तिरछी नज़र: उनकी हिम्मत कैसे हुई गौमूत्र पर शोध करने की
हद है भई, देश द्रोह की भी हद है। सीमा होती है जी, हर चीज की सीमा होती है। यह थोड़ी ना है कि आप जो मर्जी शोध करें और फिर जो निष्कर्ष आए उसे ही मान लें, सबको बता दें। हमारे यहां तो शोध करने से पहले निष्कर्ष निकाल लिए जाते हैं। खुदाई करने से पहले ही पता होता है कि नीचे क्या मिलेगा।
अब आप कहेंगे कि अचानक ही शोध के बारे में बात कैसे शुरू हो गई। देखिए, बरेली के एक संस्थान ने, और ऐसे वैसे संस्थान ने नहीं, देश के एक जाने-माने संस्थान ने, शोध की है कि गाय माता का मूत्र हानिकारक है। शोध की है कि मनुष्य उसे पीये तो बीमार हो सकता है। गौमूत्र हानिकारक हो या नहीं हो परन्तु देखिए यह रिसर्च कितनी हानिकारक है। और इस हानिकारक रिसर्च को एक शोध-पत्रिका ने छाप भी दिया है।
सबसे पहले तो बरेली की इंडियन वेटरनरी रिसर्च इंस्टीट्यूट की हिम्मत ही कैसे हुई कि एक आरएसएस विरोधी, भाजपा विरोधी, धर्म विरोधी, देश विरोधी शोध करने की। मान लिया शोध भले के लिए ही शुरू की गई थी। यह भी मान लिया कि जब शोध शुरू हुई थी तो नहीं पता था कि क्या निष्कर्ष निकलेंगे। शोध तो देश हित में ही शुरू की गई थी। शोध तो धर्म के हित में ही शुरू की गई थी। शोधकर्ताओं को शोध शुरू करने से पहले पता ही नहीं था कि इस तरह के निष्कर्ष निकल आएंगे। वे तो यह मान कर ही बैठे होंगे कि शोध के परिणाम सकारात्मक ही निकलेंगे। अब अगर शोध के निष्कर्ष अलग निकल आए तो उनकी क्या ग़लती।
लेकिन गलती उनकी है, उनकी ही है। जब वे शोध कर रहे थे, जब उन्होंने देखा कि शोध के परिणाम ठीक नहीं आ रहे हैं, मनमुताबिक नहीं आ रहे हैं, गाय माता के हित में नहीं आ रहे हैं, तो उन्होंने शोध रोक ही क्यों नहीं दी। क्या उनमें इतनी भी समझ नहीं है। क्या उन्हें समझ नहीं है कि शोध किस समय बंद कर देनी चाहिए। या फिर यह नहीं आता था कि शोध के निष्कर्षों को किस तरह मनचाहे परिणाम हासिल करने के लिए बदला जा सकता है। अगर इतनी भी समझ नहीं थी तो शोध करने निकले ही क्यों थे।
अब उन्होंने अपनी शोध में पाया कि गौमूत्र में, हमारी अपनी गाय माता के पेशाब में चौदह तरह के हानिकारक बैक्टीरिया पाए जाते हैं। इस मूत्र को पीने से पीने वाला बीमार पड़ सकता है। जिस चीज का सेवन कुछ लोग अपनी सभी बीमारियों का, यहां तक कि कैंसर तक के इलाज का दावा करते हैं, उससे बीमारी हो सकती है। क्या वाहियात शोध है। इससे वहियात शोध तो हो ही नहीं सकती है।
वैसे गौमूत्र पर शोध करने की जरूरत ही क्या थी। जिस चीजों के बारे में पता है, सदियों से पता है, जिस चीज पर वाट्सएप यूनिवर्सिटी जैसी बड़ी, महान, विश्व प्रसिद्ध यूनिवर्सिटी में भरपूर शोध हो चुकी है, उस चीज पर इन छोटी मोटी संस्थाओं में फिर से शोध करने की जरूरत ही क्या है। क्या इस शोध को करने से पहले सारी औपचारिकताएं पूरी कर ली गईं थीं। क्या सबसे अनुमति ले ली गई थी। क्या विश्व हिन्दू परिषद से, बजरंग दल से, गौरक्षा में जुटे विभिन्न संगठनों से, और इस तरह के अन्य ‘महान’ संस्थानों से भी अनुमति ले ली गई थी। क्या आरएसएस और भाजपा, दोनों की अनुमति थी कि इस तरह की शोध की जा सकती है। क्या इस शोध के लिए पीएमओ और गृह मंत्रालय ने भी अनुमति दे दी थी।
और हिमाकत तो देखो, गौमूत्र से तो नुकसान होने की बात बता दी पर साथ ही यह भी जोड़ दिया कि भैंस के मूत्र में वे हानिकारक बैक्टीरिया नहीं पाए गए, भैंस का मूत्र गाय के मूत्र से कम हानिकारक है। ठीक है गाय के मुकाबले भैंस का दूध अधिक पिया जाता है। अमूल डेयरी, जिसका दूध पीता है इंडिया, और अब वही दूध कर्नाटक को भी पिलाया जा रहा है, के आंकड़े बताते हैं कि गाय के बजाय भैंस का दूध अधिक पिया जाता है। पर क्या अब हम मूत्र भी भैंस का ही पीने लगें। मतलब तुम जो मर्जी रिसर्च कर लोगे और हम मान लेंगे। गाय माता कि बजाय भैंस का मूत्र पीने लगेंगे।
खैर यह तो अच्छा हुआ कि संस्थान के प्रमुख ने जल्दी ही बता दिया कि यह शोध गाय के मूत्र को बिना कीटाणु नष्ट किए किया गया था। अगर गौमूत्र को कीटाणु नष्ट कर, पाश्चुराइज्ड कर पीया जाए तो यह शरीर के इम्यूनिटी सिस्टम को मजबूत करता है। और उससे भी अच्छा यह हुआ कि दो चार अंग्रेजी अखबारों के अलावा किसी और अखबार ने इसे नहीं छापा ही नहीं। हिन्दी अखबारों ने तो बिल्कुल ही नहीं छापा। उन्होंने हमेशा की तरह देशभक्ति, धर्म भक्ति निभाई।
इस शोध ने हमारी आंखें खोल दी हैं। आंखें खोल दी है कि हम इस तरह की शोध को होने ही न दें। कोई इस तरह की शोध करना चाहे तो उसे पहले से ही बता दें कि शोध के परिणाम क्या आने चाहिए। इस तरह के धर्म विरोधी, देश विरोधी शोध परिणाम प्राप्त करने वालों के ऊपर रासुका लगा देना चाहिए। उनके पीछे ईडी, सीबीआई और इनकम टैक्स को छोड़ देना चाहिए। उनकी वह हालत करनी चाहिए कि उन से लोग सीख सकें। सीख सकें कि शोध के परिणाम कैसे आने चाहिए। शोध से पहले ही शोध के निष्कर्ष पता होने चाहिए।
(लेखक पेशे से चिकित्सक हैं।)
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