भारतीय लोकतंत्र और पेगासस का अवसाद (नैराश्य गीत)
हममें से कुछ को आज भी वो राग याद हो, “चलो बिल्कुल शुरू से आरंभ करते हैं”। बेहद सफल संगीत द साउंड ऑफ़ म्यूजिक (1965) में, इस राग ने डू रे मी गीत की शुरुआत की थी, जिसका इस्तेमाल सात वोन ट्रैप भाई-बहनों को संगीत की बुनियादी बातें सिखाने के लिए इस्तेमाल किया गया था। पेगासस जासूसी कांड, जिसकी क्षमता भारतीय लोकतंत्र की जड़ों को हिला कर रख देने की है, भी हमसे मूलभूत बातों की ओर लौटने और चार मूलभूत सच्चाइयों का सामना करने की मांग करता है।
पहली बात, हम अभी तक पेगासस जासूसी सॉफ्टवेर मामले में मौजूद भयानक संभावनाओं के बारे में जो कुछ भी सीख सके हैं, उसमें इस बात की प्रबल संभावना दिखती है कि, भारत की सरकार ने इसका इस्तेमाल उन चुनिंदा भारतीय नागरिकों की जासूसी करने के लिए किया है, जो नरेंद्र मोदी सरकार को झटका देने की क्षमता रखते हैं। सरकारी तन्त्र जितना ज्यादा इस प्रश्न को अस्पष्ट और सामान्य प्रतिक्रियाओं का सहारा लेकर चकमा देने की कोशिश करेगा, उतना ही इस बात का खतरा है कि एक बार इस मामले पर चर्चा करने के लिए बाध्य होने पर उसे व्यापक तौर पर शर्मिंदगी का सामना करना पड़े।
दूसरा, यदि पेगासस जासूसी उपकरण सिर्फ एक आधुनिकतम तकनीक है और इससे अधिक कुछ नहीं है, तो यह सोच पाना असंभव है कि सिर्फ इजरायल में ही एक निजी कंपनी के पास ही यह कैसे उपलब्ध हो सकता है। इसी प्रकार की अन्य कंपनियों, जैसे कि अमेरिकी या चीनी कंपनियों के पास अभी तक यह नहीं होगा, ऐसा सोचना कल्पना से परे है।
तीसरा, कैसे कोई भी कंपनी के इस दावे पर पूरी तरह से यकीन कर सकता है कि वह अपना माल सिर्फ सरकारी एजेंसियों को ही बेचती है? सबसे पहली बात तो यह है कि, ऐसी एक भी कंपनी नहीं है जो अपने ट्रेड सीक्रेट्स को इतने खुले तौर पर साझा करती हो; और दूसरा, वर्तमान विश्व में, जहाँ पर अंतर्राष्ट्रीय पूंजी ने राज्य की संप्रभुता की धारणा का मजाक बना डाला है, ऐसे में ऐसी प्रतिज्ञा मनगढ़ंत बातों के सिवाय कुछ नहीं है।
चौथा, भले ही कोई इस बात को मान्यता देता हो कि राज्य के पास नागरिकों की निजी जीवन में दखलंदाजी देने का अधिकार है, बशर्ते कि इस प्रकार की दखलंदाजी को क़ानून द्वारा विधिवत मंजूरी दी गई हो, तो क्या वह कानून इस बात की भी इजाजत देगा कि जब राष्ट्रीय सुरक्षा का सवाल सन्नहित हो तो ऐसे में भी वह किसी विदेशी कंपनी के जरिये जासूसी करने की अनुमति दे सकता है? आज यह सब कांग्रेस के नेता राहुल गाँधी के साथ हो रहा है, कल, प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी भी इसका शिकार हो सकते हैं। आखिरकार, वर्तमान में भारत-इजरायल की गलबहियों वाली दोस्ती कोई पत्थर पर उकेरी गई लकीर तो नहीं है।
इसे तो कोई बच्चा भी बता सकता है कि अंतरराष्ट्रीय रिश्ते तो मानसूनी बादलों की मानिंद बदलते रहते हैं। ऐसे में पेगासस जासूसी सॉफ्टवेयर कांड ने जो सवाल खड़े किये हैं, वे भारतीय दलगत राजनीति से काफी आगे निकल गए हैं। इसमें मौजूदा अंतर्राष्ट्रीय वैश्विक क्रम तक को अपनी चपेट में ले लेने की क्षमता है, और हो सकता है कि इस कई मुँह वाले राक्षस से निपटने के लिए निकट भविष्य में अंतर्राष्ट्रीय संधि में जाने की जरूरत पड़े। यह अनायास ही नहीं है कि फ़्रांस और इजरायल ने इस मामले पर उच्च स्तरीय जांच के निर्देश दिए हैं। ये जासूसी सॉफ्टवेयर अंतरराष्ट्रीय वित्तीय प्रणाली के ऊपर कहर बरपाने में सक्षम हैं।
