बनारस में मलबा बनी एक और दलित बस्ती : जी-20 के लिए सुंदरीकरण और नमो घाट की सुविधा बढ़ाने की जंग में गरजे बुलडोज़र
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के संसदीय क्षेत्र बनारस को चकाचक दिखाने के लिए राजघाट स्थित किला कोहना बस्ती में रहने वाले लोगों के घर उनकी आंखों के सामने बुलडोजर लगाकर ध्वस्त कर दिए गए। यह बस्ती बनारस के चर्चित नमो घाट के नजदीक है, जिसे ढाई बरस पहले माझियों की खिड़किया घाट बस्ती को उजाड़कर बनाया गया था। बनारस प्रशासन ने जिन लोगों को उजाड़ा है उनमें ज्यादातर दलित और मुसलमान हैं, जिनके पास रहने के लिए अब कोई दूसरा ठिकाना नहीं है। कई पीढ़ियों से वहां रह रहे लोगों के पास बिजली-पानी का बिल, आधार कार्ड तो है ही, वहीं के पते पर वोटर लिस्ट और सरकारी दस्तावेजों में नाम भी है। किला कोहना बस्ती में बुलडोजर चलाए जाने से ठेला, गुमटी, रेहड़ी और पटरी पर दुकान लगाने वाले सैकड़ों लोगों को अपनी रोजी-रोटी से हाथ धोना पड़ा है।
किला कोहना बस्ती की गुड़िया कभी भी अपने आशियाने की ऐसी तस्वीर नहीं देखना चाहती थी। इसी बस्ती में उनका परिवार तीन-चार पीढ़ियों से रह रहा था। अरसे से जिसे वे ही अपना घर कहती थीं, अब उसका अस्तित्व ही नहीं रहा। अब जो वहां बचा है, वह सिर्फ टूटे हुए घरों का मलबा है। 28 वर्षीया गुड़िया इस बस्ती की सबसे प्रगतिशील महिला हैं और वह सर्व सेवा संघ में चलाई जाने वाली बालबाड़ी में बच्चों को पढ़ाती हैं। हाईस्कूल पास गुड़िया के पास ढेरों सपने थे जिसके दम पर वह किला कोहना बस्ती के बच्चों की जिंदगी बदल देना चाहती थी। गुड़िया कहती हैं, "हमारी उम्मीद और हमारे सपने तो तभी टूटकर बिखर गए थे जब हमारी झोपड़ी को बुलडोजर रौंदता चला गया। बस्ती के दर्जनों बच्चे भूखे हैं। औरतें, बूढ़े सभी बिलबिला रहे हैं। हमें यह समझ में नहीं आ रहा है कि मोदी सरकार का विकास गरीबों को ही क्यों लीलता है?"
"हमारा बेटा टीबी का मरीज है और उसके सीने में भयंकर दर्द हो रहा है। समझ में यह नहीं आ रहा है कि अपने लिए कोई ठौर ढूंढे या फिर बच्चे का इलाज कराएं। हमारे सीने में दर्द बहुत है, लेकिन सरकार को लगता है कि गरीबों का दर्द सिर्फ दर्द नहीं होता। बनारस की सरकार ने विकास के नाम पर हमें उजाड़ दिया, जिससे हमारी जैसी तमाम औरतों और बच्चों के सपने चकनाचूर हो गए। समझ में यह नहीं आ रहा है कि हम कहां जाएं? हमारे बच्चों का भविष्य बर्बाद हो गया। निष्ठुर सरकार की दबंगई के चलते अब बच्चों की पढाई छूट जाएगी और उनके भविष्य के सारे सपने टूट जाएंगे।"
सड़क पर रोते-चीखते रहे लोग
गुमटीनुमा मकान पर बुलडोजर चलाकर ढहाए जाने से बदहवास गुड़िया की जिंदगी में दुखों का पहाड़ टूट पड़ा। उनकी आंखों से आंसू थमने का नाम नहीं ले रहे थे। थोड़ा संयत होने के बाद कहा, "हमारे पास कोई ऐसी जगह भी नहीं है जहां हम पॉलिथीन डालकर रह सकें। निष्ठुर सरकार ने हमें भगवान भरोसे छोड़ दिया है। काशी को पहले आनंद वन के नाम से भी जाना जाता था, लेकिन बीजेपी सरकार के सत्ता में आने से हमारा सुख-चैन छिन गया। कुछ बरस पहले विश्वनाथ कारिडोर बनाने के बहाने मणिकर्णिका घाट की दलित बस्ती उजाड़ी गई और बाद में नमो घाट बनाने के लिए खिड़किया घाट में माझियों की बस्ती। हम कई महीने से अफसरों के दफ्तरों पर दस्तक दे रहे थे, लेकिन हमारी गुहार अनसुनी कर दी गई। हमारी तो कई पुश्तें किला कोहना बस्ती में जन्मी और यहीं मर-खप गईं। अब हम किसके पास जाएं दुहाई देने और भला हमारी सुनेगा कौन?"
