई कि मुख्य न्यायधीश ने इस बात पर ज़ोर दिया कि वे द्वारकाधीशजी के ध्वज से कैसे प्रेरित थे, जो जगन्नाथपुरी के ध्वज के समान था, और कैसे ये झंडे “हमारे देश में परंपरा की सार्वभौमिकता का प्रतिनिधित्व करते हैं, जो हम सभी को एक साथ बांधता है।”

यह समझने के लिए बहुत अधिक बुद्धिमान होने की जरूरत नहीं है कि भारत जैसे धर्मनिरपेक्ष देश में, जो सर्व-धर्म समभाव में विश्वास करता है और उसका प्रचार करता है, जहां तिरंगा ही एकमात्र ऐसा झंडा माना जाता है जो हम सभी को बांधता है, वहां एक संवैधानिक प्राधिकारी द्वारा किसी विशेष धर्म के झंडे का समर्थन करना संवैधानिक रीति-रिवाजों के अनुरूप नहीं है।

बाबरी मस्जिद के फैसले और उसके ‘लेखक’ के बारे में, माननीय सीजेआई द्वारा ‘स्पष्ट’ स्वीकारोक्ति से न्यायपालिका के मामलों को देखते हुए उनके दो साल से अधिक के समय से संबंधित कुछ अन्य प्रश्न भी उठते हैं। सीजेआई के रूप में शुरू में उदार बिरादरी के बीच बहुत उम्मीदें जगाई थीं। एक सीजेआई को न केवल रोस्टर के मास्टर के रूप में देखा जाता है, बल्कि उच्चतम न्यायालयों और निचली अदालतों में उनके न्यायाधीशों के अग्रणी प्रकाश के रूप में भी देखा जाता है।

न्यायपालिका के करीबी पर्यवेक्षकों ने देखा कि कैसे मुख्य न्यायाधीश अपने भाषणों में बहुत वाक्पटु रहे हैं, कैसे उन्होंने हमेशा सार्वजनिक मंचों पर संविधान को बरकरार रखा है, बार-बार उन्होंने अदालतों द्वारा जमानत देने में देरी पर सवाल उठाया है, इस बात पर जोर देते हुए कि ‘जमानत एक नियम है, अपवाद नहीं’, लेकिन यह भी कि कैसे उनकी अपनी आंखों के सामने ‘उत्तर-पूर्वी दिल्ली दंगों के आरोपी चार साल से अधिक समय से जेल में सड़ रहे हैं’, जो अंतरराष्ट्रीय मानवाधिकार संगठनों की जांच के दायरे में आ गया है

21वीं सदी के इस तीसरे दशक की शुरुआत भी तथाकथित 'बुलडोजर न्याय' से हुई, जहां इजराइल की तर्ज पर, उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री आदित्यनाथ के नेतृत्व में विभिन्न भारतीय जनता पार्टी की सरकारों ने 'त्वरित न्याय' का अभियान शुरू किया है, जहां समूह संघर्ष या सामुदायिक तनाव के तुरंत बाद 'भवन उल्लंघन' के बहाने, बिना किसी उचित प्रक्रिया का पालन किए, आरोपियों के घरों को ध्वस्त कर दिया गया है।

इन “बुलडोजर” विध्वंसों में मुख्य लक्ष्य धार्मिक और सामाजिक अल्पसंख्यक रहे हैं। राष्ट्रीय और अंतरराष्ट्रीय मानवाधिकार संगठनों के अनुसार, इस तरह के अधिकांश विध्वंस उचित प्रक्रियाओं का पालन किए बिना किए गए हैं।

