कहाँ खड़े हैं भारत-रूस के संबंध?
सोमवार को मॉस्को के प्रमुख अख़बार कॉमरसेंट ने टिप्पणी करते हुए कहा कि रूसी विदेश मंत्री सर्जी लावरोव की 5-6 अप्रैल को होने वाली नई दिल्ली यात्रा आसान नहीं होने वाली है, क्योंकि दोनों देशों के संबंधों में कई तरह के जोख़िम आ रहे हैं। खासकर चीन को लेकर।"
बल्कि अख़बार ने विनम्र ढंग से रूस-भारत और रूस-चीन संबंधों के बीच अंतर बताते हुए कहा कि मॉस्को और बीजिंग के बीच करीबी संबंध अमेरिका के साथ "दोनों देशों के नकारात्मक एजेंडे" से बने हैं। लेकिन मॉस्को के दिल्ली के साथ संबंधों में ना तो नकारात्मक एजेंडा है और ना ही कोई आपसी नुकसान है।"
फिर सोमवार को एक और अख़बार नेज़ाविसिमाया गेजेटा ने एक रूसी विश्लेषक मॉस्को स्टेट इंस्टीट्यूट ऑफ इंटरनेशनल रिलेशन्स के प्रोफ़ेसर सर्जी लुनेव के हवाले से लिखा, "पिछले 10 साल से दोनों देशों के संबंध थम गए हैं। आर्थिक संबंध खास प्रभावित हुए हैं। सोवियत रूस भारत के सबसे बड़े तीन आर्थिक साझेदारों में हुआ करता था, लेकिन रूस बड़ी मुश्किल से ही शुरुआती बीस में जगह बना पाता है।"
प्रोफ़ेसर आगे कहते हैं, "लेकिन यहां कुछ सकारात्मक पहलू भी हैं। उदाहरण के लिए स्पुतनिक V वैक्सीन पर सहयोग जारी है। भारत इसका उत्पादन खुद रूस से भी ज़्यादा बड़ी मात्रा में करेगा। रक्षा सहयोग आपसी संबंधों का बड़ा आधार है और इसमें सभी मोर्चों पर विकास हो रहा है, जिसमें S 400 सिस्टम से लेकर छोटे हथियार शामिल हैं। रूस भारत के आधे से ज़्यादा हथियार आयात का हिस्सेदार है।"
लेकिन भारत और रूस के बीच हाल में कुछ दूरियां बढ़ी हैं। यह पहली बार हो रहा है जब कोई रूसी विदेश मंत्री पहली बार भारत और पाकिस्तान का एक साथ क्षेत्रीय दौरा कर रहा है। सबसे अहम बात है कि यह ऐसा दुर्लभ मौका है जब एक रूसी विदेश मंत्री की हवाईअड्डे पर आगवानी के लिए भारतीय प्रधानमंत्री नहीं जा रहे हैं।
प्रधानमंत्री मोदी माइक पॉम्पियो या एंटोनियो ब्लिंकेन के लिए निश्चित वक़्त निकाल लेते और वे उनके साथ कूटनीतिक चर्चाओं का हिस्सा बनने में आनंद भी लेते हैं। (यहां तक कि मोदी ने ब्रिटेन के विदेश सचिव डोमिनिक राब के लिए भी वक़्त निकाल लिया था।) यह रूस के अब प्राथमिकता ना होने का संकेत है।
लेकिन यह सिर्फ़ कूटनीतिक संकेत के बारे में नहीं है। दिल्ली की सामंती दरबार संस्कृति में यह पूरी सरकारी मशीनरी- अफ़सर, राजनेता, नागरिक और सेना के लिए भी एक संकेत है। जबकि मोदी के पहले कार्यकाल में लगता था कि वे रूस-भारत के संबंधों को प्राथमिकता देते हैं और इसके लिए व्यक्तिगत तौर पर समय और ऊर्जा निकालते रहे।
वाशिंगटन में राजनीतिक प्रतिष्ठानों ने भी इसे एक झटके के तौर पर देखा है। मार्क रूबियो फ्लोरिडा के सीनेटर हैं और यूएस सीनेट इंटेलीजेंस कमेटी के चेयरमैन हैं, रूबियो अमेरिकी कांग्रेस की चीन पर कार्यकारी समिति समेत कई दूसरी राज्य समितियों के सदस्य भी हैं। वाशिंगटन के ऑनलाइन जर्नल निक्केई एशियन रिव्यू में रूबियो ने पिछले अगस्त में एक लेख लिखा था। इस लेख मे रूबियो ने व्यक्तिगत तौर पर मोदी के ऊपर जमकर निशाना साधा था। रूबियो ने लिखा था कि मोदी ऐसे काम करते हैं, जैसे पुतिन ने उनपर कोई जादू कर रखा हो।
अगर रूबियो की बात करें, तो वो खुद दुनिया के नक्शे में भारत को नहीं खोज पाएंगे, फिर भी उन्होंने भारत पर इस तरह की टिप्पणी की। साफ़ था कि पूर्व राष्ट्रपति ट्रंप और पॉम्पियो के पसंदीदा रूबियो ने भारत को इशारों में चेतावनी देते हुए कहा था कि अब वक़्त आ गया है जब भारत-रूस संबंधों से मोदी को दूर होना जाना चाहिए।
इसलिए आज जब मोदी के रूस में रुझान ख़त्म होने का कोई इशारा होता है, तो दरअसल वह कायराना व्यवहार है, जो भारत-रूस संबंधों के लिए घातक हो सकता है। मोदी के इस कदम से अमेरिकी विदेश नीति के प्रतिष्ठानों और खुद राष्ट्रपति जो बाइडेन को शांति मिल सकती है, जो "हत्यारे" पुतिन को लेकर आशंकाएं रखते हैं। उनका मानना है कि जब तक रूस भारत की रणनीतिक स्वायत्ता का आधार बना रहेगा, तब तक भारत को पूरी तरह अमेरिकी पाले में लाना मुश्किल रहेगा।
