मुद्दा: राज्य का दायित्व बनाम रेवड़ी कल्चर और ग़रीबों की आत्महत्या
मोदी राज की नीतिगत प्राथमिकताओं और उनके दौर में अर्थव्यवस्था के वर्गीय चरित्र पर इससे सटीक टिप्पणी नहीं हो सकती कि जिस समय संकटग्रस्त गरीबों तथा छात्र-युवाओं की आत्महत्या में उछाल की खबरें मीडिया की सुर्खी बन रही हैं, ठीक उसी दौर में प्रधानमंत्री मोदी ने गरीबों को मिलने वाली सब्सिडी में कटौती की बहस छेड़ दी है। यहां तक कि इस बहस में सुप्रीम कोर्ट तक को involve कर लिया गया है। यह सचमुच त्रासद विडंबना है।
भारी हलचल पैदा करने वाले NCRB के इस साल के आत्महत्या के आंकड़ों से यह दिन के उजाले की तरह साफ है कि बढ़ती हुई रेकॉर्ड आत्महत्याएं मोदी सरकार की अमीर-परस्त, गरीब-विरोधी नीतियों तथा नोटबन्दी, flawed GST, अविचारित लॉकडाउन जैसे विनाशकारी कदमों का सीधा और प्रत्यक्ष परिणाम हैं।
2021 में भारत में जिन रिकॉर्ड 1 लाख 64 हजार से ज्यादा लोगों ने आत्महत्या की उनका एक चौथाई दिहाड़ी मजदूर हैं और दो तिहाई लोग ऐसे हैं जिनकी आय सालाना एक लाख रुपये से कम है। दूसरी महत्वपूर्ण category छात्रों की है जिनकी संख्या एक साल में 4.5% बढ़कर 13 हजार से ऊपर पहुंच गई। यह साफ है कि असंगठित क्षेत्र के ध्वंस और रोजगार-नौकरियों के खात्मे ने असंगठित क्षेत्र के श्रमिकों तथा छात्र-युवाओं को आत्महत्या की राह पर धकेल दिया है।
दूसरी ओर ठीक इसी दौर में मोदी जी की कृपा से अनेक राष्ट्रीय संसाधनों पर कब्ज़ा, भारी टैक्स छूट और अकूत बैंक ऋण हासिल कर अडानी दुनिया के शीर्ष धनकुबेरों में शामिल हो गए और उनकी सम्पदा 8 साल में 49 गुना बढ़ गयी !
मोदी जी ने अभी रेवड़ी कल्चर के खिलाफ जो सार्वजनिक अभियान छेड़ा है, उसका तात्कालिक कारण तो गुजरात, हिमाचल चुनाव में केजरीवाल के populism से पैदा भय है, क्योंकि इसके बल पर वे पंजाब तो जीते ही, इसके पहले दिल्ली में भी भाजपा को दो दो बार धूल चटा चुके हैं।
मोदी यह भी anticipate कर रहे होंगे कि 2024 के लोकसभा चुनावों के पूर्व एकजुट होता विपक्ष जनता के लिए राहत के कुछ बड़े पैकेज लेकर आ सकता है जिसकी तमाम ख्यातिप्राप्त अर्थशास्त्री लंबे समय से वकालत कर रहे हैं, मसलन कांग्रेस ने 2019 के चुनाव के पूर्व 72 हजार हर साल सबके खाते में डालने की जो न्याय योजना घोषित की थी, वह जरूर उन्हें याद होगी। उस बार पुलवामा-बालाकोट की पृष्ठभूमि में हुए चुनाव में भले उसका असर न दिखा हो, लेकिन इस बार बदले माहौल में जब जनता महंगाई, बेरोजगारी, मंदी से बेहाल है, विपक्ष की ओर से ऐसे वायदे बदहाल जनता को अपील कर सकते हैं और चुनाव में निर्णायक साबित हो सकते हैं। मोदी जी को 2009 के चुनाव के ठीक पूर्व तत्कालीन मनमोहन सरकार द्वारा किसानों की 70 हजार करोड़ की कर्जमाफी का ऐलान भी जरूर याद होगा जिसकी मदद से कांग्रेस ने वह चुनाव फिर जीत लिया था।
राहुल गांधी ने गुजरात में किसानों की 3 लाख तक कर्ज़माफी, कोविड मृतों के परिजनों को 4 लाख मुआवजा, 500 रू0 में गैस सिलेंडर, 3000 मासिक बेरोजगारी भत्ता, 10 लाख नौकरियों जैसे कई बड़े राहत के वायदे कर दिए हैं।
जाहिर है, मोदी जी 2024 चुनाव में विपक्ष द्वारा जनता के लिए बड़े आर्थिक पैकेज की चुनावी संभावना से भयभीत हैं।
मोदी जी के सामने संकट यह है कि जनता को कोई substantial आर्थिक मदद दे पाना न उनकी नीतिगत दिशा permit करती है, न ही अर्थव्यवस्था को उन्होंने जिस गहरे संकट में फंसा दिया है, उसकी व्यवहारिक मजबूरियाँ उन्हें इसकी इजाजत देती हैं। यहां तक कि महामारी के समय जब पूरी मेहनतकश आबादी घनघोर आर्थिक संकट में फंस गई- करोड़ों लोगों की नौकरियां चली गई, रोजगार खत्म हो गए, कारोबार चौपट हो गया, तब भी मोदी सरकार ने जनता को किसी तरह का आर्थिक राहत पैकेज देने से इनकार कर दिया, जबकि तमाम देशों में सरकारों ने अपने नागरिकों को संकट की घड़ी में संभालने के लिए उन्हें बड़े पैमाने पर नकद आर्थिक सहायता दी।
