EXCLUSIVE: ‘भूत-विद्या’ के बाद अब ‘हिंदू-स्टडीज़’ कोर्स, फिर सवालों के घेरे में आया बीएचयू
बनारस के काशी हिन्दू विश्वविद्यालय में हाल ही में शुरू किया गया नया पाठ्यक्रम "हिन्दू स्टडीज" तल्ख सवालों के घेरे में आ गया है। इस कोर्स को लेकर बड़ा सवाल यह खड़ा हुआ है कि बीएचयू में जब पहले से ही कई विभागों में इस तरह की पढ़ाई होती चली आ रही है तो "कट-पेस्ट" करके नया पाठ्यक्रम बनाने की जरूरत क्यों पड़ी? देश की एक बड़ी शैक्षणिक संस्था में ऐसे पाठ्यक्रमों को बार-बार गढ़ने की जरूरत क्यों पड़ रही है जो विज्ञान और संविधान को नकारता हो, अंधविश्वास को जन्म देता हो और तर्क करने से रोकता हो? "हिन्दू स्टडीज" में मास्टर डिग्री लेने के बाद स्टूडेंट्स के लिए आगे का रास्ता क्या होगा? प्रतियोगिता और बेरोजगारी के दौर में इन्हें नौकरी कौन देगा? बनारस में एक बड़े प्रबुद्ध तबके ने "हिन्दू स्टडीज" पाठ्यक्रम को अनुपयोगी करार देते हुए बीएचयू में विज्ञान और संविधान में आस्था का स्वर जगाने वाले कोर्स शुरू करने की मांग उठाई है। साथ ही यह भी कहा है कि बीएचयू के उन सभी पाठ्यक्रमों को बंद किया जाना चाहिए जो अनुपयोगी हैं और पोंगापंथ को बढ़ावा देते हैं। खासतौर पर ऐसे पाठ्यक्रम जो सिर्फ एक जाति-समुदाय विशेष हितों को लक्ष्य बनाकर गढ़े गए हैं।
उत्तर प्रदेश के वाराणसी स्थित बीएचयू ने हिन्दू धर्म को अकादमिक स्वरूप देने के लिए कला संकाय के भारत अध्ययन केंद्र ने दो साल पहले "हिन्दू स्टडीज" कोर्स शुरू करने की योजना बनाई थी, जिसकी पढ़ाई अब शुरू हो गई है। दावा यह किया जा रहा है कि इस कोर्स में हिन्दू धर्म और जीवन शैली के बारे में पढ़ाया जाएगा, जिससे हिन्दू राष्ट्रवाद की परिकल्पना को मजबूती मिलेगी। इसे शुरू कराने वाले बीएचयू के प्रोफेसर सदाशिव द्विवेदी दावा करते हैं कि इस कोर्स के अध्ययन से हिन्दू धर्म को लेकर समाज में फैली तमाम तरह की भ्रांतियां दूर होंगी। प्रो. सदाशिव कहते हैं, "भारत ऐसा देश है जहां अलग-अलग मत, सम्प्रदाय के लोग हज़ारों सालों से एक साथ समावेशी तरीके से रह रहे हैं। इसके बावजूद सबका मूल हिन्दू धर्म ही है। इसमें सिर्फ धर्म आधारित ग्रंथों के बारे में नहीं, बल्कि भारतीय दर्शन को एक साथ वैज्ञानिक तरीके से समावेशित किया गया है। सिर्फ कर्मकांड ही नहीं, इसमें हिन्दू धर्म आधारित जीवनशैली के बारे में भी बताया जाएगा। इस विषय का आधार दो ग्रंथों पर आधारित होगा। एक महर्षि वाल्मीकि का रामायण और दूसरा महर्षि वेदव्यास का महाभारत। इस विषय को लाने का आशय छात्रों का परिचय धर्म के आधार पर भारतीयता से कराने का है।"
'हिन्दू स्टडीज़' कोर्स की ज़रूरत क्यों?
