फिर फूट पड़ी महंगाई
इस साल के मार्च का मुद्रास्फीति का सरकारी आंकड़ा, जो पिछले ही दिनों जारी किया गया है, 2020 के मार्च के मुकाबले, 7.39 फीसद की बढ़ोतरी दिखाता है। मुद्रास्फीति की इतनी ऊंची दर भारत में, पिछले 8 साल में इससे पहले देखने को नहीं मिली थी। इससे पहले 2012 के अक्टूबर के महीने में ही, पिछले साल के उसी महीने के मुकाबले,7.4 फीसद की मुद्रास्फीति दर दर्ज हुई थी।
केंद्र सरकार ने मुद्रास्फीति सूचकांक का आंकड़ा जारी करते हुए आगाह किया था कि चूंकि साल भर पहले देश में कठोर लॉकडाउन लगाया गया था, इसके चलते मुद्रास्फीति की गणना का आधार आंकड़ा खुद ही संदिग्ध हो जाता है और वह अपने आप में तुलना के आधार वर्ष में मुद्रास्फीति को कमतर दिखा रहा हो सकता है। लेकिन, वास्तव में इस दलील से भी कोई खास राहत हासिल नहीं की जा सकती है। 2021 के मार्च में मुद्रास्फीति की दर, इससे पिछले महीने यानी 2021 के ही फरवरी के महीने के मुकाबले, पूरी 1.57 फीसद की भारी बढ़ोतरी दिखा रही थी।
साफ है कि हम एक मुद्रास्फीतिकारी उछाल से दो-चार हो रहे हैं। और यह उछाल पिछले कुछ अर्से से जमा हो रहा था। जनवरी के महीने में यह वृद्घि पिछले साल के इसी के महीने के मुकाबले 2.51 फीसद थी और फरवरी के महीने में, 4.17 फीसद। लेकिन, सवाल यह है कि हमें मुद्रास्फीति में यह उछाल देखना क्यों पड़ रहा है?
इस समय देश में बहुत भारी बेरोजगारी है और उसी तरह से उत्पादन क्षमता का बहुत बड़ा हिस्सा बिना उपयोग के पड़ा हुआ है। इसके अलावा सरकार के हाथों में खाद्यान्न के बड़े भारी भंडार भी हैं। संक्षेप में यह कि अर्थव्यवस्था अब भी मांग बाधित बनी हुई है और आपूर्ति की आम तंगी के चलते मुद्रास्फीति पैदा हो रहे होने का कोई सवाल ही नहीं उठता है। यहां-वहां कुछ खास चीजों की अस्थायी कमी तो फिर भी हो सकती है, लेकिन उसकी वजह से लगातार मुद्रास्फीति में उछाल बने रहना और वह भी इस पैमाने के उछाल का बने रहना, संभव ही नहीं है।
किसी मांग-बाधित अर्थव्यवस्था में मुद्रास्फीति का उछाल सिर्फ लागतों के बढऩे से आ सकता है। और ठीक यही इस मामले में हुआ है। इस सिरे से उस सिरे तक, लागतों में जो बढ़ोतरी देखने में आ रही है, मूलत: केंद्र सरकार के कुछ प्रशासनिक कदमों का ही नतीजा है। इसीलिए, मुद्रास्फीति की वर्तमान उछाल को एक केंद्र-प्रशासित परिघटना कहा जा सकता है। बेशक, यह कहने का अर्थ यह कतई नहीं है कि केंद्र सरकार इस हद तक मुद्रास्फीति लाना चाहती थी। लेकिन, यह परिघटना केंद्र सरकार के सचेत और सोचे-समझे कदमों का ही नतीजा है। वर्तमान मुद्रास्फीति को केंद्र-प्रशासित कहना, इसी सचाई को अभिव्यक्त करता है।
