बनारस में भूमि अधिग्रहण के ख़िलाफ़ 70 गांवों के किसानों का बड़ी लड़ाई छेड़ने का ऐलान
''मोदी जी करीब दस बरस से बनारस के सांसद और प्रधानमंत्री हैं। फिर भी उन्होंने ट्रांसपोर्टनगर योजना से प्रभावित किसानों की मुश्किलें आसान नहीं की। हम छोटी जोत के किसान हैं और किसी तरह से परिवार की आजीविका चला रहे हैं। एक मर्तबा ट्रांसपोर्टनगर योजना निरस्त कर दी गई तो दोबारा उसे क्यों चालू कर दिया गया? हम सरकार से लड़ेंगे और एक इंच पीछे नहीं हटेंगे। हमारी नींद सालों से उड़ी हैं और अब हम उन्हें चुनाव के समय रात भर सोने नहीं देंगे।''
यह दर्द भरी कहानी बैरवन के पूर्व प्रधान कृष्ण प्रसाद पटेल उर्फ छेदी बाबा की है, जिनके पास सिर्फ चार बीघा जमीन है और वह ट्रांसपोर्टनगर योजना की भेंट चढ़ने जा रही है। इसी जमीन की बदौलत छेदी अपने परिवार के दस लोगों का भरण-पोषण करते हैं। छेदी बाबा 25 फरवरी 2024 को बैरवन गांव में आयोजित किसानों की महापंचायत में शरीक होने आए थे। इस पंचायत में करीब 70 गांवों के किसान शामिल थे, जिनकी जमीनें छह योजनाओं के लिए अधिग्रहित की जा रही हैं। किसानों ने एक मार्च से बनारस में बड़े पैमाने पर आंदोलन का अल्टीमेटम दिया है। इस आंदोलन को विपक्षी राजनीतिक दलों ने समर्थन देने की बात कही है। किसानों की डिमांड है कि सरकार जमीनों का अधिग्रहण करते समय भूमि अर्जन एवं पुनर्वास कानून-2013 पर अमल करे।
बनारस में किसान आंदोलन का अलार्म उस इलाके में जोरों से बज रहा है जहां से प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी संसद का प्रतिनिधित्व करते हैं। तारीखों का एलान भले ही नहीं हुआ है, लेकिन लोकसभा चुनाव ज्यादा दूर नहीं है। माना जा रहा है कि तीन महीने के अंदर देश में नई सरकार का गठन हो जाएगा। इन सबके बीच बनारस में 70 गांवों के किसानों ने भूमि अधिग्रहण के खिलाफ आर-पार की लड़ाई छेड़ने का अल्टीमेटम देकर सरकार की मुश्किलें बढ़ा दी है। आंदोलन तेज करने के लिए लामबंद किसानों ने संयुक्त किसान मजदूर मोर्चा का गठन किया है।
हजारों किसान होंगे बेघर
25 फरवरी 2024 को बैरवन में मोहनसराय किसान संघर्ष समिति के बैनरतले आयोजित किसान महापंचायत में सिर्फ ट्रांसपोर्टनगर योजना से पीड़ित किसान ही नहीं, काशी द्वार योजना, रिंग रोड योजना, स्पोर्ट्स सिटी, वरुणा विहार और वैदिक सिटी से प्रभावित लोग भी शामिल हुए। ट्रांसपोर्टनगर योजना सालों पुरानी है, जिससे बैरवन, करनाडाड़ी, मोहनसराय और मिल्कीचक के हजारों किसानों के सामने बेघर होने की नौबत आ गई है। महापंचायत की अध्यक्षता कर रहे किसान नेता विनय शंकर राय "मुन्ना" प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की नीयत पर सवाल खड़ा करते हैं। वह कहते हैं, "डबल इंजन की सरकार बनारस के लोगों की जमीनें छीनकर गुजरात के कारोबारियों के हवाले कर देना चाहती है। विकास के नाम पर जितनी भी योजनाएं बनाई गई हैं उसमें भूमि अर्जन एवं पुनर्वास कानून का खुलेआम उल्लंघन किया जा रहा है। जिन योजनाओं के लिए किसानों की जमीनों का अधिग्रहण कर रही है उससे बनारस के करीब पांच लाख लोग बेघर हो जाएंगे।"