बीएचयू के कला संकाय के भारत अध्ययन केंद्र की ओर शुरू कराए गए इस कोर्स के बारे में स्पष्ट किया गया है कि "हिन्दू स्टडीज" कोर्स को साझे में चलाया जाएगा। भारत अध्ययन केंद्र के प्रमुख और इस पाठ्यक्रम के संयोजक प्रोफ़ेसर सदाशिव द्विवेदी कहते हैं, "पाठ्यक्रम के संचालन में मुख्य भूमिका दर्शन विभाग की होगी जो हिंदू धर्म की आत्मा, महत्वाकांक्षाओं और हिंदू धर्म की रूपरेखा के बारे में बताएगा, जबकि प्राचीन इतिहास और संस्कृति विभाग की भूमिका प्राचीन व्यापारिक गतिविधियों, वास्तुकला, हथियारों, महान भारतीय सम्राटों और उनके उपयोग में आने वाले उपकरणों इत्यादि के बारे में जानकारी देने की रहेगी। इसके अलावा संस्कृत विभाग प्राचीन शास्त्रों, वेदों और प्राचीन अभिलेखों के व्यावहारिक पहलुओं की जानकारी देगा।"
"हिन्दू स्टडीज" कोर्स का प्रारूप तैयार करते समय इस बात का ध्यान रखा गया था कि हिन्दू धर्म से संबंधित तथ्यों को रखने से पहले प्राचीन धर्म शास्त्रों और ग्रंथों की तथ्यात्मक जानकारी पुख्ता की गई है। इसमें प्राचीन भारतीय इतिहास और संस्कृति विभाग, सनातन काल के महान हिन्दू सम्राटों एवं उनके द्वारा इस्तेमाल किए स्थापत्य कला, युद्ध शैली, व्यापरिक गतिविधि से लेकर हर सामाजिक पहलू से छात्रों का परिचय कराया जाएगा। इसके अलावा धार्मिक श्लोकों और मंत्रों का व्यवहारिक पक्ष को भी इसमें जगह दी गई है। भारत अध्ययन केंद्र वैदिक काल के व्यावहारिक विज्ञान और जीवन रहस्य को सामने लाएगा। इसमें तत्व विज्ञान (पांच तत्व से धरती का निर्माण), प्राचीन युद्ध कौशल, हिंदू केमिस्ट्री, सैन्य विज्ञान, कला, शास्त्रीय संगीत और नाटक की विधाएं शामिल हैं। इसके साथ ही रामायण, महाभारत, वेद, वेदांत, वेदांग, ज्ञान मीमांसा, भाषा विज्ञान, कालिदास, तुलसीदास, आर्य समाज, बुद्ध, जैन और स्वामी विवेकानंद के स्थापित जीवन सिद्धांतों और नियमों के अनुकूल छात्रों को शिक्षा दी जाएगी।"
शिक्षाविदों ने खड़े किए सवाल
बीएचयू में "हिन्दू स्टडीज" पोस्ट ग्रेजुएट पाठ्यक्रम में स्टूडेंट्स का दाखिला शुरू हो चुका है। कायदे से पढ़ाई अभी शुरू भी नहीं हो सकी, इससे पहले ही बीएचयू के कई जाने-माने शिक्षाविदों ने इस पाठ्यक्रम पर तल्ख सवाल खड़े कर दिए हैं। भारतीय इतिहास संस्कृति एवं पुरातत्व विभाग के प्रोफेसर महेंद्र प्रसाद अहिरवार कहते हैं, "मदन मोहन मालवीय ने बीएचयू की स्थापना करते समय हिन्दू धर्म व संस्कृति के संरक्षण और प्रचार-प्रसार के लिए यहां सभी तरह का पाठ्यक्रम शुरू कराया था, जो पहले से ही मौजूद हैं। "हिन्दू स्टडीज" के नाम से किसी दूसरे पाठ्यक्रम की कोई जरूरत नहीं थी। यह विशुद्ध रूप से हिन्दू राष्ट्रवाद का नैरेटिव गढ़ने वाले तथाकथित पैरोकारों की खुशामदी करने और धन हथियाने का जरिया है। "हिन्दू स्टडीज" में मुख्य रूप से जिन विभागों का बड़ा हिस्सा "कट पेस्ट" करके चुराया गया है वह है भारतीय इतिहास संस्कृति एवं पुरातत्व विभाग और दर्शन शास्त्र का संस्कृत, पाली, एवं बौद्ध अध्ययन। इसके अलावा संस्कृत विद्या धर्म विज्ञान संकाय में पूर्व में प्रचलित पाठ्यक्रमों को भी "हिन्दू स्टडीज" में जोड़ दिया गया है। यूजीसी को अंधेरे में रखने के लिए कुछ लोगों ने अपने निहित स्वार्थों की पूर्ति के लिए अकादमिक चतुराई दिखाई है। सिर्फ यूजीसी ही नहीं, विश्वविद्यालय प्रशासन और सरकार को भी अंधेरे में रखा गया है।"
