रक्षा बंधन: बहनों को भाइयों से रक्षा का वचन नहीं प्यार और साथ चाहिए
"रक्षा बंधन क्या है? औरत को नीचा या कमतर दिखाने की एक व्यवस्था है, जिसमें भाई छोटा हो या बड़ा बहन की रक्षा का संकल्प कर लेता है। बहन भी हंसी-खुशी राखी बांधकर खुद की सुरक्षा के लिए अपने भाई पर आश्रित हो जाती है। ये त्यौहार बड़ी आसानी से लैंगिक भेदभाव और पितृसत्ता को न केवल पोसता है बल्कि इसे आगे बढ़ाने का भी काम करता है।"
रक्षा बंधन की ये परिभाषा मशहूर नारीवादी कार्यकर्ता कमला भसीन की है। कमला कहती थीं कि पितृसत्ता की व्यवस्था हमारी रोज़ की ज़िंदगी में काम करती है और हमारे भीतर ग़ैरबराबरी के बीज डालती है। ये पितृसत्तात्मक सोच ही है, जो हमारी परंपराएं सिर्फ मर्दों को केंद्र में रखकर बनाई गई हैं। कमला भसीन हमारे समाज के ताने-बने को महिलाओं के लिए सबसे बड़ी चुनौती मानती थीं। उनके अनुसार हमारा धर्म, हमारी परम्पराएं, रीति- रिवाज़, सामाजिक संरचना पित्रसत्तात्मकता को बढ़ावा देती है। हमारी संस्कृति कन्यादान और पति परमेश्वर जैसे ढकोसलों में महिलाओं को बांध देती हैं। जहाँ आगे चलकर स्त्री का दम घुटने लगता है। तीज- त्यौहार पति, भाई की आराधना करना सिखा देते हैं। जबकि संविधान में सबको बराबर का अधिकार प्राप्त है। कोई किसी से छोटा या बड़ा नहीं है।
कई बार मन में ख्याल आता है कि रक्षा बंधन अगर सिर्फ राखी या भाई-बहन के प्यार का त्यौहार होता तो कितना अच्छा होता। इसमें रक्षा या बंधन की गुंजाइश न होती तो कितना अच्छा होता मगर अफसोस आज भी ये त्यौहार लड़का-लड़की में भेद के विचार को बढ़ावा देने का काम करता है। अगर हम रक्षाबंधन के विचार, व्यवहार और सरोकार को देखें और इसके पीछे के विचार लैंगिक भेदभाव की संस्कृति को बढ़ावा देने में अहम भूमिका निभाते हैं। और सिर्फ यही त्यौहार क्यों हमारे पितृसत्तात्मक समाज में ऐसे ढ़ेरों त्यौहार हैं जो मानवीय मूल्यों से इतर पीढ़ी-दर-पीढ़ी रूढ़िवाद को आगे बढ़ाने का काम करते आए हैं।
संस्कृति के नाम पर हम आँखें मूँदना पसंद करते हैं
महिला अधिकारों के लिए काम करने वाली स्वाति सिंह लिखती हैं, “इसमें कोई दो राय नहीं है कि हमारा समाज लंबे अरसे से रूढ़िवाद की जकड़न में है। हमारी संस्कृति पर्व की, पहनावे की, बातों की, व्यवहार की और जीवनशैली की ज्यादातर जेंडर के आधार बंटवारे का काम करती है। इस काम का मूल भले ही एक हो लेकिन इसके रूप अलग-अलग है। कभी त्योहार के नाम पर तो कभी संस्कृति के नाम पर पितृसत्ता सालों से अपने मूल्यों को आज भी कायम रखे हुए है। चूँकि हम अपनी संस्कृति के प्रति बेहद संवेदनशील है, यही वजह है कि हम शिक्षा, समाज और संस्थाओं तक आज भी एक स्तर पर पितृसत्तात्मक मूल्यों को चुनौती देने की पहल करते है, लेकिन जैसे ही बात संस्कृति की आती है तो हम अपनी आँखें मूँदना पसंद करते है।"
आपने देखा या सुना तो जरूर होगा कि आज भी हमारे यहां कन्या भ्रूण हत्या के मामले कम नहीं हो रहे। कई घरों में आज भी जब एक बेटी के बाद दूसरी बेटी का जन्म होता है तो पूरे परिवार में शोक की लहर दौड़ जाती है। बड़े-बुजुर्ग राखी का हवाला देकर लड़कियों से कहते हैं 'भाई तो है नहीं, अब राखी किसे बांधोगी।' मतलब अगर भाई नहीं है तो बहन इस दिन वैसे ही मायूस हो जाए। और भला ये क्या बात हुई कि राखी बांधने से ही रक्षा होगी और रक्षा की जरूरत केवल बहन को है, जो सिर्फ भाई ही कर सकता है। वैसे भी जब भी समानता और स्वतंत्रता की बात आती है,तो वहाँ बंधन का सवाल ही नहीं उठता है और अगर वहाँ बंधन का भाव होता है तो वो अधिकार के बजाय सजा का रूप लेने लगता है। रक्षा के साथ बंधन का होना कहीं न कहीं अधिकारों के दमन की तरफ संकेत करता है।
बहन को रक्षा नहीं प्यार चाहिए
कुल मिलाकर देखें तो ये हमारे त्यौहार रूढ़िवादी विचारों को बढ़ावा देते हैं, जिनमें महिलाओं का खुद का कोई जीवन नहीं होता है। जीवन के हर पड़ाव पर उसके फैसले, उसका जश्न एक मर्द के इर्द-गिर्द घूमता है। वैसे ही रक्षाबंधन का वास्तविक सरोकार से कोई खास लेना-देना अब रह नहीं गया है। जिस भाई के भरोसे कई बार बहन ससुराल से प्रताड़ित होकर मायके आती है, वही भाई उसका साथ न देकर उसे वापस हिंसा के दलदल में धकेल देता है। कई बार जो भाई बचपन से रक्षक बना फिरता है, वो जायदाद की लालच में बहन को ही मार देता है और तो और अक्सर भाई-बहन के प्यार से ज्यादा उनके आपसी टकराव और हिंसा की खबरें ही सुर्खियों में रहती हैं। ऐसे में ज़रूरी है कि अब हम किसी भी परंपरा को सिर्फ़ इसलिए न माने कि ये बरसों से चली आ रही है, बल्कि ज़रूरी है की हम इसका विश्लेषण तर्कों के साथ करें। और इसे बंधन ना मानकर एक दूसरे के प्यार का, बराबरी का त्यौहार बनाएं
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