इस मुद्रास्फीति के पीछे सबसे महत्वपूर्ण कारक है, पैट्रोलियम उत्पादों की कीमतें बढ़ाने का केंद्र सरकार का फैसला। शुरूआत में केंद्र सरकार इस नीति पर चल रही थी कि विश्व बाजार में तेल के दाम जब गिरावट पर थे, उनके हिसाब से देश में पैट्रोलियम उत्पादों की कीमतें नहीं घटायी जाएं जबकि विश्व बाजार में तेल की कीमतें बढऩे लगें तो इस बढ़ोतरी को उपभोक्ताओं पर डाल दिया जाए। यह अपने आप में पैट्रोलियम उत्पादों की कीमतों को ऊपर धकेल रहा था। लेकिन, आगे चलकर सरकार और दो कदम आगे बढ़ गयी। उसने विश्व बाजार में तेल की कीमतें नीचे आने तथा नीची बनी रहने के बावजूद, देश में तेल उत्पादों की कीमतें बढ़ाना शुरू कर दिया।
दूसरा काम उसने यह किया कि सब्सीडियों में कटौती कर दी। पहले, जब घरेलू पैट्रोलियम उत्पादों, जैसे उर्वरकों की उत्पादन लागत बढ़ा करती थी, केंद्र सरकार उर्वरक सब्सीडी में बढ़ोतरी कर के यह सुनिश्चित किया करती थी कि किसानों को इन उत्पादों की कीमतों में बढ़ोतरी का बोझ नहीं उठाना पड़े। लेकिन, अब जब भी इन उत्पादों की उत्पादन लागत बढ़ती है और विश्व बाजार में तेल की कीमतों में बढ़ोतरी की वजह से ही नहीं, खुद सरकार के इनकी उत्पादन लागत बढ़ाने के फैसलों की वजह से भी यह कीमत बढ़ती है, तब भी इस बढ़ोतरी का सारा का सारा बोझ किसानों पर डाल दिया जाता है। और चूंकि दूसरी ओर किसानों की पैदावार के न्यूनतम समर्थन मूल्य में इसी हिसाब से बढ़ोतरी नहीं हो रही होती है, सरकार की यह नीति एक ओर तो मुद्रास्फीति को भडक़ाने का काम करती है और दूसरी ओर, किसानी खेती की आर्थिक वहनीयता को खत्म करने का काम करती है।
हैरानी की बात नहीं है कि ‘ईंधन और ऊर्जा’ घटक के लिए थोक मूल्य सूचकांक में, पिछले साल की तुलना में पूरे 10.25 फीसद की बढ़ोतरी दर्ज हुई है। इसमें रसोई गैस की कीमत में 10.30 फीसद की और पैट्रोल के दाम में 18.48 फीसद की बढ़ोतरी शामिल है। चूंकि पैट्रालियम तथा पैट्रोलियम उत्पाद सार्वभौम इंटरमीडियरी या मध्यस्थ होते हैं, जिनका असर हरेक उत्पाद की कीमतों पर पड़ता है, उन्होंने विनिर्मित मालों की कीमतों को भी ऊपर धकेला होगा। इन मालों की कीमतों में भी 7.34 फीसद की बढ़ोतरी हुई है।
इस तरह सार्वभौम इंटरमीडियरी की कीमतें बढ़ाना और दूसरी ओर उन सब्सीडियों में कटौती करना जो मेहनतकश जनता के बड़े हिस्सों को मुद्रास्फीति में बढ़ोतरी की मार से बचा सकते थे, इसी सचाई को रेखांकित करता है कि वर्तमान मुद्रास्फीति के पीछे, केंद्र सरकार का राजकोषीय पैंतरा ही काम कर रहा है। संक्षेप में यह कि सरकार ने, प्रशासित मुद्रास्फीति को ही अपनी राजकोषीय रणनीति के रूप में चुना है।
इस तरह की प्रशासित मुद्रास्फीति-आधारित रणनीति के निहितार्थों को समझने के लिए, हम निम्रलिखित उदाहरण ले सकते हैं। इस उदाहरण की सरलता के लिए हम एक पूर्व-मान्यता लेकर चलेंगे, जो सरलीकरण करने वाली जरूर है, लेकिन किसी भी तरह से गैर-यथार्थवादी नहीं है कि मेहनतकश जन, जितनी भी कमाई करते हैं, पूरी की पूरी उपभोग में लगा देते हैं। अब किसी ऐसी अर्थव्यवस्था में जिसमें मांग पर्याप्त न होने के वजह से उत्पाद सीमित बना हुआ हो, अगर सरकार बैंकों से ऋण लेकर यानी राजकोषीय घाटे के सहारे अतिरिक्त खर्चा करती है, तो उस अर्थव्यवस्था में उत्पाद में और रोजगार में बढ़ोतरी हो जाएगी।
