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कटाक्ष: वन नेशन, नो इलेक्शन!

अब मोदी जी ‘वन नेशन वन इलेक्शन’ लाने चले हैं, तो भाई लोग उसमें भी टांग अड़ाने से बाज नहीं आ रहे हैं। कह रहे हैं कि आज वन नेशन वन इलेक्शन सही, पर कल वन नेशन नो इलेक्शन आएगा।
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प्रतीकात्मक प्रयोग के लिए। कार्टून सतीश आचार्य के X हैंडल से साभार

खुद को विद्वान मानने वालों की यही सबसे बड़ी प्राब्लम है। इनका बस चले तो ये तो मोदी जी को कोई बड़ा काम करने ही नहीं दें; मोदी जी को इतिहास की शिला पर अपना नाम गहराई तक खुदवाने ही नहीं दें। मोदी जी ने नोटबंदी करायी तो भाई लोगों ने फेल-फेल का हल्ला मचा दिया। 

गिन-गिन के बताने लगे कि हजार-पांच सौ के सारे बंद किए गए नोट तो बैंकों में लौटकर आ गए यानी काला धन पकड़ना तो दूर, अगर कोई काला धन था भी, तो नोटबंदी में वह भी सफेद हो गया। ऊपर से नोटबंदी के बाद नकदी का चलन बढ़ और गया। 

एक देश, एक टैक्स के चक्कर में मोदी जी ने जीएसटी लगायी, तो भाइयों ने छोटे कारोबारियों की कमर टूटने का हल्ला मचा दिया, जो हल्ला अब तक मच ही रहा है। 

बीच में कोविड आ गया और मोदी जी ने सोचा कि आपदा को अवसर बनाकर एक बड़ा काम कर दें और पूरे देश पर लॉकडाउन लगा दिया– दुनिया का सबसे तगड़ा लॉकडाउन। ताली-थाली बजवाई से ऊपर से। पर मजाल है कि इन भाइयों के मुंह से तारीफ का एक लफ्ज भी निकला हो। उल्टे मोदी जी पर इकॉनमी का भट्टा  बैठाने की तोहमत और लगा दी। और वही छोटे कारोबारियों की मौत का रोना। 

और अब मोदी जी ‘वन नेशन वन इलेक्शन’ लाने चले हैं, तो भाई लोग उसमें भी टांग अड़ाने से बाज नहीं आ रहे हैं। कह रहे हैं कि आज वन नेशन वन इलेक्शन सही, पर कल वन नेशन नो इलेक्शन आएगा। ये रास्ता वन नेशन नो इलेक्शन तक भी जाएगा। बल्कि कुछ लोगों ने वन नेशन, नो इलेक्शन के बाद की भी बात करनी शुरू कर दी है। कह रहे हैं कि बात निकलेगी तो दूर तक जाएगी– अंत में, नो इलेक्शन, नो नेशन तक।

पर बात दूर तक जाएगी तो तब जब मोदी जी जाने देंगे। अगर मोदी जी वन नेशन वन इलेक्शन पर ही स्टॉपर लगा देंगे तो? यह सच है कि मोदी जी को वन नेशन में वन इलेक्शन, सिर्फ इसलिए नहीं लाना है कि इतना बड़ा काम, आजादी के बाद सत्तर साल में कोई नहीं कर पाया– न नेहरू, न इंदिरा गांधी, न राजीव गांधी और तो और अटल जी भी नहीं। सिर्फ ऐसी आध्यात्मिक प्रेरणा ही नहीं है, मोदी जी के वन इलेक्शन के पीछे। आध्यात्म के साथ, भौतिकता का मेल भी है। सिंपल है, अनेक चुनाव और एक चुनाव में, एक चुनाव तो सस्ता पड़ेगा ही पड़ेगा। 

अनेक चुनाव में अनेक खर्चे, एक चुनाव में एक खर्चा। फिर चुनाव में खर्चा कोई एक ही तरह का थोड़े ही होता है। चुनाव में टैम का भी खर्चा होता है, सरकार से लेकर पब्लिक तक, सब के टैम का खर्चा। घड़ी-घड़ी चुनाव और घड़ी-घड़ी मोदी जी, शाह जी वगैरह जी लोग के पांच साल के सरकारी टैम में से, चुनाव प्रचार पर टैम की बेहिसाब बर्बादी। 