मुन्ना ने कहा, "भूमि अधिग्रहण के लिए किसानों को बड़े पैमाने पर नोटिसें जारी की गई हैं। हजारों एकड़ जमीनों के अधिग्रहण की तैयारी है। लगता है कि बनारस में खेती करने के लिए सरकार एक इंच जमीन नहीं छोड़ेगी। अवैधानिक तरीके से किसानों की जमीनें लूटी जा रही है। सरकार किसानों के साथ मनमानी पर उतारू है। हम इसका बदला जरूर लेंगे। किसानों की जमीन जबरिया कब्जाने का विरोध करने के लिए संयुक्त किसान मजदूर मोर्चा गठित किया गया है। आंदोलन शुरू करने से पहले 29 फरवरी 2024 तक सरकार और जनप्रतिनिधियों को पत्रक सौंपा जाएगा। दूसरे चरण में एक मार्च से बेमियादी धरना शुरू होगा। प्रभावित इलाकों से सत्याग्रह मार्च निकाला जाएगा।"
विनय शंकर राय "मुन्ना" कहते हैं, "तीसरे चरण में 05 मार्च 2024 को बनारस जिला मुख्यालय का ट्रैक्टर ट्राली से घेराव किया जाएगा। जिले भर के किसान अपने पालतू जानवर और चूल्हा-चौका लेकर घेरा-डेरा डालेंगे। चौथे चरण में भूमि अधिग्रहण से प्रभावित गांवों में राजनीतिक दलों के नेताओं के खिलाफ झंडे बैनर टांगे जाएंगे और उनका बायकाट किया जाएगा। आंदोलनकारी किसान राजनीतिक दलों से इस्तीफा देंगे और जिम्मेदार जनप्रतिनिधियों और अफसरों के खिलाफ थू-थू दिवस मनाएंगे। पांचवें चरण में आमरण अनशन शुरू होगा। आंदोलित किसानों ने हाथ उठाकर संकल्प लिया कि वो जान दे देंगे, पर जमीन नहीं देंगे। सरकार को किसी भी हालत में अवैध तरीके से जमीन नहीं लूटने दी जाएगी।"
सियासी दलों में बढ़ी हलचल
बैरवन की किसान महापंचायत को लेकर सियासी हलकों में इस बात पर चर्चा तेज है कि अगर चुनाव से पहले आंदोलन शुरू हुआ तो ये सिर्फ बीजेपी ही नहीं, पीएम नरेंद्र मोदी के लिए कड़ी चुनौती पेश करेगा। हालांकि किसान नेता विनय शंकर राय "मुन्ना" कहते हैं कि किसानों को इस बात से कोई लेना-देना नहीं है कि चुनाव कब हो रहे हैं और किस दल का समर्थन करना है या विरोध। वह कहते हैं, "हम गैर-कानूनी तरीके से किए जा रहे भूमि अधिग्रहण का विरोध कर रहे हैं। हमारी कोई दूसरी मांग नहीं है। सरकार बनारस के छोटे और मझोले किसानों के पीछे पड़ी है और उनकी सारी जमीन छीन लेना चाहती है।
मुन्ना कहते हैं, "भूमि अर्जन एवं पुनर्वास कानून 2013 के आधार पर मोहनसराय ट्रांसपोर्ट नगर योजना रद्द कर किसानों की जमीन अवमुक्त करने और डिनोटिफाई के लिए 26 जुलाई 2021 को वाराणसी के कलेक्टर ने राजस्व परिषद के निदेशक को अपनी संस्तुति भेजी थी। ऐसे में पुराने 1998 के अधिसूचना के आधार पर कब्जे की प्रक्रिया अपनाना, किसानों से बीस वर्ष का किराया वसूलने की धमकी देना और मोहनसराय में ट्रांसपोर्टनगर बसाने के लिए जमीन का अधिग्रहण गैर-जिम्मेदाराना, अव्यावहारिक और अनुचित है। ट्रांसपोर्टनगर योजना से प्रभावित जिन गांवों में जमीनों का अधिग्रहण किया जा रहा है वहां नब्बे फीसदी लोग ऐसे हैं, जिनके पास सिर्फ दो-तीन बिस्वा जमीन है। उसी जमीन में उनका मकान भी है। वाराणसी विकास प्राधिकरण 17 अप्रैल 2003 से बैरवन की जमीनों पर अपना भौतिक कब्जा दिखा रहा है, जबकि मौके पर स्थिति कुछ और है।"