संक्षेप में इस सूरत में सरकार के अतिरिक्त खर्चा करने के लिए संसाधन, किसी के भी खर्चे में कटौती से नहीं आ रहे होंगे (उल्टे उस सूरत में तो सभी के खर्चे बढ़ ही रहे होंगे) बल्कि ये संसाधन तो अनुपयोगी पड़े संसाधनों के उपयोग से ही आ रहे होंगे। इस सूरत में आय असमानता में भी कोई बढ़ोतरी नहीं होगी क्योंकि ज्यादा उत्पाद बनने से मुनाफे का हिस्सा बढऩा कोई जरूरी नहीं है। लेकिन, इस सूरत में संपदा असमानता में बढ़ोतरी जरूर हो जाएगी क्योंकि अमीरों के हाथों में अतिरिक्त बचतें आ रही होंगी तथा इसलिए, उनकी संपदा बढ़ रही होगी और वह भी उनके अलग से कुछ किए-धरे बिना ही। लेकिन, संपदा असमानता में इस बढ़ोतरी से उसी हिसाब से संपदा कर लगाकर निपटा जा सकता है। या फिर उन पर मुनाफा कर लगाया जा सकता है, जिसके लगाए जाने से राजकोषीय घाटे का कारण ही खत्म हो जाएगा। संपदा या मुनाफा कर लगाने के जरिए, ऐसी अतिरिक्त बचतों को सरकार के बटोरने से, इस तथ्य पर कोई फर्क पडऩे वाला नहीं है कि सरकार के अतिरिक्त खर्च करने के लिए संसाधन, अनुपयोगी पड़ी उत्पादक क्षमताओं के उपयोग से ही आ रहे होंगे, न कि किसी के भी वास्तविक खर्चे की कीमत पर। इसके साथ ही साथ, ऐसी सूरत में न तो संपदा असमानता में बढ़ोतरी हो रही होगी और न आय असमानता में।
अब जरा इससे भिन्न परिदृश्य की कल्पना करें। मान लीजिए, सरकार अपने खर्चे के लिए संसाधन जुटाने के लिए, प्रशासित मुद्रास्फीति का सहारा लेती है, जोकि इस समय किया जा रहा है। इस सूरत में चूंकि मेहनतकशों की कमाई रुपयों में नहीं बढ़ रही होती है, कीमतों के बढऩे से उनकी वास्तविक आय घट ही रही होती है। इसलिए, संसाधन जुटाने का यह तरीका अनिवार्य रूप से मेहनतकशों को निचोडऩे का काम करता है। इसके चलते मेहनतकशों का उपभोग घट जाता है और उनके उपभोग में इस कमी से बचने वाले संसाधनों का उपयोग कर सरकार, अपने खर्चों में बढ़ोतरी करती है। सरकार के इस तरह के कदम से, सकल मांग में कोई शुद्घ बढ़ोतरी नहीं होती है और इसलिए संंबंधित अर्थव्यवस्था में उत्पाद, रोजगार तथा उत्पादन क्षमताओं के उपयोग में कोई बढ़ोतरी नहीं होती है।
पहले वाले तरीके के विपरीत (जिसमें तुलनीय संपदा या मुनाफा कराधान भी शामिल है), दूसरे तरीके के अपनाए जाने पर, आय की असमानता का स्तर बढ़ेगा (क्योंकि निजी अधिशेष कम नहीं हो रहा होगा जबकि मेहनतकशों की वास्तविक आय घट रही होगी)। इस तरीके से, मेहनतकश जनता को और दरिद्र बनाया जा रहा होगा जबकि इससे अर्थव्यवस्था में नयी जान भी नहीं पड़ेगी। इस तरह, यह हरेक लिहाज से बदतरीन रास्ता है। यह सबसे अविचारपूर्ण रास्ता भी है क्योंकि जिस अर्थव्यवस्था