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यमन में ईरान समर्थित हूती विजेता

माना जाता है कि हूती आज से सात साल पहले के मुक़ाबले तेहरान के कहीं ज़्यादा क़रीब है। ऐसे में इस बात की ज़रूरत है कि अमेरिका ईरान से बातचीत करे।
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रियाद में 7 अप्रैल, 2022 को यमन के प्रेसिडेंशियल लीडरशिप काउंसिल का स्वागत करते हुए सऊदी क्राउन प्रिंस मोहम्मद बिन सलमान (दायें)  

अभी कुछ भी कहना जल्दबाज़ी होगी ,क्योंकि यमन ने सितंबर, 2014 में शुरू हुए अपने उतार-चढ़ाव वाले गृहयुद्ध के बीच कई युद्धविराम देखे हैं, उस समय हूती सैन्य बलों ने राजधानी सना पर कब्ज़ा कर लिया था, जिसके बाद हूती यहां की सरकार पर तेज़ी से काबिज होते चले गये थे। रमज़ान के दो महीने लंबे युद्धविराम का ऐलान किया गया है, जिसे लेकर इस देश में निराशा का माहौल है।

हालांकि, यह एक निर्णायक क्षण भी हो सकता है। हमेशा विवाद के केंद्र में रहे सऊदी समर्थित राष्ट्रपति अबेद रब्बो मंसूर हादी ने 8 सदस्य वाले इस संक्रमणकालीन काउंसिल के पक्ष में "अपरिवर्तनीय रूप से" सत्ता छोड़ देने पर सहमति जता दी है, जो अस्थायी रूप से संक्रमण अवधि के दौरान यमन के राजनीतिक, सैन्य और सुरक्षा क्षेत्रों का तबतक के लिए प्रभारी होगा, जबतक कि एक नये राष्ट्रपति का चुनाव नहीं हो जाता। राष्ट्रपति के आदेश के मुताबिक़, इस नवगठित काउंसिल के पास यमन के ईरान समर्थित हूतियों के साथ हर तरह से बातचीत करने और लगातार चल रही हिंसा का हल ढूंढ़ने को लेकर सभी कार्यकारी शक्तियां और अधिकार होंगे।

संभव है कि इस नाटकीय घटनाक्रम के लिए उस हादी के साथ सऊदी की बढ़ती निराशा को ज़िम्मेदार ठहराया जाये, जो एक अलोकप्रिय व्यक्ति है, जिनके बारे में क्विंसी इंस्टीट्यूट की एनेले शेलीन का कहना है, "इन्होंने ही हूती विद्रोहियों और उनके शासन का विरोध करने वाले अन्य लोगों को प्रभावी ढंग से सशक्त बनाया था।" दूसरा कारण यमन में सऊदी नेतृत्व वाली सैन्य कार्रवाइयों को लेकर अमेरिकी समर्थन से हाथ खींच लेने के सिलसिले में अमेरिकी कांग्रेस की व्यापक राय भी हो सकती है। 

संयुक्त राष्ट्र की ओर से मध्यस्थता से संपन्न हुआ रमज़ान के दौरान दो महीने का यह संघर्ष विराम समझौता ज़मीन पर इन ताक़तों के नाज़ुक संतुलन पर आधारित एक असहज संघर्ष विराम है। हूती राजधानी सना के साथ-साथ उत्तरी यमन (सऊदी अरब की सीमा) के ज़्यादतर हिस्सों पर ज़ायदी शियाओं का नियंत्रण है।

संक्रमणकालीन इस काउंसिल का जो ढांचा है, उससे भी ज़्यादा उम्मीद नहीं दिखती है। यह मुख़्तलिफ़ समूहों का एक ऐसा निकाय है, जो सिर्फ़ हूतियों के विरोध में लामबंद होते हैं। हूतियों ने ख़ुद भी इस काउंसिल को ख़ारिज कर दिया है। इस बात की ज़्यादा संभावना है कि दोनों पक्ष पहले सैन्य रूप से फिर से जुड़ने की कोशिश कर रहे हों और अपनी-अपनी ताक़त की हैसियत से यह बातचीत करने की कोशिश कर रहे हों।

लेकिन, अच्छी बात यही है कि युद्धविराम की शर्तों में कुछ हद तक वाणिज्यिक उड़ानों की इजाज़त दिये जाने को लेकर साना हवाई अड्डे की नाकाबंदी को आंशिक रूप से हटाना और होदेडा बंदरगाह से ईंधन आयात करना शामिल है,ये दोनों ही बातें हूतियों के हित में हैं।