बनारस जिला मुख्यालय से करीब आठ किमी दूर है राजघाट पुल और इसके पश्चिमी छोर पर सर्व सेवा संघ के ठीक सामने है किला कोहना बस्ती। यहां ज्यादातर औरतें अपने हाथ में ब्रश लेकर कपड़ों पर पुली (रेशा) लगाने का काम करती थीं और उनके पति मजूरी। यह बस्ती नगर निगम के वार्ड नंबर-पांच में आती है। किला कोहना बस्ती पहले एक बड़े से बाड़े की शक्ल में नजर आती थी। आधे-अधूरे कच्चे मकान और झुग्गी-झोपड़ियां इस बस्ती की दर्दनाक जिंदगियों का लेखा-जोखा पेश करती थीं। यहां गाय-भैंसों के कई तबेले थे तो कुछ लोगों ने अपने घरों के बाहर भेड़-बकरियां पाल रखी थीं। इस बस्ती में भीषण गंदगी, खुली नालियां, घर के सामने बहता मल-जल, सूखे हैंडपंप तत्काल दिखने वाली चीजें थी। यकीनन मजदूरों की हर बस्ती में ऐसे ही दृश्य दिखते हैं, क्योंकि गंदगी में रहना उनकी मजबूरी होती है।
बनारस की बदहाल किला कोहना बस्ती के बीचो-बीच किला की दीवारें अब भी मौजूद हैं। इन दीवारों में लखौरी ईंटें साफ-साफ देखी जा सकती हैं। वो ईंटें जो राजाओं-महराजाओं के समय में बनाए जाने वाली इमारतों में लगा करती थीं। जिस जमीन को उत्तर रेलवे अपनी बता रहा है उसके पास भले ही कोई अभिलेख मौजूद हों, लेकिन वहां रहने वाले लोगों के दावों को भी खारिज नहीं किया जा सकता है, क्योंकि वहां रहने वाले ज्यादातर लोगों के पास दाखिल खारिज के अभिलेख, पानी-बिजली के बिल, आधार कार्ड, वोटर आई कार्ड आदि सब कुछ मौजूद थे।
जी-20 के समय ही भयभीत थे
राजघाट स्थित किला कोहना बस्ती में उत्तर रेलवे ने 9 अप्रैल 2023 को गुपचुप तरीके से बेदखली की नोटिस चस्पा कराई थी। नोटिस में दावा किया गया था कि समूची बस्ती अवैध है। घरों को खाली नहीं करने पर बुलडोजर से ध्वस्तीकरण की कार्रवाई की जाएगी। इस बस्ती में करीब 450 से अधिक बेबस और लाचार जिंदगियां रहती थीं। पुराने बनारस को नया बनारस बनाने और हाशिए के लोगों की बस्तियों को उजाड़ने का चलन नया नहीं है। जी-20 के भव्य आयोजन की तैयारियों के बीच अप्रैल 2023 में जब किला कोहना बस्ती में गरीबों के घरों को हरे पर्दे से ढंका जा रहा था तभी लोग आशंकित रहने लगे थे कि सरकार देर-सबेर उनके घरों पर बुलोडजर जरूर चलवाएगी।
बनारस पुलिस ने दो दिन पहले बस्ती खाली करने के लिए लाउडस्पीकर से ऐलान कराया और बुधवार की सुबह भारी पुलिस फोर्स की मौजूदगी में समूची बस्ती पर बुलोडजर ने कहर बरपाना शुरू कर दिया। सैकड़ों की तादाद में मौके पर मौजूद पुलिस ने किला कोहना बस्ती को चौतरफा घेर लिया। मीडिया कर्मियों को भी बस्ती के अंदर जाने नहीं दिया जा रहा था। मौके पर मौजूद पुलिस और प्रशासनिक अफसरों को गरीबों की खुर्द-बुर्द होती जिंदगी से न किसी को मतलब था, न मलाल और न किसी के चेहरे पर कोई शिकन। यह स्थिति तब थी जब सैकड़ों औरतें, बच्चे और बूढ़े लहकती गर्मी और लू के थपेड़ों को झेलते हुए सड़क पर बेबश पड़े थे। जिन औरतों के घरों में पुरुष नहीं थे उनकी स्थिति और भी ज्यादा दर्दनाक और भयावह थी। पुलिस ने बहुत से लोगों को अपना सामान निकालने तक का मौका नहीं दिया और उनके घरों पर बुलोडजर चलवा दिया। हर कोई जहां-तहां भागता और बिलबिलाता नजर आया।