यूपी के बनारस शहर से सिर्फ 12 किमी दूर है बैरवन गांव। इस गांव के किसानों को उम्मीद बंधी थी कि उनकी नुमाइंदगी पीएम नरेंद्र मोदी करते हैं तो उनकी जमीन कोई नहीं छीन पाएगा। वाराणसी विकास प्राधिकरण (वीडीए) जिस तरीके से इन्हें जमीनों से बेदखल करने पर अड़ा है उससे अब आंदोलन की राह पर चल पड़े हैं। बैरवन के लोगों का दर्द यह है कि सबसे पहले रेलवे लाइन बिछाने के लिए जमीन छीनी गई और बाद में जब एनएच-2 हाईवे बनना शुरू हुआ तो किसानों की 14 एकड़ जमीन फिर जबरिया हथिया ली गई। जीटी रोड का विस्तार हुआ तब भी बैरवन पर ही अधिग्रहण की गाज गिरी। इस गांव से जब नहर गुजरी तब उसके लिए भी बैरवन के लोगों को अपनी जमीन की कुर्बानी देनी पड़ी। बाद में कुछ जमीन चकबंदी में निकल गईं। अब ट्रांसपोर्ट नगर योजना के लिए जितनी जमीनों का अधिग्रहण किया जा रहा है उसमें 80 फीसदी हिस्सा बैरवन के किसानों का है। किसानों का सवाल यह है कि एक बार फिर बैरवन के किसानों की जमीनें छीन ली गईँ तो वो अपना ठौर कहां तलाशेंगे?
सता रहा बेघर होने का खौफ
बैरवन के हर खेत में गेंदे की नर्सरी आज भी लहलहा रही है। हालांकि भूमि अधिग्रहण की तलवार लटके होने की वजह से लड़कों के शादी-विवाह में दिक्कत पैदा हो रही है। किसी को न तो कृषि लोन मिल रहा है और न ही कोई सरकारी अनुदान। तमाम बच्चों की पढ़ाई भी बाधित है। यहां के करीब छह हजार लोग घबराए हुए हैं। इन्हें डर है अपने घर से बेघर किए जाने का, जहां वो कई पुश्तों से रह रहे हैं। किसान महापंचायत में शामिल बैरवन के प्रेम कुमार पटेल मोदी सरकार की नीतियों से काफी आहत नजर आते हैं। जमीन के एक छोटे से टुकड़े पर गेंदे की नर्सरी से जीवन यापन करने वाले प्रेम कहते हैं, "हम लोग बहुत गरीब हैं। खेती-मजदूरी करके घर चलाते हैं। अब वीडीए हमें उजाड़ने पर उतारू है। हमें धमकाया जा रहा है और कहा जा रहा है कि जिन लोगों ने मुआवजा ले लिया है उनसे बीस सालों का किराया वसूला जाएगा।"
कुछ ऐसी ही व्यथा शोभनाथ पटेल की भी है जिनके पास सिर्फ एक बीघा जमीन है और उसी के दम पर वह अपने परिवार के 17 लोगों का पेट भरते हैं। अपने खेत में वह गेंदे की नर्सरी लगाते हैं। बाकी समय में वो मजदूरी करते हैं। रमाशंकर पटेल भी गेंदे की नर्सरी से ही अपने परिवार के 16 लोगों का पेट भरते है। बैरवन के किसानों के पास सिर्फ मुट्ठी भर जमीन है, जिसके छिन जाने की आशंका से किसानों की हंसी गायब है।
भूमि अधिग्रहण को लेकर सबसे ज्यादा परेशान हैं औरतें और बच्चे। 42 वर्षीया माधुरी देवी कहती हैं, "हमारा खेत छिन जाएगा तो हम कहां जाएंगे? बच्चों की पढ़ाई और उसके बाद उनकी शादी कैसे होगी?" दरअसल, माधुरी के तीन बच्चों की पढ़ाई का खर्च फूलों की नर्सरी से निकलता है। इनके पास सिर्फ चार बिस्वा जमीन है, जो भूमि अधिग्रहण की जद में है। कुल 12 लोगों का परिवार इसी जमीन की बदौलत पल रहा है। माधुरी के सामने अपने बच्चों के भविष्य की चिंता है।
बैरवन की पूजा देवी की स्थिति माधुरी जैसी ही है। इनके दो बच्चे हैं, जो स्कूलों में पढ़ रहे हैं। इनके परिवार के पास कुल डेढ़ बीघा जमीन है, जिसकी बदौलत परिवार के 30 लोगों की आजीविका चल रही है। प्रेम कुमार की पत्नी सितारा देवी के पास दस बिस्वा जमीन है। वह कहती हैं, "अपनी जमीन बचाने के लिए हम मुकदमा लड़ेंगे। जान चली जाए, पर जमीन नहीं छोड़ेंगे।" 72 वर्षीय बदल पटेल का 22 लोगों का परिवार सिर्फ गेंदे की नर्सरी के भरोसे जिंदा है। वह कहते हैं, "पौने चार बीघे जमीन में परिवार का गुजारा मुश्किल से होता है। वीडीए ने हमें खदेड़ दिया तो आखिर कहां जाएंगे? अपनी जमीन बचाने के लिए हम लड़ते रहेंगे।"
योजनाओं का विरोध क्यों?