इसके अलावा, स्वीडन के संयुक्त राष्ट्र के विशेष दूत हंस ग्रंडबर्ग ने वार्ताओं की जो रूपरेखा तैयार की है,वह संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद के मौजूदा प्रस्तावों की प्रभावी रूप से अनदेखी करती है।इसमें हूती निरस्त्रीकरण और क्षेत्रीय आत्मसमर्पण का आह्वान किया गया है। दिलचस्प बात यह है कि वाशिंगटन हूतियों को लेकर ग्रंडबर्ग के इस व्यावहारिक नज़रिये का समर्थन करता दिख रहा है।

बुनियादी तौर पर क्षेत्रीय समीकरण और प्राथमिकतायें दोनों ही बदल रही हैं। सऊदी अरब इस महंगे पड़ते युद्ध से बाहर निकलने की तलाश करता दिख रहा है और यूएई ने पहले ही इस युद्ध में उलझने से तौबा किया हुआ है। किसी भी तरह से प्रतिबंधों के  उठा लिये जाने के बाद ईरान के भीतर अपेक्षित जोश सभी इलाक़ाई देशों के लिए एक ऐसा "एक्स" फ़ैक्टर बन जाता है, जिससे सऊदी अरब, संयुक्त अरब अमीरात और मिस्र को उस तरीक़े के मुक़ाबले अलग ढंग से निपटना होगा, जिस तरीक़े से इस क्षेत्र से धीरे-धीरे अमेरिका लगातार बाहर निकल रहा था। ट्रम्प प्रशासन के उलट, बाइडेन सऊदी की अगुवाई वाले इस युद्ध को लेकर पिछले ग़ैर-आलोचनात्मक समर्थन को एक भ्रमपूर्ण ग़लती के रूप में देखते हैं।

यह पहले से ही एक अहम बिंदु रहा है कि हूती अपने हथियारबंदी को छोड़े बिना ही बातचीत करें। इसका फ़ायदा हूतियों को मिलता हुआ दिख रहा है। इसी तरह, ईरान सबसे ज़्यादा फ़ायदे में रहने वाले क्षेत्रीय किरदार के रूप में सामने आते दिख रहा है। हूतियों के लिए इसके मज़बूत समर्थन का इसे फ़ायदा हुआ है। पश्चिम एशिया के जाने-माने पूर्व-सीआईए विशेषज्ञ और लेखक ब्रूस रीडेल की उस टिप्पणी को यहां उद्धृत किया जाना चाहिए कि   "तेहरान (अब) ने लाल सागर और हिंद महासागर के बीच रणनीतिक बाब अल-मंडब जलडमरूमध्य को नज़रअंदाज़ करते हुए अरब प्रायद्वीप पर अपने पैर जमा लिए हैं।"

इस लिहाज़ से विडंबना यही है कि वियना में ईरान के परमाणु वार्ताकारों के लिए आख़िरी अड़ंगा कथित तौर पर तेहरान की आखिरी पल की यह मांग है कि अमेरिका इस्लामिक रिवोल्यूशनरी गार्ड्स कॉर्प्स (IRGC) को आतंकवादी समूहों की सूची से हटा दे। वास्तव में यह आईआरजीसी ही है, जो यमन नीति चला रहा है, और सऊदी अरब, संयुक्त अरब अमीरात, अमेरिका, ब्रिटेन, फ़्रांस आदि जैसे शक्तिशाली दुश्मनों की एक व्यूह रचना के ख़िलाफ़ एक अकेला युद्ध छेड़ने में हूतियों के दोस्त, दार्शनिक, मार्गदर्शक और सलाहकार के रूप में कार्य कर रहा है।

तेहरान हादी से छुटकारा पाने के जीसीसी-सऊदी इस फ़ैसले को ख़ासकर जेद्दा में अरामको (the Arabian American Oil Company) की सहायता से हाल ही में हूतियों के हुए हमलों के बाद जनता की राय को मोड़ देने की ज़बरदस्त ज़रूरत से प्रेरित एक सामरिक क़दम के रूप में देखता है। यह तय है कि ईरान इस नव-घोषित काउंसिल (सऊदी-यूएई गठबंधन के लिए लड़ने वाले लोगों से गठित) की विश्वसनीयता और वास्तव में यमन के भीतर चलने वाली वार्ता की मेज़बानी करने को लेकर सऊदी अरब की साख पर ही सवाल उठायेगा।