प्रो. अहिरवार कहते हैं, "बीएचयू में हिन्दू पाठ्यक्रम की कोई जरूरत नहीं थी। दो वर्षीय कोर्स के पहले सेमेस्टर में संस्कृत परिचय, प्रमाण सिद्धांत, वेद प्रमाण और तत्व विमर्श पढ़ाया जाएगा। बाकी के तीन सेमेस्टर में पुनर्जन्म, बंधन, मोक्ष, रामायण, महाभारत, नाट्य विद्या, पुराण परिचय, विभिन्न धर्मों का तुलनात्मक अध्ययन, धर्म एवं कर्म विमर्श, जैन, बौद्ध, परंपरा, भाषा (वेदांग शिक्षा, व्याकरण, निरुक्त, प्राकत भाषा एवं साहित्य) की पढ़ाई होगी। इसमें भारतीय स्थापत्य और भारतीय कला, सैन्य विज्ञान, विधि एवं न्याय प्रक्रिया के कुछ चेप्टर्स को जोड़ दिया गया है। इसमें कोई ऐसा चेप्टर नहीं है जो बीएचयू में पहले न पढ़ाया जा रहा हो। इस पाठ्यक्रम में सब कुछ बासी है। यहां अलग-अलग विभागों में वेद, पुराण, व्याकरण की पढ़ाई पहले से ही हो रही है। इस पाठ्यक्रम का हिन्दुत्व की रक्षा से भी कोई सरोकार नहीं है। एकेडमिक कौंसिल की बैठक में हमने इसका जोरदार विरोध किया था, लेकिन बात नहीं सुनी गई।"
प्रो. अहिरवार यह भी कहते हैं, "मुसलमानों के आगम से पहले रचित किसी भी धर्मशास्त्र जैसे- वेद, उपनिषद, धर्म सूत्र, महाकाव्य, स्मृतियों और पुराणों आदि में कहीं भी "हिन्दू" शब्द का प्रयोग नहीं किया गया है। मुस्लिम आक्रांताओं ने भारतीयों को संबोधित करने के लिए पहली मर्तबा "हिन्दू" शब्द का प्रयोग किया। बाद में राजनीतिज्ञों ने अपने स्वार्थ और वोटों के फेर में "हिन्दुत्व" शब्द को अपना सियासी हथियार बनाया। अब इसे एक बड़े औजार के रूप में इस्तेमाल किया जा रहा है, अन्यथा दयानंद सरस्वती जैसे महान समाज सुधारकों ने भी इसका हिन्दूवाद का पुरजोर विरोध किया था।"
"हिन्दू स्टडीज" का महिमामंडन
काशी हिन्दू विश्वविद्यालय में शुरू किए गए "हिन्दू स्टडीज" कोर्स का आजकल जमकर महिमामंडन किया जा रहा है। प्रचार यहां तक किया जा रहा है कि बीएचयू एक बार फिर राष्ट्र निर्माण में अपनी सार्थकता सिद्ध करने की दिशा में उठ खड़ा हुआ है। आधुनिकता के साथ सनातन प्राचीन परंपरा की थाती संजोए यहां के छात्र अब वेद, पुराण, ब्राह्मण और श्रमण परंपरा के साथ रामायण, महाभारत, दर्शन, ज्ञान मीमांसा सहित हिंदू धर्म के वैशिष्ट्य और परंपरा पर आधारित पाठ्यक्रमों में पढ़ाई कर सकेंगे। देश-विदेश के कई नामी आचार्यों ने इस कोर्स को डिजाइन किया है। कला संकाय प्रमुख की अध्यक्षता वाली बोर्ड ऑफ स्टडीज की बैठक में सर्वसम्मति से इस कोर्स पर मुहर लगी है। बोर्ड आफ स्टडीज की बैठक में जेएनयू के प्रो. रामनाथ झा, आईआईटी-कानपुर के