में उत्पादन क्षमता अनुपयोगी पड़ी हो तथा बेरोजगारी हो, वह एक ऐसी अर्थव्यवस्था होती है जहां मुफ्त में ही कुछ हासिल किया जा सकता है। लेकिन, यह रास्ता तो, इस संभावना को ही ध्वस्त करता है, जबकि इसकी जगह दूसरा रास्ता अपनाने से रोजगार में तथा इसलिए आम तौर पर खुशहाली में भी बढ़ोतरी संभव है। संक्षेप में यह कि मोदी सरकार प्रशासित मुद्रास्फीति की जो नीति लागू कर रही है, घोर अविचारपूर्ण तथा नुकसानदेह रास्ते के अपनाए जाने का ही मामला है।
तब इस रास्ते पर चला ही क्यों जा रहा है जबकि सरकार द्वारा खर्चा किए जाने के जरिए, अर्थव्यवस्था में नये प्राण फूंके जाने की वैकल्पिक नीति को अपनाया जा सकता है? बेशक, इस सवाल के जवाब का एक हिस्सा तो मोदी सरकार की अपनी विचारहीनता में ही छुपा है। इस सरकार को अर्थशास्त्र की शायद ही कोई समझ है। और उसे जनविरोधी नीतियों पर चलने में तब भी कोई परहेज नहीं होता है, जब ऐसी नीतियों पर चले जाने की कोई जरूरत तक नहीं हो। ऐसा इसलिए है कि उसे इसका पक्का यकीन है कि सांप्रदायिक धु्रवीकरण करने तथा समाज में नफरत फैलाने के जरिए, धन-बल के भारी इस्तेमाल के जरिए और अपने दलगत स्वार्थ साधने के लिए तमाम संवैधानिक संस्थाओं को पूरी तरह से अपने मनमुताबिक नचाने के जरिए, वे चुनाव तो जीत ही लेंगे।
फिर भी उक्त प्रश्न के उत्तर का एक हिस्सा इसमें भी निहित होना चाहिए कि मोदी सरकार वैश्वीकृत वित्त के फरमानों की पूरी तरह से गुलाम बनी हुई है। वैश्वीकृत वित्त को न तो बढ़े हुए संपदा कर मंजूर हैं, न बढ़े हुए मुनाफा कर और न राजकोषीय घाटे का बढऩा मंजूर है। और चूंकि पिछले साल राजकोषीय घाटा बढ़ गया था, हालांकि ऐसा जनता की मदद करने में सरकार की किसी उदारता की वजह से नहीं बल्कि लॉकडाउन के चलते जीडीपी में तथा इसलिए कर राजस्व में भी कमी की वजह से हुआ था, इस सरकार की नजर में वित्तीय पूंजी को खुश करना, बाकी हरेक चीज से पहले आता है। इसीलिए, राजकोषीय घाटे को कम करने के लिए यह सरकार मेहनतकश जनता पर करों का बोझ बढ़ा रही है और ऐसा कर रही है प्रशासित मुद्रास्फीति के जरिए। यह सरकार ऐसा इसके बावजूद कर रही है कि इसके चक्कर में देश को लगातार भारी बेरोजगारी तथा उत्पाद में गिरावट का मुंह देखना पड़ रहा है।
जहां अमरीका में जो बाइडेन, मेहनतकश जनता के लिए खासे बड़े राहत पैकेज दे रहे हैं और अमीरों पर कर लगाने के जरिए उसके लिए वित्त व्यवस्था करने का प्रस्ताव कर रहे हैं, मोदी सरकार मेहनतकश जनता को ही और ज्यादा निचोडऩे में लगी हुई है क्योंकि, अमीरों पर कर लगाने के जरिए वैश्वीकृत वित्त को नाराज करने की तो उसमें हिम्मत ही नहीं है।
मूल लेख अंग्रेजी में है। इस लिंक के जरिए आप मूल लेख पढ़ सकते हैं।
Current Inflationary Upsurge in India a Centrally-administered Phenomenon
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