नयी राजमाता का राज्याभिषेक और गांधी की माफ़ी
गांधी ही थे। राजघाट से निकल कर फुटपाथ पर दौड़ सी लगाते हुए। साथ रहने के लिए करीब दौड़ते हुए पूछा इतने सुबह-सुबह कहां दौड़े जा रहे हैं, वह भी अपने बर्थ डे पर। बुजुर्ग फिस्स से हंस दिए, पर न रुके और न जवाब दिया। दोबारा और आग्रहपूर्वक पूछा, पर सुबह-सुबह दौड़ कहां की हो रही है। अब बुजुर्ग ने अपनी चाल जरा धीमी की और चश्मे के गोल-गोल शीशों के पीछे झांकती आंखों में शरारत भरी मुस्कुराहट के साथ लगभग फुसफुसा कर बोले--देसी गौमाता की तलाश में। हैरानी से सुर कुछ तेज हो गया--देसी गौमाता की तलाश में, जन्म दिन पर? अब बुजुर्ग रुक गए और समझाने की मुद्रा में आ गए--अपनी गलतियों की क्षमा मांगने से अच्छी जन्म दिन की शुरूआत क्या हो सकती है? अब हैरानी और बढ़ गयी--पहेलियां क्यों बुझा रहे हैं, ये गौमाता तो ठीक है, पर ये देसी गौमाता का क्या चक्कर है? और आपको काहे की क्षमा मांगनी है और वह भी देसी गौमाता से। बुजुर्ग बोले--काहे के खबरची हो, इतना भी नहीं पता कि देसी गौमाता को राजमाता का दर्जा दिया जा रहा है। महाराष्ट्र से शुरूआत हो गयी है, अब एक-एक कर के कम से कम डबल इंजनिया सरकारों वाले सभी राज्य तो राज्यमाता का दर्जा दे ही देंगे। इतने सारे राज्यों की राज्यमाता, पूरे देश की ही राजमाता हुई कि नहीं!
धड़ से पूछ डाला--पर इसमें आपके माफी मांगने की बात कहां से आ गयी। राजमाता का दर्जा मिलने की बधाई तो फिर भी बनती है, पर ये माफी क्या चक्कर है? बुजुर्ग ने दोनों कानों पर हाथ लगाए और लगे कहने कि माफी इसकी कि नयी राजमाता का पद हासिल करने के लिए, देसी गौमाता को आजादी के तीन कम अस्सी साल इंतजार करना पड़ा। माफी राजमाता के पद के बिना देसी गौमाता को गलियों में, सडक़ों पर और न जाने कहां-कहां भटकना पड़ा, कूड़े-कचरे में मुंह मारना पड़ा, पॉलिथीन तक को निगलना पड़ा, उसके लिए। सच पूछिए तो जितना बड़ा पाप हमसे हुआ है, उसके लिए माफी तो बहुत छोटी है। नयी राजमाता अगर कोई सजा भी दें तो मुझे तो वह भी मंजूर है। दूध वगैरह से वंचित रखने की सजा नहीं, वह तो मैं पहले ही छोड़ चुका था। कुछ पाप हो रहा था, इसका मुझे अंदर से आभास मिल रहा था, तभी तो मैंने खुद ही गौमाता का दूध पीना बंद कर दिया था। फिर भी पाप करने से खुद को नहीं बचा पाया। देश की स्वतंत्रता के समय पर, गौमाता को राजमाता का दर्जा नहीं दिला सका। दुर्दशा के अस्सी साल से गौमाता को नहीं बचा पाया। आसान था, हम अंगरेजों से कह सकते थे कि हमें आजादी बाद में देना, पहले हमारी देसी गौमाता को राजमाता का दर्जा दो। अंगरेज सौदेबाजी करते, हम पांच-दस साल और गुलामी में रह लेते, पर देसी गौमाता को तभी राजमाता के आसन पर बैठा सकते थे। बेचारी राजमाता को मोदी जी के आने और दुर्दशा से उबारने की, इतने साल लंबी प्रतीक्षा तो नहीं करनी पड़ती!