प्रो. नचिकेता तिवारी, प्रो. कमलेश दत्त त्रिपाठी, प्रो. ब्रजकिशोर स्वाई (ओडिशा), बीएचयू संस्कृत विद्या धर्म विज्ञान संकाय के प्रमुख प्रो. विंध्येश्वरी प्रसाद मिश्र, लोकगायिका प्रो. मालिनी अवस्थी, प्रो. प्रद्युम्न शाह, प्रो. विमलेंद्र कुमार, प्रो. सच्चिदानंद मिश्र, इंदिरा गांधी राष्ट्रीय कला केंद्र वाराणसी के निदेशक प्रो. विजय शंकर शुक्ल, प्रो. राकेश उपाध्याय, प्रो. केशव मिश्र, डा. अर्पिता चटर्जी, प्रो. सदा शिव कुमार द्विवेदी समेत कई अन्य प्रमुख आचार्य मौजूद थे, जिन्होंने लंबे विचार-विमर्श के बाद इस पाठ्यक्रम पर अपनी संस्तुति दी है।
बोर्ड ऑफ़ स्टडीज में शामिल प्रोफ़ेसर राकेश उपाध्याय दावा करते हैं कि भारत में हिन्दू धर्म और शास्त्रों को लेकर मनमानी व्याख्या चल रही है। हमारे इतिहासकार जिनमें से अधिकांश ऐसे लोग हैं जिनको संस्कृत भाषा तक नहीं पता, लेकिन वह व्याख्या कर रहे हैं हिन्दू धर्म, शास्त्र और सनातन परंपरा की, जिनके अध्ययन का स्रोत ही विकृत है तो क्या व्याख्या करेंगे यह कोई भी समझ सकता है? ज़्यादातर ऐसे विचारधारा के लोग हैं जिनका एकमात्र उद्देश्य हिन्दू धर्म और सनातन परंपरा से द्रोह के कारण अपने नैरेटिव के लिए हर जगह अनावश्यक डिबेट खड़ा करके उसे ख़ारिज करना है न कि उसे समझाना और उस पर वास्तविक विमर्श करना। कई ऐसे लोग प्राचीन इतिहास के विशेषज्ञ बने हुए हैं जो हिन्दू धर्म पर व्याख्यान देते फिर रहे हैं, जबकि इन्हें खुद मूल ग्रंथों का ज्ञान नहीं है। "हिन्दू स्टडीज" का मकसद विवाद खड़ा करना नहीं, नहीं बल्कि आने वाले दिनों में सनातन और हिन्दू धर्म को केंद्र में रखकर प्राचीन शास्त्रों से लेकर, योग, ज्ञान, सैन्य और शास्त्र परम्पराओं का समावेशन करते हुए अपनी विशिष्टताओं को उभारना है। इस पर शोध और लेखन को बढ़ाना है ताकि आगे आने वाली पीढ़ी अपनी विशिष्टतता को जानकर गौरवान्वित हो। आने वाली पीढ़ियां अपने वैशिष्ट्य को जान और समझ सकें, न कि उसके विकृत स्वरूप को ही सत्य मानकर भ्रमित हों।"
"हिन्दू स्टडीज" के पैरोकारों के विचारों से उलट काशी हिन्दू विश्वविद्यालय के चिकित्सा विज्ञान विभाग के प्रोफेसर और जाने-माने हृदय रोग विशेषज्ञ डा. ओमशंकर इसकी जरूरत को खारिज करते हैं। "न्यूजक्लिक" के लिए हुई बातचीत में वह कहते हैं, "हर सत्ता का अपना धर्म होता है। जिस तरह की सत्ता आती है, उसी तरह की विचारधारा के लोग अपने हिसाब से उसे चलाने की कोशिश करते हैं। अपनी मजबूती के लिए हर तरह हथकंडे अपनाते हैं और नए-नए बितंडे भी खड़ा करते हैं। नए-नए नैरेटिव गढ़कर समाज पर अपनी विचारधाराओं को थोपने की कोशिश करते हैं। नई दुनिया साक्ष्य और विज्ञान की दुनिया है। इसमें रूढ़िवाद और किस्से-कहानियों की कोई गुंजाइश नहीं बची है। वैज्ञानिक पद्धति पहले प्रमाण मांगती है और तर्क करती है, तब किसी तथ्य को स्वीकर करती है। किसी भी राष्ट्र को आगे ले जाने के लिए धर्म की नहीं, विज्ञान और संविधान की जरूरत पड़ती है। बेहतर होता कि बीएचयू में आधुनिक पद्धति के नए पाठ्यक्रम शुरू किए जाते तो भारतीय समाज की गरिमा बढ़ती। गौर करने की बात है कि हमारा पड़ोसी देश चीन बिजली की मुश्किलों से निजात पाने के लिए कृत्रिम सूरज बनाने में जुटा है और हम अंधविश्वास का नैरेटिव गढ़ने में ताकत लगा रहे हैं।"