बनारस में आधा दर्जन आवासीय योजनाओं के लिए हजारों एकड़ ज़मीन अधिग्रहित करने के लिए ताबजड़तोड़ नोटिसें भेजे जाने से हजारों किसान गुस्से में हैं। पिंडरा इलाके में काशी द्वार योजना का कड़ा विरोध हो रहा है। यहां चकइंदर, जद्दूपुर, पिंडरा, पिंडराई, बहुतरा, बसनी, बेलवां, पुरारघुनाथपुर, कैथौली, समोगरा आदि गांवों में ज़मीनों का अधिग्रहण किया जाना है। दूसरी ओर, वैदिक सिटी के लिए सारनाथ के हसनपुर, पतेरवा, सिंहपुर, सथवां और हृदयपुर के किसानों को ज़मीन अधिग्रहित करने के लिए नोटिस जारी किए गए हैं।
आवास एवं विकास परिषद ने वर्ल्ड सिटी के लिए बझियां, विशुनपुर, देवनाथपुर, हरहुआ, इदिलपुर, मिर्जापुर, प्रतापपट्टी, रामसिंहपुर, सिंहपुर, वाजिदपुर में आवासीय योजना का खाका खींचा है। वरुणा विहार एक और दो के लिए रिंग रोड फेज-दो के दोनों तरफ कैलहट, भगतपुर, कोईराजपुर, गोसाईपुर, अठगांवा, लोहरापुर, गोसाईपुर, वीरसिंहपुर, सरवनपुर, वाजिदपुर, सहाबुद्दीनपुर, रामसिंहपुर, सिंगापुर, देवनाथपुर, प्रतापपट्टी में ज़मीनों का अधिग्रहण किया जाना है।
काशी द्वार हाईटेक आवासीय योजना के लिए दस गांवों की करीब 957 एकड़ ज़मीन, वैदिक सिटी के लिए सारनाथ के आसपास के पांच गांवों की 109 हेक्टेयर (269 एकड़) ज़मीन का अधिग्रहण किया जाना है। दोनों टाउनशिप परियोजना में होटल, रिजॉर्ट, आवासीय भवन, कमर्शियल भवन, शॉपिंग मॉल, कन्वेंशन सेंटर, योग केंद्र के अलावा विभिन्न देशों के धार्मिक स्थल बनाए जाएंगे।
सीपीएम के प्रदेश सचिव डॉ. हीरालाल कहते हैं, "बनारस जिले का आकार पहले से ही छोटा हो गया है। किसानों के पास कुछ ही जमीनें बची हैं। ये जमीनें छिन गईं तो लोगों के पास कुछ भी नहीं बचेगा। किसानों के हजारों बच्चे और महिलाएं बेरोजगार हो जाएंगे। उत्तर प्रदेश आवास एवं विकास परिषद ने काशी द्वार योजना के लिए उस इलाके के किसानों की ज़मीनों के अधिग्रहण की योजना बनाई है जिनकी जोत बहुत छोटी हैं। इस योजना का खाका इस तरह से खींचा गया है ताकि सिर्फ दलित और पिछड़ी जाति के लोग इसके जद में आएं। किसान जान दे देंगे, लेकिन ज़मीन नहीं देंगे। काशी द्वारा योजना, वैदिक सिटी, वर्ल्ड सिटी आदि योजनाओं के जरिये सरकार किसानों को बर्बाद करने पर उतारू है।"
किसान न्याय मोर्चा के प्रदेश संयोजक एडवोकेट महेंद्र यादव कहते हैं, "बेलवां गांव में मुसहर और नट समुदाय की ज़मीन के अधिग्रहण की योजना क्यों बनाई गई है? डबल इंजन की सरकार ने जिन गांवों में ज़मीनों के अधिग्रहण की योजना बनाई है वहां कई उच्च जातियों के बड़े किसान भी हैं लेकिन उनकी जमीनें जानबूझकर छोड़ दी गई हैं। हाईवे के किनारे बड़े किसानों की जमीनें आखिर क्यों अधिग्रहीत नहीं की जा रही हैं? काशी द्वार और दूसरी आवासीय योजनाओं के अंतर्गत ली जाने वाली ज़मीन बहुफसली और बहुत उपजाऊ हैं। यहां किसानों व गांवों को उजाड़ कर कॉलोनी बनाना और नए बाजार स्थापित करना विवेकहीन कदम है।"