रूस या पुतिन के साथ भारत के संबंधों को तेज करने के लिए मोदी जो भी कोशिश करते हैं, उस पर अमेरिका की पूरी नज़र रहती है। अमेरिका की भू-रणनीति काफ़ी भारी है और यह अच्छे परिणाम भी देती दिखाई दे रही है- भारत ने रूस की ऊर्जा का अपना आकर्षण ख़त्म कर दिया है और बदले में अमेरिकी तेल का समझौता कर लिया है; भारत के सबसे बड़े रक्षा उपकरण आपूर्तिकर्ता रूस से यह दर्जा अमेरिका तेजी से छीन रहा है।
बल्कि सोमवार को जब लावरोव का विमान दिल्ली में उतरा, तब गृह सचिव ब्लिंकेन वाशिंगटन में उन तुर्की अधिकारियों और संस्थानों के नामों की घोषणा कर रहे थे, जिनके ऊपर प्रतिबंध आगे भी जारी रहेगा। यह प्रतिबंध तुर्की द्वारा रूस की S-400 रूसी हवाई रक्षा प्रणाली को खरीदने के चलते लगाए गए हैं। विदेशमंत्री एस जयशंकर के लिए भी यह सही वक़्त पर दी गई एक चेतावनी है!
लावरोव से S-400 समझौते में भारत पर अमेरिकी दबाव के बारे में सवाल पूछा गया था। उन्होंने जवाब में कहा, "अमेरिका ने सार्वजनिक तौर पर बिना झिझक के इसकी घोषणा की है। हर कोई यह जानता है। हम भी भारत की प्रतिक्रिया के बारे में अच्छी तरह जानते हैं।" लावरोव ने आगे कहा, "अमेरिकी की टिप्णियों पर चर्चा नहीं हुई। हमें हमारे भारतीय दोस्तों और साझेदारों की तरफ से इसमें कोई झिझक महसूस नहीं होती।" जयशंकर ने यहां चुप्पी साधे रखी।
लावरोव ने अपने चिर-परिचित अंदाज में एशियन नाटो (क्वाड पढ़िए) पर भी टिप्पणी की। उन्होंने कहा, "आज हमने इस मामले पर भी बात की। हम और हमारे भारतीय दोस्तों का साझा तौर पर मानना है कि यह सैन्य संगठन के तौर पर प्रतिगामी साबित होगा। हम समावेशी सहयोग में दिलचस्पी रखते हैं और उद्देश्य के लिए काम करने की मंशा रखते हैं, ना कि किसी के खिलाफ़ जाना चाहते हैं।" लेकिन यहां भी जयशंकर ने प्रतिक्रिया नहीं दी।
भारत के पास एक बेहद दुर्लभ वातावरण है, जहां वह अपनी कूटनीतिक स्वायत्ता को मजबूत कर सकता है और उसका लाभ ले सकता है। लेकिन नए मौकों की खोज करने के लिए भारत को राजनीतिक इच्छाशक्ति की जरूरत है। इसके उलट मोदी की सरकार ने बाइडेन के साथ जुड़ने को प्राथमिकता बना दिया।
चीन को अंदाजा हो चुका है कि भारत को उसके द्वारा चुने हुए रास्ते पर जाने और बाद में रास्ते की कार्यकुशलता पर आत्म परीक्षण के लिए मुक्त छोड़ देना चाहिए। इसलिए लद्दाख में सेना को पीछे हटाए जाने की कोशिशें पर विराम लग गया है। लावरोव ने भी बताया कि मॉस्को भी भारत को बड़ा स्थान देने की पेशकश कर रहा है। जयशंकर के साथ साझा प्रेस कॉन्फ्रेंस में लावरोव ने शुरुआती वक्तव्य में कहा, "परंपरा के मुताबिक़ हमारे संबंध आपसी सम्मान पर टिके हुए हैं। यह सहज रूप से मूल्यवान हैं और इन पर मौकापरस्ती वाले उतार-चढ़ाव का असर नहीं पड़ता।"
जब एक दिग्गज कूटनीतिज्ञ ने कुछ चीजें याद दिलाने की कोशिश की, तो उन्होंने इसके लिए सीधे शब्दों का चुनाव किया। लावरोव की छवि खुलकर बोलने वाली रही है। पश्चिम में लावरोव और सोवियत काल के दिग्गज एंड्रे ग्रोमिको के बीच तुलना की जाती है। दिसंबर, 2019 में ग्रोमिको की 110 वी जयंती पर मॉस्को में अपने भाषण में लावरोव ने कहा था, "रूसी कूटनीतिज्ञों के लिए ग्रोमिको घराना (स्कूल) देशभक्ति, पेशेवर रवैये, आत्म अनुशासन, अपने देश के हितों के लिए किसी भी मामले की तह तक जाने, तार्किक ढंग से उन हितों को प्रोत्साहन देने और सबसे जटिल स्थितियों में सबसे प्रभावी समाधान खोजने के बारे में है।" संक्षिप्त में कहें तो लावरोव का दिल्ली आगमन इसी उद्देश्य को लेकर है। अब गेंद मोदी के पाले में है।
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