डा. ओमशंकर कहते हैं, "हिन्दू स्टडीज" कोर्स को लाने की जरूरत क्यों पड़ी, जब बीएचयू में पहले से ही इसे पढ़ाया जा रहा है? इस कोर्स को शुरू करने के नेपथ्य में झांकेंगे तो पता चलेगा कि नए दौर में उन अल्पसंख्यकों को ज्यादा दिक्कत हो रही है जो बहुसंख्यक समाज को बेवकूफ बनाकर उनके हक-हकूक को छीनते आ रहे हैं। बहुसंख्यक समाज जब सजग होकर अपना अधिकार मांग रहा है तो उसे पीछे ढकेलने और शोषण की पटकथा लिखने वाले नैरेटिव गढ़े जा रहे हैं। किसी भी कोर्स में जब तक वैज्ञानिक सोच शामिल नहीं होगा, तब तक अंधभक्ति का खेल चलता रहेगा। गौर करने की बात है कुछ ही सालों में अडानी-अंबानी सरीखे जिन दो पूंजीपतियों के पास समूचे देश की दौलत सिमट गई है, वह दौलत बहुसंख्यक समाज की है। कोई भी समाज सिर्फ अंधविश्वास के जरिये ही कमजोर होता है, तभी जन्म लेते हैं दास और गुलाम। ऐसे गुलाम जिनके पास सवाल पूछने और तर्क करने का कोई हक नहीं होता है। यह गंभीर सामाजिक षड्यंत्र है। इन दिनों सियासत में धर्म प्रबल हो गया है, जिसके दम पर वैज्ञानिकता को पीछे ढकेलने की कोशिश की जा रही है। अल्पसंख्यक समाज अब बहुसंख्यक समाज के शोषण के लिए नए सिरे से षड्यंत्र रच रहा है। किसी भी राष्ट्र का आधुनिक धर्म संविधान होता है। बीएचयू में संविधान और विज्ञान पढ़ाया जाना चाहिए, न कि पोंगापंथी वाले पाठ्यक्रम। मजबूत राष्ट्र के निर्माण के लिए वैज्ञानिक नजरिया पेश करने वाले पाठ्यक्रमों की जरूरत है। दुखद पहलू यह है कि बीएचयू में इस तरह का एक भी पाठ्यक्रम हाल-फिलहाल शुरू नहीं हो सका है।"
भूत विद्या का कोर्स भी किया था शुरू
अभी ज्यादा दिन नहीं हुए हैं जब बीएचयू में 'भूत बाधा' से निपटने का तरीका बताने वाला पाठ्यक्रम लांच किया गया था। नए सर्टिफ़िकेट कोर्स के जरिए स्टूडेंट्स को यह सिखाया जाना था कि जिन पर 'भूत-प्रेत का साया' उनका इलाज कैसे किया जाए? इस कोर्स को शुरू करते समय दावा किया गया था कि इसमें साइकोसोमैटिक डिस्ऑर्डर के बारे में ख़ास तौर पर पढ़ाया जाएगा जिसे कई बार असमान्य घटनाओं से जोड़कर देखा जाता है। बीएचयू के आयुर्वेद विभाग द्वारा शुरू किए गए इस कोर्स को "भूत विद्या" नाम दिया गया था। इसकी एक अलग इकाई भी स्थापित की गई थी।