किला कोहना बस्ती में 32 वर्षीया कोमल परचून की दुकान चलाती थी। उन्होंने रोते हुए न्यूजक्लिक से कहा, "सबसे पहले हमारे घर पर रेलवे ने हुक्मनाम चस्पा किया था। उस समय हमें यह उम्मीद नहीं थी कि रेलवे की नोटिस हमारी बर्बादी, तबाही और लाचार जिंदगी का परवाना बन जाएगी। योगी सरकार डंका पीटती है कि उजाड़ने से पहले बसाया जाएगा, लेकिन हमें तो तपती दोपहरिया में खुले आसमान के नीचे रोने बिलखने के लिए खड़ा कर दिया। इतन जुल्म-ज्यादती तो अंग्रेजी हुकूमत के समय भी नहीं हुई होगी।"
"बीजीपी की कथनी-करनी पर भला कौन भरोसा करेगा? जी-20 के लिए सुंदरीकरण की आड़ में हमारी बस्ती पर बुलोडजर चलाया गया। अगर हमारी कई पीढ़ियां किला कोहना बस्ती में अवैध तरीके से रह रही थीं तो रेलवे ने पहले कार्रवाई क्यों नहीं की? नगर निगम चुनाव के समय बीजेपी के नेताओं ने हमें भरोसा दिलाया था कि बस्ती हटेगी तो मुआवजा दिया जाएगा और हमारी बात सुनी जाएगी, लेकिन हमें कुछ भी नहीं मिला। डबल इंजन की सरकार ने हमें नौकरी दे नहीं सकती तो हमें हमारे रोजगार से दूर भी नहीं करना चाहिए था।"
समूची बस्ती कर दी नेस्तनाबूत
प्रशासन की नजर में एक सियाह धब्बे की मनिंद नजर आने वाली किला कोहना बस्ती में सामाजिक, शैक्षणिक और आर्थिक रूप से आखिरी पायदान पर खड़े लोग रहा करते थे। इस बस्ती में एक कब्रिस्तान भी है, जिससे सटे कई घर थे। प्रशासन ने इन घरों को भी बुलोडजर से नेश्तनाबूत कर दिया। जिस किला कोहना बस्ती को उत्तर रेलवे अवैध बता रहा है वहां कई लोगों को प्रधानमंत्री आवास योजना के तहत घर भी मिले थे। प्रशासन इन घरों पर भी बुलोडजर चलाने से पीछे नहीं हटा। अब बड़ा सवाल यह खड़ा हुआ है कि जिस बस्ती में सालों पुराना कब्रिस्तान हो, सदियों पुराना किला हो वह जमीन रेलवे की कैसे हो सकती है? रेलवे के अधिकारी आज भी इस सवाल पर जुबान खोलने के लिए तैयार नहीं है?
किला कोहना बस्ती में जब आधा दर्जन से अधिक बुलोडजर ने गरजना शुरू किया तो बालेश्वर लाल गौड़ और उनके पुत्र उपेंद्र अपने घर का सामान एक मंदिर में लाकर रखने लगे। इनकी चाय-पान की दुकान है। मुलाकात हुई तो वह फफक कर रोते हुए कहने लगे, " बीजेपी सरकार की नजर में हम जैसे लोग सिर्फ कीड़े-मकोड़े हैं। अफसरों को विकास की दरकार उन्हीं जगहों पर नजर आती है जहां गरीबों की झुग्गी-झोपड़ियां होती हैं। अगर जमीन रेलवे की थी तो चालीस साल पहले ही हमारे पास कोई और ठिकाना ढूंढने सरकारी फरमान क्यों नहीं आया।"
पिछले पांच दशक से किला कोहना बस्ती में रहने वाले 43 वर्षीय मनीष केसरी ने दो दिन पहले ही अपनी दुकान से सारा सामान निकाल लिया था। वह गाड़ियों की सजावट का सामान बेचते थे। कहते हैं, "हमारी तीसरी पीढ़ी यहां रह रही थी। हमने अपनी दुकान बचाने के लिए हर संभव कोशिश की, लेकिन हमारी गुहार किसी ने नहीं सुनी।" मनीष के बगल में गोपाल गुप्ता की दुकान है। वह कहते हैं, "सरकार को हम हर तरह का टैक्स दे रहे थे तो यह जोर-जुल्म हमारे ऊपर ही क्यों बरपाया गया?" अपने घर का सामान बाहर निकालते हुए रुआंसी दीपिका ने कहा, "हम बीजेपी को वोट देते आ रहे थे, लेकिन इनके नेताओं ने झूठा सपना दिखाया। जब बस्ती में बुलोडजर गरजने लगे तो कोई दिखा ही नहीं। चार-पांच दशक पहले यह इलाका उजाड़खंड हुआ करता था, तब हमारे परिवार वालों ने यहां झोपड़ी डाली थी। पैसे जोड़कर किसी तरह घर बनवाया और सरकार ने एक झटके में उन पर बुलोडजर चला दिया।"
जाएं तो जाएं कहां?