बुढ़ऊ के चेहरे पर तैरते शरारत के भावों ने और भी कन्फ्यूज कर के रख दिया। मजा लेने की सूझी तो पूछ दिया कि अंगरेज अगर गौमाता को राजमाता का दर्जा देने के लिए तैयार हो भी जाते, तब भी क्या सिर्फ देसी गौमाता के लिए ये दर्जा सुरक्षित करने के लिए तैयार होते? क्या ‘गाय-गाय सब बराबर’ का बहाना बनाकर, राजमाता के आसान का अधिकार एक हाथ देकर, दूसरे हाथ से देसी गौमाता को इस पद से वंचित करने की चतुराई नहीं करते? गौमाता के नाम पर, विदेशी गौमौसी को ही इस आसन पर बैठाने की कोशिश नहीं करते? बुजुर्ग की आंखें इस संभावना को पहचान कर कुछ और फैल गयीं। हल्की सी मुस्कुराहट के साथ बोले, बेशक अंगरेज अपनी तरफ से सारी शरारत करते। पर हम भी डटे रहते। लड़ाई होती। लंबी लड़ाई होती। पर दुनिया देखती कि अंतत: सत्याग्रह के शस्त्र की विजय होती। ना-ना करते-करतेे भी अंगरेजों को देसी गौमाता को राजमाता के पद पर आसीन करना ही पड़ता। वही हमारा सच्चा स्वतंत्रता दिवस होता। कंगना रणावत जी को भी असली स्वतंत्रता के लिए, मोदी जी के आने तक प्रतीक्षा नहीं करनी पड़ती। काश, हमारे हाथों से देसी गौमाता के साथ ऐसा महापाप नहीं होता।
बात पटरी से उतरती लगी तो संभालने की कोशिश में समझाने लगा। जो जब होना होता है, तभी होता है। अपने वक्त से पहले कुछ भी नहीं होता है। देसी गौमाता को राजमाता पद के लिए 2024 तक प्रतीक्षा करनी थी, तो करनी ही थी। आप नाहक अपने को दोष दे रहे हैं। पर बुजुर्ग के चेहरे पर खिसियाहट सी उतर आयी, शायद उन्हें मुझसे यह उम्मीद नहीं थी। समझाने लगे कि गलती इतनी नहीं थी कि हमें इतनी सिंपल सी मांग नहीं सूझी। गलती यह थी कि हम तो उल्टे ही रास्ते पर चल रहे थे। हम देसी गौमाता के लिए राजमाता के आसन की मांग क्या करते, हम तो बेचारे राजाओं-महाराजाओं के आसन मिटवाने के चक्कर में पड़े हुए थे। प्रजा-प्रजा के चक्कर में, जब राजाओं के राज जा रहे थे, तब बेचारी गौमाता को राजमाता के आसान पर कौन बैठाता! हम तो ऐसे सारे आसन ही मिटाने पर तुले थे। शुक्र है कि मोदी जी का जमाना आ गया और राजों-रजवाड़ों को दोबारा सम्मान मिलने लगा। तभी तो बढ़ते-बढ़ते बात अब राजमाता के आसन तक पहुंची है और अपनी देसी गौमाता, राजमाता के आसन तक पहुंची है। अब जब राजमाता कहलाएगी, तो कम से कम देसी गौमाता कचरे में तो मुंंह नहीं लगाएगी। हमारी देसी गौमाता, अपने कौल की पक्की है, राजमाता के आसान की आन निभाएगी, भूखी मर जाएगी, पर कचरे को मुंह नहीं लगाएगी! विदेशी गोमौसी में वो बात कहां !
कन्फ्यूजन में मुंह से निकल गया, बर्थ डे पर कोई और पछतावा, कोई और माफी? बुजुर्ग ने पहले अपनी नजरों से तोला और जब भरोसा हो गया कि सवाल गंभीरता से पूछा जा रहा है, लगे कहने कि पछतावे और भी कई हैं। पूरे तीन कम अस्सी साल ही देश को तमिलनाडु के गवर्नर के यह याद दिलाने की प्रतीक्षा करनी पड़ी कि सेकुलरिज्म तो विदेशी चीज है, हमें उससे परहेज करना चाहिए! और इससे याद आ रहा है कि हमें सूझा ही नहीं कि हमें संसद वगैरह से भी परहेज करना चाहिए था, वे सब भी तो विदेशी हैं। हमें राजाओं-महाराजाओं के स्वदेशी चरणों में पड़े रहना चाहिए था। और बेशक नयी राजमाता के भी। और बुजुर्ग, दुहाई, माफी राजमाता, माफी की गुहार लगाते हुए, तेज-तेज कदमों से देसी गौमाता की तलाश में शांति वन की तरफ निकल गए।
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