आयुर्वेद संकाय की डीन यामिनी भूषण त्रिपाठी ने दो साल पहले यह कहकर तहलका मचा दिया था कि अज्ञात कारणों से होने वाली बीमारियों और मन या मानसिक स्थितियों से संबंधित रोगों के इलाज के लिए भूत जैसी जुड़ी चीज़ों के उपचार के बारे में पढ़ाया जाएगा। इसे पढ़ाने के पीछे तर्क यह दिया गया था कि भारत में क़रीब 14 फ़ीसदी लोग मानसिक तौर पर बीमार हैं। क़रीब 20 फ़ीसदी भारतीय कभी ना कभी अपने जीवन में अवसाद का सामना करते हैं। देश में चार हज़ार से भी कम मेंटल हेल्थ प्रोफ़ेशनल हैं। मानसिक बीमारियों को लेकर अपने देश में जागरुकता का घोर अभाव है। इनमें ज्यादातर लोग बेहद ग़रीब परिवार से ताल्लुक़ रखने वाले होते हैं। हैरत की बात यह है कि वैज्ञानिक पहलुओं को नजरंदाज करते हुए शुरू कराया गया भूत विद्या का कोर्स शुरू होने से पहले ही विवादों में घिर गया। इस कोर्स में किसी स्टूडेंट के दाखिले की नौबत ही नहीं आई। भूत विद्या के बाद "कट-पेस्ट" वाला "हिन्दू स्टडीज" कोर्स लाया गया तो दरबारी मीडिया ने इसका जमकर महिमा मंडन शुरू किया। हिन्दुत्व के नाम पर लहालोट सत्ता ने ताकत दी तो इस मुहिम को बल मिल गया।
क्या कहता है अनुदान आयोग
विश्वविद्यालय अनुदान आयोग (यूजीसी) के एक पैनल ने साल 2017 में सुझाव दिया था कि काशी हिंदू विश्वविद्यालय और अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय के नामों से "हिंदू" और "मुस्लिम" जैसे शब्दों को हटाया जाना चाहिए, क्योंकि ये शब्द इन विश्वविद्यालयों की धर्मनिरपेक्ष छवि पर बट्टा लगाते हैं। इस पैनल का गठन दस केंद्रीय विश्वविद्यालयों में कथित अनियमितताओं की जांच के लिए किया गया था। पैनल ने यह सिफारिशें एएमयू की लेखा परीक्षा रिपोर्ट में भी की हैं। पैनल के सदस्यों का मानना था कि केंद्र सरकार से वित्तपोषित विश्वविद्यालय धर्मनिरपेक्ष संस्थान होते हैं। इन विश्वविद्यालयों के नाम के साथ जुड़े धर्म से संबंधित शब्द संस्थान की धर्मनिरपेक्ष छवि को नहीं दर्शाते हैं।
बीएचयू और एएमयू के अलावा जिन विश्वविद्यालयों की लेखा परीक्षा की गई थी, उनमें पांडीचेरी विश्वविद्यालय, इलाहाबाद विश्वविद्यालय, हेमवती नंदन बहुगुणा गढ़वाल विश्वविद्यालय, झारखंड केंद्रीय विश्वविद्यालय, राजस्थान केंद्रीय विश्वविद्यालय, जम्मू केंद्रीय विश्वविद्यालय, महात्मा गांधी अंतरराष्ट्रीय हिंदी विश्वविद्यालय, त्रिपुरा विश्वविद्यालय और हरि सिंह गौर विश्वविद्यालय शामिल थे। सत्ता में बैठी मोदी सरकार के नुमाइंदों ने यूजीसी की संस्तुतियों के बावजूद "हिंदू" और "मुस्लिम" जैसे शब्दों को हटाने की जरूरत आज तक नहीं समझी।
क्या आरएसएस के दिमाग की उपज है
बीएचयू छात्रसंघ के पूर्व अध्यक्ष शिवकुमार सिंह कहते हैं, "बीएचयू में हिन्दू स्टडीज के नाम से जो कोर्स शुरू किया गया है उसमें नया कुछ भी नहीं है। यह देश और समाज के लिए शर्म का विषय है कि हम ऐसे राष्ट्र का निर्माण करते जा रहे हैं जो झूठ पर आधारित हो। "हिन्दू स्टडीज" जैसे अनुपयोगी चीजें सिर्फ इसलिए निकाली जाती हैं जिससे एक वर्ग और संप्रदाय के लिए धन का स्रोत निकलता रहे। इस तरह का नैरेटिव आजकल आरएसएस के लोग गढ़ रहे हैं। झूठ पर आधारित राष्ट्र का निर्माण करने वाले खुद झूठ का सहारा लेकर भला नवनिर्माण कैसे कर सकते हैं? संस्कृत हमारी धरोहर और दस्तावेज है। सियासी मुनाफे के लिए इसमें सांप्रदायिकता का तड़का लगाया जाना