पीएम नरेंद्र मोदी के वाराणसी दौरे से एक दिन पहले ही यहां किसानों ने राष्ट्रीय राजमार्ग प्राधिकरण एक अधूरे राष्ट्रीय राजमार्ग पर टोल टैक्स की वसूली शुरू कराने जा रहा था। किसानों ने सरकार के इस कदम का कड़ा विरोध करते हुए बलरामगंज स्थित निर्माणाधीन टोल प्लाजा के पास धरना शुरू कर दिया। आंदोलन में करीब 20 गांवों के किसान शामिल हुए। किसान नेता अजित सिंह के मुताबिक, "एनएसआई 233 पर जौनपुर में करीब 16 किमी सड़क नहीं बनाई जा सकी है। इसके लिए अभी तक भूमि अधिग्रहण तक नहीं हो सकी है। ऐसे में टैक्स वसूली अवैध है। जब पूरी तरह सड़क नहीं बनेगी, किसान टोलटैक्स की वसूली नहीं होने देंगे। इस योजना से करीब चार हजार किसान प्रभावित हैं। डोभी (जौनपुर) क्षेत्र के किसान पिछले 12 सालों से मुआवजे की मांग कर रहे हैं। राष्ट्रीय राजमार्ग प्राधिकरण के अफसरों ने किसानों को पार्टी बनाते हुए हाईकोर्ट में मुकदमा दायर कर दिया है।"
किसानों की जमीन ही क्यों छीनी जाती है?
भारत सरकार ने भूमि अधिग्रहण और पुनर्वास के लिए जो कानून बनाया है उसके प्रावधानों के मुताबिक शहरी क्षेत्र में मुआवज़े की राशि निर्धारित बाजार मूल्य के दोगुने से कम नहीं होनी चाहिए। ग्रामीण क्षेत्र में यह राशि बाजार मूल्य से छह गुना तय की गई है। 'भूमि अधिग्रहण तथा पुनर्वास एंव पुनर्स्थापना विधेयक 2011' के मसौदे में इस बात का प्रावधान है कि अगर सरकार निजी कंपनियों अथवा प्राइवेट पब्लिक भागीदारी के तहत भूमि का अधिग्रहण करती है तो उसे 80 फ़ीसदी प्रभावित परिवारों की सहमति लेनी होगी। सरकार ऐसे भूमि अधिग्रहण पर विचार नहीं करेगी जो या तो निजी परियोजनाओं के लिए निजी कंपनियां करना चाहेंगी अथवा सार्वजनिक परियोजनाओं के लिए बहु-फ़सली ज़मीन लेनी पड़े।
भूमि अधिग्रहण कानून के मुताबिक, भूखंडों का अधिग्रहण इस तरह किया जाएगा जिससे भू-स्वामियों के हितों की पूरी तरह से सुरक्षा हो। साथ ही उस ज़मीन से जीविका चलाने वालों के हित भी सुरक्षित रहें। हाल के सालों में अरजेंसी दिखाकर भूमि अधिग्रहण किया जा रहा है। सरकार यह कहकर किसानों की ज़मीनें बिना सुनवाई के तुरत-फुरत ले रही है कि परियोजना तत्काल शुरू करनी है। मौजूदा क़ानून के इस प्रावधान में सरकार राष्ट्र हित में किसी भी ज़मीन का आधिग्रहण कर सकती है। नए विधेयक में तात्कालिकता खंड नाम के इस प्रावधान को स्पष्ट किया गया है कि सरकार राष्ट्रीय रक्षा एवं सुरक्षा के लिए, आपात परिस्थितयों या प्राकृतिक आपदाओं की स्थिति में पुनर्वास के लिए या ‘दुलर्भ से दुलर्भतम मामलों’ के लिए ही तात्कालिकता यानी अरजेंसी के प्रावधानों पर अमल करेगी।