महामारी की उस असाधारण परिस्थिति में उनके अविचारित लॉक डाउन से भुखमरी के कगार पर पहुंच गए गरीबों को कुछ अनाज बांट कर उन्होंने अपने कर्तव्य की इतिश्री कर ली। UP समेत अन्य राज्यों में इसके चुनावी दोहन के बाद अब यह मुफ्त अनाज भी बंद हो चुका है।
दरअसल, वैश्विक वित्तीय पूँजी तथा कारपोरेट घरानों, विशेषकर अडानी जैसे अपने चहेतों के हित में नवउदारवादी नीतियों को उनके तार्किक conclusion तक ले जाना ही शासक वर्गों द्वारा उनके लिए नियत ऐतिहासिक भूमिका है, जिसकी अवमानना करते ही उनकी नज़रों से मोदी जी का गिर जाना और उनके समर्थन से वंचित हो जाना तय है। उनके समर्थन के बिना, जिसमें उनके द्वारा नियंत्रित गोदी मीडिया की भूमिका शामिल है, मोदी जी की सत्ता में वापसी असम्भव हो जाएगी।
नवउदारवादी नीतियों को उनके logical conclusion तक ले जाने में बेहद अहम कड़ी है-कृषि समेत अन्य उत्पादक मदों में बची खुची सब्सिडी को खत्म करने की दिशा में बढ़ना, कुछ नई राहत देना तो बहुत दूर की बात है।
प्रो. प्रभात पटनायक का निष्कर्ष है कि रेवड़ी कल्चर की इस बहस की आड़ में लघु उत्पादकों खास तौर से किसानों को मिलने वाली सब्सिडी में भारी कटौती होगी। वे कहते हैं कि बिजली पर सब्सिडी को freebie कहकर इसका संकेत दे दिया गया है। उनका मानना है कि कृषि क्षेत्र को और बुरी तरह निचोड़ा जाएगा और उस पर कारपोरेट कब्जे की जमीन तैयार की जाएगी। उनके अनुसार यह तीन कृषि कानूनों वाला ही एजेंडा है जिसे अब दूसरे आवरण में आगे बढ़ाया जा रहा है।
उनका यह मानना है कि सरकार मुद्रास्फीति की मौजूदा बेहद ऊंची दर के दौर में जनता पर और indirect tax नहीं बढ़ा सकती, न शिक्षा स्वास्थ्य जैसे मदों की सब्सिडी में कटौती कर सकती, ऐसी हालत में लघु उत्पादकों, सर्वोपरि किसानों को मिलने वाली सब्सिडी का खात्मा उसके पास एकमात्र उपाय बच गया है।
वे पूछते हैं कि हमारे देश में जहां धनिकों से कोई wealth tax नहीं लिया जाता और व्यवहारतः कारपोरेट टैक्स ही उनसे टैक्स वसूली का मुख्य स्रोत है, फिर उसमें भी सरकार उन्हें लाखों करोड़ की छूट क्यों दे रही है, इसका क्या औचित्य है? यह तर्क कि इससे निवेश stimulate होता है, उसमें तेजी आती है, इसका न सैद्धांतिक प्रमाण है न व्यवहारिक। दूसरी ओर जनता को मिलने वाली बची-खुची सब्सिडी पर भी निशाना है।
चूँकि सब्सिडी करने की हिम्मत, चुनावी दृष्टि से असुविधाजनक होने के कारण, मोदी सरकार खुद नहीं जुटा पा रही है, इसलिए सर्वोच्च न्यायालय के कंधे पर रखकर बंदूक चलाना चाह रही है जो पूरी तरह अलोकतांत्रिक है क्योंकि यह नीतिगत मामला जनता के चुने हुए प्रतिनिधियों के अधिकार-क्षेत्र का है, न कि judiciary के।
कहाँ किसान पहले से ही बढ़ी लागत कीमतों से बेहाल हैं और MSP की कानूनी गारंटी के लिये लड़ रहे हैं और कहाँ अब उन्हें जो सब्सिडी मिल भी रही थी उसे भी खत्म करने की तैयारी है। जाहिर है यह आने वाले दिनों में सरकार से किसानों के बड़े टकराव की जमीन तैयार हो रही है।
मोदी जी द्वारा छेड़ी गयी रेवड़ी कल्चर की बहस के झांसे में आये बिना, किसान आंदोलन तथा अन्य जनांदोलनों को कृषि समेत दूसरी subsidies खत्म करने की हर कोशिश का जोरदार प्रतिवाद करना होगा। साथ ही विपक्ष पर दबाव बनाना होगा कि वह देश की अर्थव्यवस्था के पुनर्जीवन के लिए 2024 के चुनाव में जनकल्याण और विकास के बड़े राहत पैकेज का ऐलान करे तथा वैकल्पिक आर्थिक एजेंडा पेश करे। देश के सभी नागरिकों के लिए गरिमामय जीवन की सभी मूलभूत जरूरतों को पूरा करना राज्य का दायित्व है, freebie नहीं।
मोदी राज के राजनीतिक अर्थशास्त्र का जनपक्षीय विकल्प ही उसके अंत की राह प्रशस्त करेगा।
(लेखक इलाहाबाद विश्वविद्यालय छात्रसंघ के पूर्व अध्यक्ष हैं। विचार व्यक्तिगत हैं।)
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