बिहार : 18 दिनों से आशाकर्मियों की अनिश्चितकालीन हड़ताल जारी
ये किसी दर्दनाक दुर्भाग्य से कम नहीं कहा जा सकता है कि विगत 18 दिनों से अनिशिचितकालीन हड़ताल पर डटी बिहार प्रदेश की हज़ारों आशाकर्मियों व फैसिलिटेटरों की मांगों को राज्य की सरकार नहीं मान रही है। उलटे सरकार की आंखों के सामने हर दिन आंदोलनकारी आशाकर्मियों पर सरकारी-प्रशासनिक और विभागीय दमन का चक्र बढ़ता ही जा रहा है। कहीं अधिकारी अमला विभागीय पत्र भेजकर हड़ताल में शामिल आशाकर्मियों को धमका रहा है कि- ज़ल्द से ज़ल्द वे डयूटी पर वापस लौट जाएं नहीं तो सख्त कारवाई की जाएगी। कुछ स्थानों पर तो स्थानीय पुलिस प्रशासन को बुलवाकर “सरकारी कामकाज में बाधा डालने व सरकारी संपत्ति को नुकसान पहुंचाने” जैसे आरोप लगाकर मुकदमा करने व जेल भेजने की धमकियां दी जा रहीं हैं। कई स्थानों पर विभागीय अधिकारियों व पुलिस द्वारा शांतिपूर्ण हड़ताल-धरना पर बैठी आशा महिलाओं के साथ काफी निंदनीय दुर्व्यवहार करने की घटनाएं हो चुकी हैं और विरोध करने पर उनमें इजाफ़ा ही दिख रहा है।
इन स्थितियों के देखकर अब हर तरफ से ये सवाल उठने लगा है कि इस सरकार (गैर भाजपा गठबंधन) और पिछली सरकार (भाजपा गठबंधन) के रवैये में क्या फर्क रह गया है? मांगों को नहीं सुनना और दमन करना जैसा पहले था वैसा ही आज भी जारी है।
सनद रहे कि विगत दिनों पटना हाई कोर्ट तक ने कोरोना-आपदा काल के दौरान इन आशाकर्मियों व फैसिलिटेटरों के कार्यों की सराहना की है। यहां तक कि बिहार सरकार भी राज्य के ग्रामीण इलाकों में सरकार की ओर से जनता को दिए जानेवाली स्वास्थ्य सुविधाओं के तहत टीकाकरण से लेकर संस्थागत प्रसव कराने व जच्चा-बच्चा के मृत्यु दर को कम करने में हुई उल्लेखनीय प्रगति के सन्दर्भ में इन आशाकर्मियों की केंद्रीय भूमिका को सार्वजनिक रूप से स्वीकारती रही है। बावजूद इसके राज्य की सरकार ‘ग्रामीण स्वस्थ्य व्यवस्था योजना’ के सकल खर्च की एक न्यूनतम राशि भी इन आशाकर्मियों व फैसिलिलेटर पर खर्च नहीं करती है। लोगों की दिन-रात की सेवा के बदले “पारितोषिक” के नाम पर फ़क़त 1000 रुपये। मासिक भत्ता देकर सरकार और स्वास्थ्य विभाग अपना-अपना पल्ला झाड़ लेते हैं। सरकार और विभाग द्वारा निर्धारित 6 प्रकार के कार्यभारों के निर्वहन में उक्त राशि में टेम्पो-ई रिक्शा का भाड़ा का खर्च तक नहीं पूरा हो पाता है। एक दुर्भाग्य यह भी है कि अन्य राज्यों की तुलना में बिहार सरकार इन आशाकर्मियों को बिल्कुल “न के बराबर” पारिश्रमिक दे रही है।
आज भी हड़ताल पर डटी सभी आशाकर्मियों का तो यहां तक कहना है कि यदि अन्य गैर-भाजपा शासित राज्यों की भांति बिहार की सरकार उतनी राशि भी दे दे तो वे ख़ुशी ख़ुशी अपना आन्दोलन वापस ले लेंगी। लेकिन विडंबना है कि आज बिहार की “सुशासनी सरकार” उनकी बातें सुनने की बजाय नौकरशाही की बातों पर ही अमल करने पर आमादा है।