राज्य प्रायोजित जासूसी एक प्राचीन संस्था रही है। हम इस बारे में कहानियों को सुनते हुए बड़े हुए हैं कि कैसे पुराने जमाने में राजा एक साधारण आदमी का भेष धारण कर अपनी प्रजा के बीच में जाया करते थे, ताकि लोगों के बीच की लोकप्रिय धारणा से खुद को अवगत रखा जा सके। जैसे-जैसे हम बड़े होते गए, हमने खुद को शासनकल की बारीकियों से परिचित कराया, जिसमें जासूसी अनिवार्य तौर पर एक वैध राजकीय गतिविधि के सम्मिलित थी। हमारे अपने गौरव, कौटिल्य ने राजा को सलाह दी थी कि वह अपने वित्त मंत्री की जासूसी करे, क्योंकि कहीं ऐसा न हो कि वह राज्य के धन का गबन कर ले। सार्वजनिक धन की सार-संभाल करने वाले एक वेतनभोगी कारकून के रूप में, वित्त मंत्री के पास गबन में लिप्त होने का संभावित इरादा और साधन दोनों ही मौजूद रहते थे।
इसलिये, यदि जासूसी एक सामान्य राजकीय गतिविधि है तो कोई भी मासूमियत से यह प्रश्न पूछ सकता है कि पेगासस को लेकर फिर इतना हंगामा क्यों मचा हुआ है। जाहिर है, यह मासूमियत भरा सवाल कहीं न कहीं, आम तौर पर क्या हुआ होगा की ओर ले जाती है। भाजपा सरकार के पक्ष में अंध समर्थक उलटकर तर्क रखते हैं कि इंदिरा गाँधी ने भी तो अपने राजनीतिक प्रतिद्वंदियों के ऊपर जासूसी करवाई थी. कुछ तो यहाँ तक कहते हैं कि उनकी छोटी बहू मेनका गांधी तक को नहीं बक्शा गया था। वे आगे जोड़ते हुए कहते हैं, क्या राजीव गांधी ने भारत के तत्कालीन राष्ट्रपति, ज्ञानी जेल सिंह की जासूसी नहीं करवाई थी।
लेकिन यहाँ पर एक समस्या है। क्या इस तर्क को आईना नहीं दिखाया जाना चाहिए? हमने अभी तक न तो इंदिरा गाँधी और न ही राजीव गाँधी को उनके द्वारा की गई किसी भी कारगुजारियों के लिए माफ़ किया है। अन्यथा क्या हम यह नहीं कह रहे हैं कि चूँकि अतीत में चुड़ैल-का शिकार करने और वधू को जलाकार मार डालने की घटनाएं आम थीं, इसलिए आज भी हमें इन्हें जारी रखने की अनुमति देनी चाहिए। सिक्के का हेड आया तो मैं जीता और टेल आया तो तुम हारे, यह कोई सम्मानजनक प्रस्ताव नहीं है।
वर्तमान सन्दर्भ में देखें तो पुरानी तुलनात्मक बातों का दो वजहों से कोई मतलब नहीं रह जाता है। पहला, पिछले चार दशकों के दौरान तकनीक में नाटकीय बदलाव देखने को मिला है। और दूसरा, एक संभावित राजनीतिक प्रतिद्वंदी को चुनने और एक साधारण व्यक्ति को सिर्फ भविष्य में संभावित इस्तेमाल के लिए निशाना बनाने के मकसद से कॉम्प्रोमैट (आपत्तिजनक सामग्री) को इकट्ठा करने के बीच एक स्पष्ट अंतर है।
आखिर क्यों पेगासस की सूची में, भारत के एक पूर्व मुख्य न्यायाधीश के खिलाफ यौन दुर्व्यवहार का आरोप लगाने वाली अदालत की महिला कर्मचारी के परिवार के सदस्य को शामिल किया गया था? मान लेते हैं कि इसको लेकर जिस प्रकार से अफवाहों का बाजार गर्म है, उसमें सत्यता आंशिक रूप में ही हो। लेकिन इस मामले में, स्पष्ट रूप से यह निष्कर्ष निकाला जा रहा है कि पेगासस जासूसी सॉफ्टवेयर उपकरण का इस्तेमाल करने वाला मुख्य न्यायाधीश को ब्लैकमेल करने की कोशिश कर रहा था, ताकि उन्हें सर्वोच्च न्यायालय में सरकार के पक्ष में फैसला सुनाने के लिए मजबूर किया जा सके।
