खाड़ी एकता के लिए सऊदी का क़तर को गले लगाना नाकाफ़ी है
पश्चिम एशिया दुनिया का ऐसा खंडित या बंटा हुआ हिस्सा है जिसके आपसी सामंजस्य की अगर कोई भी झलक दिखाई देती है तो वह उत्सव का मामला बन जाता है। इसमें कोई शक नहीं कि अप्रत्याशित रूप से, सऊदी अरब और क़तर के बीच दरार को कम करने के लिए मंगलवार को जो समझौते हुए उनकी क्षेत्र और दुनिया में बड़े पैमाने पर प्रशंसा की जा रही है। इन समझोतों का एक बड़ी सफलता के रूप में स्वागत किया जा रहा है।
हालांकि, बेचैनी की भावना अभी भी बनी हुई है। मंगलवार को वास्तव जो हुआ वह अभी तक पूरी तारा से स्पष्ट नहीं है। शासकीय सूचना केवल एकजुटता की सामान्य प्रतिज्ञा की बात करती है लेकिन इसमें एक तरफ सऊदी अरब, यूएई, मिस्र और बहरीन और दूसरी ओर क़तर के बीच दरार पाटने के समझौते की कोई विस्तृत पुष्टि नहीं की गई है।
जो विवरण मिला है उसके मुताबिक सौदे के तीन तत्व हैं: एक, सऊदी अरब को क़तर से जोड़ने वाले वायु, भूमि और समुद्री मार्गों को अवरुद्ध नहीं किया जाएगा; दो, दोहा उन कानूनी कार्रवाइयों को रोक देगा जिसे उसने हवाई प्रतिबंध के खिलाफ करने के लिए तय किया था, विशेष रूप से हवाई उड़ान की सीमाओं आदि पर; और, तीन, दोनों पक्ष एक-दूसरे के खिलाफ मीडिया अभियानों को रोक देंगे।
वाशिंगटन इंस्टीट्यूट फॉर नियर ईस्ट पॉलिसी के अनुभवी क्षेत्रीय विशेषज्ञ साइमन हेंडरसन ने उपयुक्त टिपणी में कहा कि: "यह मध्य पूर्व है, यहां शब्दों के इस्तेमाल के मामले में सतर्क रहना चाहिए और इसमें "शायद" या "हो सकता है" जैसे शब्दों को शामिल करना बुद्धिमान बात होगी। लेकिन इस खबर के संभावित महत्व पर किसी को कोई संदेह नहीं होना चाहिए। इस सौदे ने वॉशिंगटन के सहयोगियों के बीच अक्सर होने वाले बेतुके झगडों को धता बता दिया गया है। इस समझौते का महत्व इजरायल के साथ संयुक्त अरब अमीरात और बहरीन का हाल ही में हुए "सामान्यीकरण" के समझौतों [यानि अब्राहम समझौता] के मुकाबले काफी बड़ा है... [लेकिन] यह एक चलती कहानी है और "इसका क्या मतलब है?" जब तक रेगिस्तान की धूल थम न जाए तब तक बड़े सवालों को इंतजार करना होगा।
सऊदी अरब के विदेश मंत्री फैसल बिन फरहान अल-सऊद ने एक समाचार सम्मेलन में कहा कि, "इस सौदे को लागू करने की राजनीतिक इच्छाशक्ति और विश्वास" मौजूद है और उसकी पूरी गारंटी है, और दावा किया कि संयुक्त अरब अमीरात, बहरीन और मिस्र भी दोहा के साथ संबंध बहाल करने पर सहमत हो गए हैं। लेकिन यूएई के विदेश राज्य मंत्री अनवर गर्गश ने सतर्क होकर जवाब दिया कि, "हमें आपसी विश्वास और सामंजस्य स्थापित करने की जरूरत के बारे में यथार्थवादी होना चाहिए"। बाद में उन्होंने कहा कि युद्ध को समाप्त करने की एक समयरेखा थी, लेकिन उसका कोई विवरण पेश नहीं किया गया है।
यहां तक कि हमेशा उत्तेजित रहने वाले अमेरिकी विदेश मंत्री माइक पोम्पियो ने भी "खाड़ी और अरब एकता को बहाल करने में सफलता हासिल करने" का स्वागत किया है और कहा कि "हमें उम्मीद है कि खाड़ी देश अपने मतभेदों को सुलझाना जारी रखेंगे। सभी देशों के लिए पूर्ण राजनयिक संबंधों को बहाल करने के लिए आम खतरों के खिलाफ एकजुट होना अनिवार्य है।” कुवैत ने कहा है कि सऊदी अरब क़तर के लिए अपने हवाई क्षेत्र और सीमाओं को फिर से खोल देगा, लेकिन अन्य तीन अरब देशों को अभी भी इसी तरह की घोषणा करना बाकी है।
सभी अचंभों की जननी तो ये है कि क़तर ने अपने पड़ोसियों की प्रसिद्ध 13 माँगों में से किसी एक को भी पूरा नहीं किया है, जिन्हे साढ़े तीन साल पहले क़तर से मांगा आया था और क़तर के खिलाफ नाकेबंदी लगाई गई थी साथ ही राजनयिक संबंध तोड़ लिए गए थे, जिसमें अल जज़ीरा टीवी बंद करना, तुर्की बेस को बंद करना, मुस्लिम ब्रदरहुड से संबद्ध तोड़ना और ईरान के साथ संबंधों को अपग्रेड करना था।