कहां तक उचित है? लगता है कि आरएसएस अब बीएचयू को अपनी सबसे बड़ी प्रयोगशाला बनाने में उतारू हो गई है। आरएसएस और विहिप के लोग यहां कुछ भी चला सकते हैं। बीएचयू में बीजेपी का कोई भी कार्यक्रम हो सकता है, लेकिन दूसरी पार्टियों के लिए इसके दरवाजे बंद मिलते हैं। शिक्षा के क्षेत्र में जितनी गिरावट मोदी सरकार के शासन में आई है, उतनी कभी देखने को नहीं मिली। बीएचयू में पहले शैक्षणिक उत्थान की बातें होती थीं और अब यहां स्टूडेंट में तनाव, मारपीट, भ्रष्टाचार, नियुक्ति में घोटोला, लूट-खसोट की खबरें ही पढ़ने को मिलती हैं।"
बीएचयू में नए-नए नैरेटिव गढ़ने वालों की नीयत पर सवाल खड़ा करते हुए शिवकुमार कहते हैं, "बीएचयू में आरएसएस के लोग इतने हावी हो गए हैं कि कुछ विभागों में दूसरे मजहब के लोगों को पढ़ाने और पढ़ने से भी रोकते हैं। हमारी पुरातन संस्कृति और सभ्यता के इतिहास को मिटाने के लिए झूठ पर आधारित इतिहास गढ़ा जा रहा है। ऐसा इतिहास जिसका रास्ता गुलामी की ओर जाता है और जहां लोगों को कटोरा लेकर भीख मांगने की जरूरत पड़ती है। मोदी सरकार इन दिनों देश के 80 करोड़ गरीबों को राशन बांटने का दावा कर रही है, जिससे पता चलता है कि कुछ ही सालों में भारत में गरीबी और बेरोजगारी किस हद तक पहुंच गई है? आखिर इतनी बड़ी तादाद में लोग गरीबी रेखा के नीचे कैसे आ गए? क्या यह सरकार जनता को कटोरा थमाने आई है? बड़ा सवाल यह है कि "हिन्दू स्टडीज" की मास्टर डिग्री लेने के बाद स्टूडेंट्स क्या करेंगे और कहां प्लेसमेंट पाएंगे, इसका जवाब किसी के पास नहीं है?"
काशी पत्रकार संघ के पूर्व अध्यक्ष प्रदीप श्रीवास्तव भी बीएचयू में "हिन्दू स्टडीज" कोर्स शुरू किए जाने पर तल्ख टिप्पणी करते हैं। वह कहते हैं, "शायद ऐसा पाठ्यक्रम शुरू कराने की बात मालवीय जी भी नहीं सोच पाए थे और भारत अध्ययन केंद्र के प्रमुख प्रोफ़ेसर सदाशिव द्विवेदी ने नया इतिहास रच डाला। ऐसा इतिहास जिससे दुनिया भर के प्रबुद्ध लोग उनकी विद्वता का लोहा मानने लगें। मदन मोहन मालवीय वैज्ञानिक नजरिए पर भरोसा करते थे। वह विज्ञान के साथ कोई खिलवाड़ नहीं करना चाहते थे। धर्म के मामले में और भाषा के मामले में भी। सौ बरस बाद सत्ता में सत्ता में बैठे लोगों की दृष्टि धर्म लेकर जितनी संकीर्ण और दकियानूस है वह सिर्फ अंधविश्वास को बढ़ावा दे सकती है। किसी को उम्मीद नहीं थी कि बीएचयू जैसी संस्था में भूत-प्रेत तंत्रमंत्र और धर्मांधता की घुट्टी पिलाई जाएगी। जिस विश्वविद्यालय को हम आगे बढ़ते देखना चाहते थे उसे सत्ता में बैठे लोग पीछे ढकेलने पर उतारू हो गए हैं। हम तो पहले से ही महाभारत, रामायण, वेद-पुराण पढ़ते आ रहे हैं। सबसे बड़ा सवाल नीयत का है कि हम जिस पाठ्यक्रम को ला रहे हैं उसमें न विज्ञान है, न संविधान है। जिनकी देख-रेख में पाठ्यक्रम शुरू किया गया है उनका तर्क यह है कि इस विश्वविद्याय के नाम के आगे हिन्दू शब्द जुड़ा हुआ है। इससे इनकी नीयत साफ हो जाती है।"