राज्य का स्वास्थ्य मंत्रालय देख रहे चर्चित राजद नेता तेजस्वी यादव को भी याद दिलाया जा रहा है कि - वे 2020 के अपनी पार्टी के चुनावी घोषणापत्र में बिहार की आशाकर्मियों के मानदेय बढ़ाने को लेकर किये वायदे और विधान सभा पटल पर दिए गए बयान को ज़मीन पर लागू करें। पटना हाई कोर्ट के निर्देश को लागू करें।
दुखद है कि इस दौरान कई आंदोलनकारी आशाकर्मी बीमार भी हो जा रहीं हैं। गत 28 जुलाई को समस्तीपुर जिला स्थित पूसा प्रखंड के कुबौली पंचायत की 45 वर्षीय आशाकर्मी संगीता कुमारी का बीमारी की अवस्था में निधन हो गया। बीमारी से पीड़ित होने के बावजूद वे हड़ताल में हमेशा आती रहतीं थीं।
विगत 12 जुलाई से “भूखे पेट अब और काम नहीं करेंगी आशा” व महज “पारितोषिक नहीं, सम्मानजनक मानदेय (कम से कम 10000 रुपये) चाहिए के नारे के साथ राज्य की हज़ारों आशाकर्मी सरकार व स्वास्थय विभाग के साथ साथ पुलिस-प्रशासन की धौंस-धमनियों का सामना करते हुए भी अपने अनिश्चितकालीन हड़ताल पर डटी हुईं हैं। संयुक्त संघर्ष मंच के नेतृत्व में जारी इस आंदोलन के तहत सरकार की संवेदनहीनता के खिलाफ गत 26-27 व 28 जुलाई को पूरे परिवार-बाल बच्चों के साथ सामूहिक सत्याग्रह किया गया। जिसके तहत आंदोलन स्थल पर ही मिलजुलकर सामूहिक रूप से खाना बनाकर खाया गया। कई स्थानों पर तो हड़ताली आशाकर्मी रात-दिन आंदोलन स्थल पर ही समय बिता रहीं हैं।
गौरतलब है कि हड़ताली आशाकर्मियों के संयुक्त संघर्ष मंच के प्रतिनिधियों से स्वास्थ्य विभाग के आला अधिकारीयों की कई वार्ता बैठकें हो चुकीं हैं जिनमें अन्य मांगों पर तो कमोबेस सहमति बन जा रही है लेकिन “पारितोषिक नहीं मानदेय” के मुद्दे पर बात आकर ठहर जा रही है। ताज़ा सूचनाओं के अनुसार लगातार तीन वार्ताओं के बावजूद सरकार की ओर से गतिरोध बना हुआ है और अब वार्ता टूट चुकी है। जिससे आशाकर्मियों में काफी रोष और निराशा है।
हैरानी की बात यह भी है कि बात बात पर बिहार की सरकार को विफल घोषित करने वाले राज्य विपक्षी दल भाजपा के नेता विधायकों में से किसी ने भी अभी तक आशाकर्मियों की जारी हड़ताल को लेकर कोई रूचि नहीं दिखाई है। लगभग यही हाल सत्ताधारी गठबंधन के भी बाकी दलों के नेता-विधायकों का दिख रहा है। वहीँ लगभग सभी स्थानों पर भाकपा माले के सभी विधायकों के साथ साथ पार्टी की स्थानीय इकाइयों के नेता-कार्यकर्त्ता सीधे रूप से जा जाकर आंदोलनकारी आशाकर्मियों से अपनी एकजुटता प्रदर्शित कर उनका सक्रियतापूर्वक साथ देते हुए दिखाई दे रहें हैं। कई स्थानों पर तो हड़ताली आशाओं के साथ प्रशासन द्वारा दमन किये जाने के खिलाफ माले विधायकों-कार्यकर्त्ताओं ने सड़कों पर विरोध-मोर्चा खोलकर उन्हें पीछे हटने पर मजबूर कर दिया।
खबर है कि राज्य स्वस्थ्य मंत्रालय देख रहे नेता तेजस्वी यादव जी ने हड़ताली आशाओं के मांग पत्र को विचारार्थ मंगवाया है। उधर आंदोलनकारी आशाकर्मी भी सरकार व मुख्यमंत्री को खुलकर चेतावनी दे रहीं हैं कि - मोदी जी के साथ साथ नितीश कुमार भी ये ध्यान में रख लें कि 2024 का चुनाव आ रहा है। अगर उनकी मांगों पर ध्यान नहीं दिया गया तो आंदोलन तो और तेज़ होगा ही, चुनाव में भी इसका हिसाब लिया जाएगा।
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