वास्तव में या सौदा, समझौता से कम और क्षेत्रीय थकावट से अधिक पैदा हुआ लगता है। इस थकावट का क्या मतलब है? संक्षिप्त जवाब यह है कि सउदी और अमीरात, जिन्हे राष्ट्रपति ट्रम्प ने कुछ अधिक ही शक्ति दे दी थी जिससे वे कुछ ज्यादा अहंकार में आ गए थे, लेकिन वे इसे हजम नहीं कर सके। दोनों क्राउन प्रिंस ने यह मान लिया था कि खाड़ी के देशों में सबसे छोटे और अड़ियल पड़ोसी को आसानी से झुकाया जा सकता है। (एक ऐसा समय जब वे क़तर पर आक्रमण करने की योजना बना रहे थे)।
लेकिन ये हालत इस तरह से नहीं बदली हैं। कहना ये होगा कि क़तर ये हालात पैदा किए हैं। एक तरफ तुर्की और ईरान ने नाकेबंदी का सामना करने में क़तर की सहायता की। और दूसरी ओर क़तर ने सऊदी और अमीरात की तरफ तब पासा ही बदल डाला जब उसने तुर्की और और मिस्र की अवशेष मुस्लिम ब्रदरहुड जो तुर्की में निर्वासित है के साथ रियाद के प्रिंस मोहम्मद, अबू धाबी के मोहम्मद बिन जायद और मिस्र के नेता अब्देल फतह अल-सिसी के खिलाफ गठजोड़ कायम कर लिया था।
इस दौरान तुर्की और सऊदी अरब का आमना-सामना अक्टूबर 2018 में जमाल खशोगी की हुई हत्या के बाद हुआ, जिसे सऊदी शाही अदालत के सहयोगियों ने इस्तांबुल में अंजाम दिया था, जिसने क्राउन प्रिंस मोहम्मद बिन सलमान की प्रतिष्ठा को बुरी तरह से नुकसान पहुंचाया था।
एक ऐसा मोड़ आया जब आखिरकार ट्रम्प नवंबर में चुनाव हार गए। सऊदी-अमीरात का डर यह था कि चुने गए नए राष्ट्रपति बाइडन, क़तर से भी बड़े दुश्मन ईरान पर एक नरम रुख अपनाएँगे। इसके अलावा, बाइडन कसम खाए बैठे हैं कि वे अपने व्यवहार में बदलाव लाएँगे और यमन में क्रूर युद्ध की समाप्ती के लिए सऊदी अरब पर भारी दबाव बनाएँगे।
क़तर के साथ हुए इस सौदे के माध्यम से, सउदी बाइडन को ये संकेत देने की कोशिश कर रहा हैं कि रियाद बातचीत के लिए तैयार है। इस तरह के संकेत से देने से सऊदी को उम्मीद है कि आने वाले बाइडन प्रशासन से उस पर दबाव कम होगा।
जहां तक क़तर का सवाल है वह 2022 फुटबॉल विश्व कप आयोजित करने की तैयारी कर रहा है और यह सब वह अपने दादागिरी जताने वाले पड़ोसियों के सिरदर्द के बिना कर सकता है, और इससे नए बनने वाले राजनयिक संबंध का लाभ भी उठा सकता है। क़तर की एकमात्र शर्त यह रही है कि उसे रियायतों के साँचे में नहीं ढाला जाना चाहिए।
आखिर में कहा जाए तो ऐसा कुछ नहीं है जिसे भुलाया गया और या माफ किया गया है। क़तरी के घाव अभी कच्चे हैं और संबंधों को सुधारना केवल उस फॉल्टलाइन पर कागज़ चिपकाने जैसा है जो पिछले तीन वर्षों में गहरी हो गई थी। सीधे शब्दों में कहें तो क़तर के साथ जो हुआ वह किसी भी देश के साथ नहीं होना चाहिए था।
क़तर आसानी से कैसे उस कृत्य को माफ कर सकता है और भूल सकता है जिसे यूएई के पहले अबू धाबी बैंक, सऊदी अरब का सांबा बैंक और लक्समबर्ग स्थित बांके हैविलैंड (जिसके सबसे बड़े ग्राहकों में से एक, मोहम्मद बिन जायद, जो अबू धाबी के क्राउन प्रिंस और यूएई के डी फैक्टो शासक हैं) ने क़तर की मुद्रा और बॉन्ड में विश्वास को कम करके क़तर में आर्थिक अस्थिरता लाने की कोशिश की, और यही नहीं उसने क़तर के विदेशी मुद्रा भंडार को समाप्त करने के लिए बड़े समन्वित हमले किए और न्यूयॉर्क स्थित विदेशी मुद्रा प्लेटफार्मों को क़तर की झूठी धोखाधड़ी का उद्धरण प्रस्तुत करके क़तरी रियाल को कमजोर करने की कोशिश की। क़तर पर आरोप लगाया गया कि उसने न्यूयॉर्क स्थित सूचकांकों में हेरफेर किया है और न्यूयॉर्क में वित्तीय बाजारों को बाधित करने की कोशिश की जहां क़तर की महत्वपूर्ण संपत्ति रखी हुई है और जहां क़तर के कई मुख्य निवेशक मौजूद हैं?