प्रदीप कहते हैं, "भारतीय शिक्षा व्यवस्था के साथ खिलवाड़ करने और उसे मनमाफिक स्वरूप देने के लिए आरएसएस का भगीरथ प्रयास साल 2014 से ही शुरू हो गया था। बारी-बारी से ये योजनाएं शैक्षणिक संस्थाओं में लागू की जा रही हैं। इनका मकसद, बेहतर आधुनिक भारतीय नागरिक तैयार करना नहीं, आरएसएस ब्रांड हिन्दू पैदा करना है। इस मनमानी पर रोक नहीं लगाने के लिए देश के शिक्षाविद् सामने नहीं आएंगे तो भारत हजारों साल पीछे चला जाएगा। अपने देश में गुलामों की एक ऐस फौज खड़ी हो जाएगी जो इनसे भीख मांगकर खाएगी और अंधविश्वास के मकड़जाल में फंसकर दम तोड़ देगी। "हिन्दू स्टडीज" को लेकर बनारस में इसलिए चुप्पी है कि 90 फीसदी बुद्धजीवी चाकर की भूमिका में हैं। सम्राट अशोक की महान परंपरा को मिटाने में जुटे ये लोग एक खास तरह की मानसिकता और विचारधारा को बढ़ावा देना चाहते हैं ताकि उन्हें नया मंच मिल सके। आरएसएस यहां ऐसी वैचारिकता को विस्तार देना चाहता है जिसका विज्ञान और विद्वता से कोई लेना-देना नहीं है। बनारस में हर किसी को याद है कि बीएचयू के संस्कृत धर्म विद्या संकाय में जब सहायक प्रोफेसर के तौर पर डॉ. फिरोज खान की नियुक्ति हुई थी तब इन्हीं लोगों ने बितंडा खड़ा किया था। शिक्षा का कोई धर्म नहीं होता, फिर भी डॉ. फिरोज को संस्कृत धर्म विद्या संकाय में नहीं घुसने दिया गया। आरएसएस के लोग बीएचयू के गौरवमयी इतिहास और परंपरा की लकीर को हिन्दुत्व के जहर से मिटाते जा रहे हैं। वह दिन दूर नहीं जब हिन्दू राष्ट्रवाद और जुमलेबाजी के पैरोकार वाल्मीकि, तुलसी और वेदव्यास के विचारों को भी भोथरा कर देंगे।"
जाने-माने साहित्यकार रामजी यादव कहते हैं, "बीएचयू के कुछ फैकेल्टी के भीतर जो गतिविधियां चल रही हैं उसे देखा जाए तो यह विश्वविद्यालय अजूबा लगता है। यहां जाति विशेष का काकस खड़ा हो रहा है। सब कुछ आरएसएस और विद्यार्थी परिषद के पैरोकार तय करने लगे हैं। जिसे लोग महामना की बगिया कहते हैं, वह भाजपा, विहिप, आरएसएस और विद्यार्थी परिषद की बगिया बनकर रह गई है। भूत विद्या का ज्ञान जितना दलितों और पिछड़ों को है, उतना कोई नहीं जानता। इनके स्किल को दबाने के लिए पहले "भूत विद्या" का कोर्स शुरू किया और अब "हिन्दू स्टडीज" का। मोक्ष, बंधन और पुनर्जन्म पढ़ाया जाएगा तो जाति व्यवस्था, अस्पृश्यता, छुआछूत, लैंगिक भेदभाव और विद्वेष के विचार तो पनपेंगे ही। दुनिया भर में तेजी से फैल रही टेक्नालाजी के दौर में ऐसी पढ़ाई तो सिर्फ दिमागी खलल पैदा कर सकता, किसी का भविष्य नहीं सुधार सकता। लगता है कि इस कोर्स के जरिए कुछ लोग अपनी कई पीढ़ियों को तारने का इंतजाम करना चाहते हैं। ये ऐसे लोग हैं जिन्हें झूठ बोलने में महारत हासिल है और वो दुनिया के तमाम चीजों से प्रतीक और मिथक भी चुरा लेते हैं। टेक्नॉलजी का नया दौर मजहबी रूढ़ियों के घटाटोप में फंसाने का नहीं, संकीर्ण मानसिकता से बाहर निकलाने का है।
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