कर्नाटक में मजूरी करने वाले अजय कुमार गोंड और स्टीकर बनाने का काम करने वाले सत्तन कहते हैं, "मकान बनाते समय हमसे किसी ने कुछ नहीं कहा। हमारे पास बिजली का बिल, हाउस टैक्स की रसीदें ही नहीं, जमीन के दाखिल खारिज के अभिलेखों के अलावा आधार कार्ड से लेकर राशन कार्ड तक मौजूद है। रेलवे ने बगैर दस्तखत वाली नोटिस चस्पा कराई और अब हमारे घरों पर बुलोडजर चलवा दिया। हमारे बच्चों के भूखे पेट के दर्द का इलाज आखिर कौन करेगा? बुलोडजर आए तो बीजेपी के नेताओं को जैसे काठ मार गया है। वो तो मरहम लगाने भी नहीं आए। आखिर हम जाएं तो कहां जाएं?"
टैंपो चालक जावेद की पत्नी सोनी पुलिस वालों के आगे रोती-गिड़गिड़ाती रहीं और गुहार लगाती रहीं, "हुजूर! हमें मत उजाड़िये, हमें बेसहारा मत बनाइए। हमने कोई गुनाह नहीं किया है। जिल्लत भरी जिंदगी के मुहाने पर ढकेलने की कोशिश मत कीजिए। कोई ठिकाना दिला दीजिए और हम वहीं चले जाएंगे।"
पुलिस, प्रशासन और उत्तर रेलवे अफसरों ने कुसुम, राजदेई, सिमरन, पूजा समेत न जाने कितनी औरतों की जिंदगी को खुर्द-बुर्द करके रख दिया। संपन्न लोगों के घरों में झाड़ू बर्तन कर अपनी आजीविका चलाने वाली रिजवाना अपने बेरोजगार पति और दो बच्चों को पालती थी। इनकी झोपड़ी भी नेश्तनाबूत हो गई और वह भीषण गर्मी में सड़क पर आ गईं। शाहजहां अपनी चार बेटियों के बाद पैदा हुए बेटे को पालने के लिए दिन-रात झाड़ू बर्तन के काम में जुटी रहती थीं तो नसीमा के पति दानिश ठेला चलाते थे। इनके घरों पर बुलोडजर ने धावा बोला तो इनकी सांसें अटक गईं।
गरीबों को उजाड़ना गैरकानूनी
किला कोहना में दलितों के बच्चों को शिक्षित बनाने और सर्व सेवा संघ की बालबाड़ी में अनगढ़ बच्चों को जिंदगी की नई राह दिखाने वाली एक्टिविस्ट मीरा चौधरी कहती हैं, "सुप्रीम कोर्ट की गाइडलाइन है कि किसी भी गरीबों को उजाड़े जाने से पहले उन्हें पुनर्वासित किया जाए। सिर्फ छत ही नहीं, उन्हें सभी जरूरी सुविधाएं भी मुहैया कराई जाएं, लेकिन किला कोहना बस्ती के लोगों को बेरहम अफसरों ने दोपहरी में सड़क पर बेहाल स्थित में लाकर छोड़ दिया। इनकी सुनने वाला कोई नहीं है।"
"हमें लगता है कि जिस तरह से खिड़किया घाट पर रहने वाले माझियों को पुनर्विकास परियोजना की कीमत चुकानी पड़ी, वही हाल किला कोहना के लोगों का भी होगा। बुनियादी ढांचों की बड़ी-बड़ी परियोजनाओं पर ही ध्यान देने की भाजपा की नीति ने गरीब तबके के एक बड़े हिस्से और उसकी रोजी-रोटी के मसले को पूरी तरह अनदेखा कर दिया है। मेहनत-मजदूरी कर कमाने-खाने वाले लोग, जिनकी आर्थिक स्थिति और बदतर ही हुई है, वह तो अपने जन प्रतिनिधियों के उदासीन रवैये से भी बेहद दुखी और आहत हैं।"