ईरान ने लगातार इस युद्ध को ख़त्म करने, यानी यमन पर सऊदी हमलों के ख़ात्मे, घेराबंदी और प्रतिबंधों को पूरी तरह से हटाये जाने, क़ैदियों का सामान्य आदान-प्रदान, हवाई अड्डों और बंदरगाहों को फिर से खोलने आदि जैसे क़दम उठाने जैसे सबसे व्यावहारिक और ज़मीनी तरीक़े के रूप में हूती शांति सूत्र की वकालत की है।

भू-राजनीतिक नज़रिये से यमन का यह मुद्दा बाइडेन प्रशासन के लिए एक मुश्किल विदेश-नीति वाली पहेली बन गया है। हूती कभी भी ऐसी शर्तों को स्वीकार नहीं करने जा रहे हैं, जिनके लिए राजनीतिक समझौता होने से पहले उन्हें अपनी सारी शक्ति और निरस्त्रीकरण की ज़रूरत पड़े। लेकिन, इसके लिए अमेरिका को सऊदी अरब और यूएई पर दबाव बनाने की जरूरत होगी। मौजूदा माहौल में जब सोना पाने के लिए तेल का कारोबार हो रहा हो,तो यह जितना ही कहना आसान है,उतना ही उसे ज़मीन पर उतार पाना आसान नहीं है।

दूसरी बात कि हूतियों की जीत का मतलब रणनीतिक लिहाज़ से दुनिया के सबसे अहम जलडमरूमध्य में से एक जलडमरूमध्य वाले इस इलाक़े में ईरान के वर्चस्व में बढ़ोत्तरी होना है। इसे इज़राइल सहित कई इलाक़ाई देशों को पचा पाना आसान नहीं होगा। लेकिन, इसके अलावे, इस पहाड़ी पर युद्ध अपने आप में बहुत मुश्किल है, हालांकि सांसद इस बात से सहमत होंगे कि आईआरजीसी अंतर्राष्ट्रीय आतंकवाद का प्रतीक है।

लेकिन, यह लगभग तय है कि ईरान के ख़िलाफ़ प्रतिबंध के हटाये जाने से आईआरजीसी के वित्तीय संसाधनों को बढ़ावा मिलेगा और इसके गहरे नतीजे होंगे, क्योंकि तेहरान की संलग्नता जेसीपीओए के साथ या जेसीपीओए बिना भी एक्सिस ऑफ़ रसिस्टेंस(यह आमतौर पर ईरान, सीरिया, लेबनानी आतंकवादी समूह हिज़्बुल्लाह और हमास के बीच एक शिया विरोधी इजरायल और पश्चिमी विरोधी गठबंधन के लिए इस्तेमाल होने वाली शब्दावली है) में है। हालांकि, बाइडेन प्रशासन के लिए ईरान के साथ किसी समझौते हुए बिना कोई भी परिदृश्य यह मध्य पूर्वी युद्ध ख़तरे से ख़ाली नहीं है।

विरोधाभासी रूप से हूती के पास एक संतोषजनक नतीजे की कुंजी है। बाइडेन प्रशासन को उम्मीद थी कि वह हूतियों के इस्तेमाल को कुंद कर देने में कामयाब हो जायेंगे।लेकिन,सचाई तो यही है कि अमेरिका ने वास्तव में कभी उस रास्ते की तलाश ही नहीं की। अटकलें तो यही लगयी जा रही हैं कि ज़बरदस्त रूप से स्वतंत्र रहने वाले हूतियों पर ईरान का नियंत्रण है भी या नहीं। मगर,इसके बारे में किसको पता ?

कहा तो यह भी जा रहा है कि सात साल पहले सऊदी हस्तक्षेप की शुरुआत के समय हूति जितना इरान के क़रीब था,उसके मुक़ाबले इस समय हूती तेहरान के कहीं ज़्यादा क़रीब हैं। शुरूआत करने के लिहाज़ से यह कहना मुनासिब होगा इस बात की ज़रूरत है कि कि अमेरिका ईरान के साथ बातचीत करे।

अंग्रेज़ी में प्रकाशित मूल आलेख को पढ़ने के लिए नीचे दिये गये लिंक पर क्लिक करें

Iran-Backed Houthi is Winner in Yemen

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