समस्या यह है कि कई सदियों से हम महलों के कुचक्रों की अनदेखी करने के मामले में इतने अभ्यस्त हो चुके हैं कि हम राज्य के अपराधों को आदतन माफ़ कर देते हैं, भले ही वह हमारी स्वतंत्रता के पर ही क्यों न कतर रहा हो और हमारे निजी जीवन में नाक घुसेड़ रहा हो। राष्ट्रीय सुरक्षा के प्रति हमारी गहरी प्रतिबद्धता के चलते हम आमतौर पर राज्य को संदेह का लाभ उठाने का मौका दे देते हैं। शायद ही हमने कभी इस बात का अहसास किया हो कि राष्ट्रीय सुरक्षा के प्रश्न को लगातार केवल सत्ता में अपने आधिपत्य को बढ़ाने के लिए केवल व्यंजना तक ही सीमित कर दिया गया है।
यह लोकतांत्रिक अधिकारों में दखलंदाजी को ‘नए सामान्य’ के तौर पर स्वीकारने की एक खतरनाक प्रवृत्ति की ओर ले जाती है। ‘सरकारी गोपनीयता’ का भूत इन दिनों इस कदर हावी है कि सेवानिवृत्त अधिकारियों तक को अपने संस्मरणों के प्रकाशन के नाम पर पसीने छूटने लगते हैं, वे इस हद तक व्यामोहाभास का शिकार हैं कि कि उन्हें लगता है कि कहीं उन्होंने अनजाने में राष्ट्रीय हितों से समझौता तो नहीं कर लिया है।
फेशियल रिकोग्निशन की प्रणाली जल्द ही शुरू हो सकती है। यदि इसका उपयोग अपराध की पड़ताल करने तक सीमित है, तो यह दुरुस्त है और अच्छा है। लेकिन आशंका यह है कि जल्द ही इसे गुप्त रूप से यह पता लगाने के लिए इस्तेमाल किया जा सकता है कि कौन लोग किस राजनीतिक रैली में शामिल हुए थे, फिर उन्हें चुनिंदा रूप से प्रताड़ित किया जा सकता है। सौभाग्यवश, यूरोपीय संघ और संयुक्त राज्य अमेरिका में कुछ राज्यों ने इस मामले में जल्दबाजी न करने का फैसला लिया है, जो संभवतः बाकियों को भी संयम बरतने के लिए प्रभावित कर सकता है, या कम से कम इस प्रकार की तकनीक के बारे में दोबारा से मूल्यांकन करने के लिए बाध्य कर सकता है।
एक अंतिम प्रश्न, पेगासस विवाद समकालीन भारत में बेहद गहराई से पैवस्त बीमारी के लक्षणों में से सिर्फ एक मुद्दा है। “मेरा देश महान” और विश्वगुरु के दर्जे के झूठे गौरव से ओतप्रोत, भारत बड़ी तेजी से वैश्विक मंच पर हंसी का पात्र बनता जा रहा है।
यहाँ पर कुछ तथ्य दिए गए हैं, जो एक गहरी अस्वस्थता की ओर इशारा करते हैं। तकरीबन 1.4 अरब लोगों के देश को मात्र 543 संसद सदस्यों (एमपी) के द्वारा प्रतिनिधित्व किया जाता है। औसतन प्रत्येक सांसद द्वारा 25,78,269 भारतीयों की रहनुमाई की जाती है। इन संख्याओं को परिप्रेक्ष्य में रखने के लिए, आइये यूनाइटेड किंगडम के हाउस ऑफ़ कॉमन्स में मात्र 6.6 करोड़ लोगों का प्रतिनिधित्व करने के लिए 650 सदस्यों से तुलना करते हैं। दूसरे शब्दों में कहें तो, यूनाइटेड किंगडम का प्रत्येक सांसद मात्र 1,01,538 लोगों का प्रतिनिधित्व करता है, जो कि उसके/उसकी भारतीय समकक्ष की तुलना में 25 गुना कम है।