सर्वोदय आंदोलन से जुड़े एक्टिविस्ट सौरभ सिंह कहते हैं, "बनारस शहर को चकाचक दिखाने के लिए जिस तरह से दलितों की बस्तियों पर बुलोडजर चलाया जा रहा है उसे ‘गरीबों को उजाड़ो अभियान’ नाम दिया जा सकता है। किसी तरह जीवन गुजार रहे लोगों की कहीं कोई सुनवाई नहीं है। बनारस की सरकार तो हिटलर सरीखी बन गई है। कोहना बस्ती के गरीबों को अपनी बात कहना तक का अवसर नहीं दिया गया। यहां ठेला, गुमटी, पटरी, रेहड़ी लगाने वाले सैकड़ों लोगों को अपनी रोजी-रोटी से हाथ धोना पड़ा है। दशकों से यहां रहने वाले मेहनकश गरीबों के पास अब कोई दूसरा ठिकाना नहीं है।"
सौरभ यह भी कहते हैं, "किला कोहना में रहने वालों में मल्लाह, डोम, दलित, पिछड़े और मुस्लिम समुदायों की आमदनी आमतौर पर गंगा के किनारे होने वाले कामों से ही जुड़ी है। ये लोग अपना घर छोड़ना नहीं चाहते थे। दरअसल वह स्वाभिमान के साथ जीवन यापन कर रहे थे। उनके सामने नए गांवों में जाकर घर बसाना किसी बड़ी मुसीबत से कम नहीं है। हमें लगता है कि प्रधानमंत्री बनने के बाद नरेंद्र मोदी ने बनारस में विकास की ऐसी परिभाषा गढ़ी है, जिससे दलित, आदिवासी और गरीब सिरे से गायब होते जा हैं। बनारस को स्मार्ट बनाने के नाम पर दशकों से बसे गरीब परिवारों को पहले मणिकर्णिका घाट से और बाद में खिड़किया घाट से और अब किला कोहना बस्ती से उजाड़ दिया गया। किला कोहना के पूर्वी इलाके में बसे सराय मोहना, कमौली आदि गांवों में जबर्दस्त दहशत है और लोग तरह-तरह की शांकाएं कर रहे हैं। नमो घाट के विस्तारीकरण की योजनाएं इन गांवों की ओर बढ़ रही हैं और वहां आए दिन सर्वे हो रहे हैं। मोक्षदायिनी गंगा अब इस पवित्र नदी के किनारे बसे लोगों के लिए अभिशाप बनती जा रही हैं। इनकी चिंता की बड़ी वजह यह है कि विकास के नाम पर किसी दिन उन्हें भी उजाड़ा जा सकता है।"
मार्क्सवादी कम्युनिष्ट पार्टी के वरिष्ठ नेता नंदलाल पटेल हैं, "मौजूदा दौर में दलित, मुसहर, वनवासी, नट आदि घुमंतु लोगों के साथ ही मुसलमान सत्ता के निशाने पर हैं। किला कोहना बस्ती के लोग पचास-साठ साल से वहां रह रहे थे। उन्हें खदेड़ने से पहले नए स्थान पर बसाया जाना चाहिए था, लेकिन अफसरों ने मानवाधिकार की धज्जियां उड़ाते हुए सैकड़ों गरीबों को खुले आसमान के नीचे बेसहारा छोड़ दिया। जिन लोगों को खिड़किया घाट से उजाड़ गया था उनमें कुछ लोग नाले अथवा रेल लाइनों के किनारे गुजर-बसर करने पर विवश हैं। वादे के बावजूद इन्हें आज तक कोई स्थायी ठौर नहीं मिला। बनारस में ऐसी सैकड़ों बस्तियां हैं जहां लाखों जिंदगियां बेजार हैं। जी-20 के विदेशी मेहमानों को नया बनारस दिखाने के बहाने गरीबों की बस्तियों पर कहर बरपाया जा रहा है। उसी धन से किला कोहना जैसी बस्तियों के रहने वाले लोगों के लिए घर बना दिया गया होता तो फटेहाल जिंदगियां सिसकने पर विवश नहीं होतीं। फिलहाल, "सबका साथ-सबका विकास" का बीजेपी का नारा किला कोहना बस्ती के गरीबों के दिलों में नश्तर की तरह चुभ रहा है और शायद जिंदगी भर चुभता रहेगा।"
(लेखक बनारस के वरिष्ठ पत्रकार हैं)
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