क़तर यह कैसे भूल सकता हैं कि उसके खिलाफ नाकाबंदी लगाने से पहले, क़तर की राज्य मीडिया एजेंसी को हैक कर लिया गया था और अमीर शेख तमीम बिन हमद अल थानी को इसके लिए जिम्मेदार ठहराया गया था कि उसकी वेबसाइट पर ये सब प्रकाशित हुआ था। साइबर वॉचडॉग सिटीजन लैब के मुताबिक अकेले 2020 में, कम से कम 36 अल जज़ीरा पत्रकारों पर सऊदी अरब और यूएई की सरकारों ने इज़राइली फर्म द्वारा बेचे गए उन्नत स्पाइवेयर के जरिए निशाना साधा था।
संयुक्त राष्ट्र के साथ-साथ मानवाधिकार समूहों की कई रिपोर्टों से पता चलता है कि सऊदी-अमीरात की नाकाबंदी ने जानबूझकर उन क़तरी परिवारों को लक्षित किया को अलग-अलग नागरिकता रखते हैं, और उन्हें जबरन क़तर से अलग कर दिया गया था। क्या हम इसे "उद्देश्यहीन दुर्भावना" कहेंगे?
इसके अलावा, सऊदी अरब और यूएई के दो प्रमुख क्राउन प्रिंस क़तर की शानदार संपत्ति पर बुरी नजर डाल हुए थे, उनके इस लालच ने क़तर को आधुनिक समय के सबसे महत्वाकांक्षी आयुध कार्यक्रमों में शामिल होने पर मजबूर किया जिसमें उसने खुद को बचाने के लिए दर्जनों अरबों डॉलर खर्च किए। 2017 में क़तर के खिलाफ सऊदी-यूएई शत्रुता शुरू हुई थी और क़तर ने उसके तीन साल के भीतर जिसके पास उल्लेख करने लायक कोई वायु सेना नहीं थी, ने लगभग 100 लड़ाकू जेट का अधिग्रहण किया- और इस बाबत और अधिक सौदे फ्रांस, ब्रिटेन और अमेरिका से किए गए; इसने तुर्की से भी बेराकतार टीबी 2 ड्रोन लिया, जर्मनी से लिओपार्ड 2 ए 7 युद्धक टैंक और जर्मनी से ही स्व-चालित तोप ली और चीन से छोटी दूरी की बैलिस्टिक मिसाइलें ली हैं, इटली से कोरवीट और पनडुब्बियां हासिल की हैं और रूस से एस-400 एंटी मिसाइल डिफेंस सिस्टम लिया है।
अल जज़ीरा की एक रिपोर्ट में इस बात का उल्लेख किया गया है कि पिछले तीन वर्षों में, "इसकी सेना की हर शाखा का आकार और मारक क्षमता बढ़ी है और सैनिक प्रशिक्षण भी काफी गति से बढ़ रहा है। इसमें कोई शक नहीं कि क़तर एक शक्तिशाली क्षेत्रीय ताकत के रूप में विकसित हुआ है, और उसके क्षेत्र और बाहर दोनों तरह के सहयोगी मौजूद हैं। मुद्दा यह है कि क़तर को संदेह था जो ठीक भी था कि पड़ोस के दो क्राउन प्रिंस की वास्तविक इच्छा क़तर पर कब्जा जमाने की थी, जिसके पास रूस के बाद दुनिया का सबसे बड़ा गैस भंडार है।
नहीं, इसका कोई मतलब नहीं है कि क़तर के साथ दरार न वन से "खाड़ी एकता" हो सकती है- वह भी इसलिएम कि पड़ोस के दो क्राउन प्रिंस में अचानक बदलाव आ गया हैं- यह सब ट्रम्प द्वारा प्रोयोजित है जो एक बार फिर अरेबियन रेगिस्तान में अपनी अंतिम छाप छोड़ना चाहता है।
और न ही यह रिश्ते सुधारने की कोशिश इस क्षेत्र में भू-राजनीतिक गतिशीलता को काफी प्रभावित करने वाली है। आने वाले वक़्त में सब कुछ इस बात पर निर्भर करता है कि सऊदी और अमीरात का व्यवहार और नीतियां कैसी रहती है और उनमें किस तरह का वास्तविक परिवर्तन आता है। फिलहाल अब तक उस तरह के कोई संकेत नहीं मिले हैं।
अंग्रेज़ी में प्रकाशित मूल आलेख को पढ़ने के लिए नीचे दिये गये लिंक पर क्लिक करें
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