कहानी का दूसरा पहलू तो और भी पीड़ादायक है। पीआरएस (पालिसी रिसर्च स्टडीज) विधायी शोध के अध्यक्ष, एमआर माधवन ने कुछ चौंकाने वाले आंकड़े जुटाए हैं। भारतीय संसद के लगातार चार सत्र समय से पहले ही समाप्त हो गए हैं, जिसमें 2020 का रद्द कर दिया गया शरदकालीन सत्र भी शामिल है। ये सत्र नियमित तौर पर बाधित भी किये जाते रहे हैं। लोकसभा ने अपने मूल रूप से पूर्व निर्धारित समय के केवल 19% समय में ही कामकाज किया, और राज्य सभा ने मात्र 26% तक ही अपने कार्यों का निष्पादन किया है।
लेकिन इस सबके बावजूद, सरकार 18 विधेयकों को कानून में तब्दील करने में सफल रही। इन विधेयकों में से मात्र एक बिल पर ही 15 मिनट से अधिक समय तक चर्चा हो सकी। बाकी के करीब-करीब सभी विधेयकों को पेश होते ही पारित करा दिया गया। पन्द्रहवीं लोक सभा (2009-14) में मात्र 18% विधेयकों को ही उसी सत्र में पारित करवाया जा सका था। सोलहवीं लोक सभा (2014-19) के दौरान यह दर बढ़कर 33% हो गई थी। सत्रहवीं लोकसभा (2019-24) के हम आधे से भी कम समय में पहुंचे हैं, लेकिन यह दर पहले ही अविश्वसनीय तरीके से 70% तक पहुँच चुकी है। इस पृष्ठभूमि के मद्देनजर, यदि हम उम्मीद लगाये बैठे हैं कि यह सरकार पेगासस के मुद्दे पर खुली चर्चा की अनुमति देगी तो दिन में सपने देखने की मूर्खता कर रहे हैं।
अब तक के प्रसिद्ध सूत्रीकरण को याद करते हुए अपनी बात को समाप्त करने की इजाजत चाहता हूँ कि लोकतंत्र की समस्याओं का निराकरण, और अधिक लोकतंत्र है। किसी को इस बात पर संदेह हो सकता है कि यह अराजकता के लिए एक निमंत्रण है। किंतु अमेरिकी नाटककार एडवर्ड एल्बी ने निश्चित ही दार्शनिक भाव रखा होगा, जब उन्होंने कहा था कि “सिर्फ अराजकतावादी व्यक्ति ही लोकतंत्र को गंभीरता से लेता है।” उनका अंतर्निहित विश्वास निश्चित तौर पर यह रहा होगा कि लोकतंत्र का मार्ग शोरगुल युक्त और अराजक होना चाहिए। यह कोई आसान राह नहीं है।
हालाँकि हमें अवश्य ही इस बात को ध्यान में रखना चाहिए कि सब कुछ एक चुनाव ही नहीं है। इसे उलटकर देखें तो, चुनाव ही सब कुछ नहीं है। जिस तरह एक थर्मामीटर हमें सिर्फ बुखार की मौजूदगी के बारे में बता सकता है, न कि उसके कारण के बारे में, उसी प्रकार से चुनाव हमें सिर्फ यही बता सकता है कि अब कौन शासन करेगा, इस बारे में नहीं कि देश किस दिशा में जाने को अग्रसर है। इसलिए, यह बेहद अहम है कि मतदाताओं को व्यापक प्रश्नों के बारे में शिक्षित किया जाए, जैसे कि स्वतंत्रता, धर्मनिरपेक्षता और निश्चित तौर पर वैयक्तिक निजता के महत्व के बारे में।
आइये हम अपने आप को निरंतर उस बात के प्रति सचेत करते रहें, जिसे नाज़ी प्रचारक जोसेफ़ गोएबल्स ने प्रसिद्ध रूप में कहा था: “लोकतंत्र के बारे में ये सबसे बेहतरीन चुटकुलों में एक बना रहेगा कि इसने (लोकतंत्र) अपने जानी दुश्मनों को वे साधन सौंप दिए हैं, जिसके द्वारा इसे ही ख़त्म किया गया।”
इस लेख के लेखक इंस्टीट्यूट ऑफ़ सोशल साइंस, नई दिल्ली में सीनियर फेलो हैं, और पूर्व में आईसीएसएसआर नेशनल फेलो एवं जेएनयू में साउथ एशियन स्टडीज के प्रोफेसर रह चुके हैं। व्यक्त किये गए विचार व्यक्तिगत हैं।
अंग्रेज़ी में प्रकाशित मूल आलेख को पढ़ने के लिए नीचे दिये गये लिंक पर क्लिक करें
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