इतिहास एक क्रूर न्यायाधीश होता है और यह निश्चित रूप से इस बात पर ध्यान देगा कि विशेष समुदायों को लक्षित करने वाली ऐसी कई प्रतिशोधी कार्रवाइयां उस अवधि के दौरान बेरोकटोक जारी रहीं जब माननीय सीजेआई ने देश की सर्वोच्च अदालत का नेतृत्व किया था। निष्पक्ष आलोचक यह भी देखना चाहेंगे कि क्या ‘रोस्टर के मास्टर’ के लिए कुछ महत्वपूर्ण करना संभव था। लेकिन जब उनके नेतृत्व वाली अदालत ने कोलकाता के आर जी कर अस्पताल बलात्कार मामले में स्वतः संज्ञान लेते हुए हस्तक्षेप किया, तो यह मान लेना मासूमियत की पराकाष्ठा थी कि कुछ भी महत्वपूर्ण नहीं किया जा सकता था। शायद, वह धार्मिक और सामाजिक अल्पसंख्यकों को आवश्यक उपचार प्रदान करने के लिए आगे आ सकते थे, जो राज्य प्रायोजित विजीलांट न्याय और नरसंहार के लिए खुले आह्वान करने वाली ‘धार्मिक सभाओं’ के हमले के तहत खुद को असहाय महसूस कर रहे थे।

इस बात से तो सभी सहमत हैं कि चंद्रचूड़ के कार्यकाल के अंतिम चरण में इस मुद्दे पर सर्वोच्च न्यायपालिका में कुछ नई पहल हुई हैं, लेकिन उम्मीद है कि अदालत इस तरह के अवैध विध्वंस पर हमेशा के लिए रोक लगा देगी।

मुख्य न्यायाधीश का कार्यकाल समाप्त होने वाला है और ऐसी खबरें हैं कि वह यह जानने के लिए उत्सुक हैं कि "इतिहास उन्हें किस रूप में याद रखेगा।"

यह कार्य विधि-विद्वानों या भविष्य के इतिहासकारों पर छोड़ा जा सकता है, लेकिन प्रत्येक लोकतंत्र-प्रेमी व्यक्ति जानता है और गहराई से समझता है कि 'लोकतंत्र की सुरक्षा-व्यवस्था' - अर्थात कार्यपालिका, विधायिका और न्यायपालिका - का क्या महत्व है और किस प्रकार इन संस्थाओं को अंदर से कमजोर किया जा सकता है, उनमें तोड़फोड़ की जा सकती है या उनका अपहरण किया जा सकता है, यह सब हमारी आंखों के सामने हो सकता है और लोकतंत्र के लिए विनाशकारी हो सकता है।

हमारे सामने 'दुनिया के सबसे मजबूत लोकतंत्र' यानी अमेरिका की न्यायपालिका का उदाहरण है। यह सच है कि आज वहां रिपब्लिकन का दबदबा है। आठ जजों में से पांच रिपब्लिकन खेमे के प्रति निष्ठा रखते हैं।

कुछ महीने पहले, अमेरिका की शीर्ष अदालत ने फैसला सुनाया था कि एक पूर्व राष्ट्रपति भी अपने आधिकारिक कृत्यों के लिए आपराधिक दायित्व से संभावित रूप से मुक्त है, इस प्रकार ट्रम्प को प्रभावी रूप से आजीवन प्रतिरक्षा प्रदान की गई है - यदि वे राष्ट्रपति के रूप में वापस लौट आते हैं।

ऐसा लग रहा था मानो "सबसे मजबूत लोकतंत्र" कानून के शासन के बजाय 'राजाओं के शासन' की खोज की राह पर चल पड़ा हो।

शायद इस मोड़ पर, पुरानी कहावत को रेखांकित करना महत्वपूर्ण है - 'सतत सतर्कता लोकतंत्र की कीमत है'।

लेखक एक वरिष्ठ स्वतंत्र पत्रकार हैं। यह उनके निजी विचार हैं।

मूल अंग्रेज़ी में प्रकाशित इस आलेख को नीचे दिए गए लिंक पर क्लिक करके पढ़ सकते हैं–

God-Willed Justice?

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