और घड़ी-घड़ी चुनाव में पब्लिक को पटाने के लिए चुनावी वादों का खर्चा और। ऊपर से पेट्रोल-डीजल के दाम बढ़ने से रोकने का भी खर्चा। और हां! चुनाव के चक्कर में सरकार को और राजनीतिक पार्टियों को जो पब्लिक की तरफ से मुंह मोड़कर चलना रोकना पड़ता है, उनके टैम का खर्चा किस के खाते में डाला जाएगा। यानी हर लिहाज से अनेक चुनाव से एक चुनाव सस्ता है, सब के लिए।

लेकिन, इस हिसाब से तो वन इलेक्शन से नो इलेक्शन और भी सस्ता बल्कि मुफ्त ही पड़ेगा। नो इलेक्शन यानी इलेक्शन कमीशन से लेकर ईवीएम तक, कोई किच-किच भी नहीं। फिर कॉमनसेंस है, नो इलेक्शन, नो खर्चा, नो टैम की बर्बादी--न सरकार के न पब्लिक के, किसी के भी टैम की बर्बादी नहीं। और हां नो इलेक्शन यानी आचार संहिता वगैरह की वजह से, सरकारी काम-काज में किसी तरह की रोक-टोक भी नहीं। री पब्लिक तुझे और कितनी बचत चाहिए--और क्या बच्चे की जान लेगी? पर वही बात, मोदी जी इस बचत को बीच में ही रोक दें तो। मोदी जी ने टैम की बर्बादी को पूरी तरह से खत्म भी नहीं करें, बस कम करने पर ही रुक जाएं तो। मोदी जी पूरे मामले को आगे नो इलेक्शन की ओर जाने ही नहीं दें और बीच रास्ते में वन इलेक्शन पर ही रोक दें तो?

और इलेक्शन को बीच में वन इलेक्शन पर ही रोक देना तो बहुत ही आसान है। हल्दी लगे न फिटकरी, रंग चोखा आए। जिस चुनाव में मोदी जी को पीएम की कुर्सी मिली है, उसी से एक चुनाव की गिनती कर ली जाए। एक, इकलौता चुनाव। वैसे जब आएगा तो मोदी ही, तो आगे बार-बार चुनाव कराने की जरूरत भी क्या है? बेकार में तमाम खर्चा और टाइम व पैसे की बर्बादी। 2047 तक का तो प्लान भी तैयार है। अब विकसित भारत बनाने में किसी देशभक्त को तो दिक्कत होने से रही। और जो देशभक्त नहीं हैं, जो भारत की प्रगति को देखना नहीं चाहते हैं, ऐसे राष्ट्रद्रोहियों की यह नया इंडिया भी सुनने वाला नहीं है।

रही आम पब्लिक की बात तो उसे भी राष्ट्रहित में थोड़ा तो अपना लालच त्यागना ही पड़ेगा। माना कि आम पब्लिक के लिए इस तरह के लालच का त्याग करना आसान नहीं है, मिसाल के तौर पर यही कि चुनाव का टैम है तो अमित शाह जम्मू-कश्मीर में ईद और मोहर्रम पर, दो रसोई गैस सिलेेंडर मुफ्त देने का वादा कर रहे हैं। वादा पूरा हो जाए तो सीधे हर साल दो-ढाई हजार रुपए की बचत का मामला है और वह भी खासतौर पर मुसलमानों के खातों में। पर मुफ्त रसोई गैस सिलेंडर हो, सस्ती बिजली हो या पेट्रोल-डीजल के दाम के बढ़ने पर रोक हो या खातों में हजार-डेढ़ हजार रुपये महीना डलवाने का वादा हो या चाहे नौकरी का वादा ही हो, कोई भी लालच राष्ट्र हित से बड़ा नहीं हो सकता है। और राष्ट्रहित की मांग है--वन नेशन, नो मोर इलेक्शन? अगर दूर अमरीका में बैठे एनआरआई भाई-बहनों को दिखाई दे रहा है कि मोदी जी भारत में स्वर्ण युग वापस ले आए हैं, तो भारत में बैठे भारतीय भी कम से कम मुफ्त गैस सिलेंडर के लालच का त्याग तो कर ही सकते हैं। वर्ना दुनिया तो यही कहेगी कि भारतीयों की पास की नजर कमजोर है, जो सोना हजारों किलोमीटर दूर से भारत में बिखरा दिखाई दे रहा है, इन्हें भारत में बैठकर दिखाई नहीं दे रहा है और मुफ्त या कम महंगे गैस-तेल वगैरह के पीछे भाग रहे हैं। तब जो शर्मिंदगी होगी, नो इलेक्शन उससे तो फायदे का ही रहेगा।

(लेखक वरिष्ठ पत्रकार और लोक लहर के संपादक हैं।)

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