कानून में ज़मीन के मालिकों और ज़मीन पर आश्रितों के लिए एक विस्तृत पुनर्वास पैकेज का ज़िक्र किया गया है। इसमें उन भूमिहीनों को भी शामिल किया गया है जिनकी रोज़ी-रोटी अधिग्रिहित भूमि से चलती है। अधिग्रहण के कारण जीविका खोने वालों को 12 महीने के लिए प्रति परिवार तीन हज़ार रुपये हर महीने जीवन निर्वाह भत्ता देने की व्यवस्था की गई है। इसके अलावा पचास हज़ार का पुनर्स्थापना भत्ता, ग्रामीण क्षेत्र में 150 वर्ग मीटर और शहरी क्षेत्रों में 50 वर्गमीटर ज़मीन पर बना बनाया मकान देने का प्रावधान किया गया है।
बढ़ रही गरीबी
एक दशक पहले तक एक देश के किसानों के पास औसतन सिर्फ़ तीन एकड़ ज़मीन होती थी, जो अब घट गई है। यूपी, बिहार, केरल, पश्चिम बंगाल और तमिलनाडु जैसे राज्यों में औसत जोत का आकार आधे से दो एकड़ के बीच है। भारतीय अर्थव्यवस्था में खेती सबसे कम उत्पादक क्षेत्र है। देश के जीडीपी (सकल घरेलू उत्पाद) में कृषि क्षेत्र का योगदान 15 फीसदी है, जबकि खेतों में काम करने वालों की संख्या देश के कुल कार्यबल के आधे से अधिक है। उत्पादकता काफी कम होने की वजह से गरीबी बढ़ रही है।
किसानों और आदिवासियों के मुद्दों पर काम करने वाले जनवादी नेता अजय राय कहते हैं, "उत्पादकता में तेजी लाने के सिर्फ दो बुनियादी तरीके हैं। पहला, कृषि को अधिक उत्पादक बनाया जाए और दूसरा, ज़मीन को खेती के अलावा किसी अन्य काम के लिए इस्तेमाल किया जाए। शहरीकरण और बड़े पैमाने पर जमीनों के अधिग्रहण के चलते खेत-खलिहान का दायरा सिमटता जा रहा है। मोदी सरकार ने एक अध्यादेश जारी कर 2013 में यूपीए सरकार द्वारा लाए गए भूमि अधिग्रहण बिल से 'किसानों की सहमति' और 'सामाजिक प्रभाव के आंकलन' की अनिवार्यता को हटा दिया है। नए विधेयक में अधिग्रहण के लिए लगने वाले समय में कई साल की कमी कर दी गई है।"
राय के मुताबिक, "भूमि अधिग्रहण से सबसे अधिक प्रभावित होने वाले भू-मालिकों को ज़मीन की काफी कम क़ीमत मिल रही है। इस मामले में सबसे ज़्यादा नुकसान दलितों और आदिवासियों को हुआ है। ज़मीन हासिल करने की यह व्यवस्था पूरी तरह अन्यायपूर्ण है। बनारस में जिन छह परियोजनाओं के लिए जमीनों का अधिग्रहण किया जा रहा है उससे किसानों के हजारों परिवार बर्बाद हो जाएंगे। मोदी सरकार आंख बंद कर के किसानों की खेती वाली जमीनें उद्यमियों को कौड़ियों के दाम पर दे रही है। जबकि उद्योग जगत को यह अहसास कराया जाना चाहिए कि मुफ्त में उन्हें कुछ नहीं दिया जा सकता।"
(लेखक बनारस के वरिष्ठ पत्रकार हैं)
अपने टेलीग्राम ऐप पर जनवादी नज़रिये से ताज़ा ख़बरें, समसामयिक मामलों की चर्चा और विश्लेषण, प्रतिरोध, आंदोलन और अन्य विश्लेषणात्मक वीडियो प्राप्त करें। न्यूज़क्लिक के टेलीग्राम चैनल की सदस्यता लें और हमारी वेबसाइट पर प्रकाशित हर न्यूज़ स्टोरी का रीयल-टाइम अपडेट प्राप्त करें।