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सीओपी26: नेट जीरो उत्सर्जन को लेकर बढ़ता दबाव, क्या भारत इसके प्रति खुद को प्रतिबद्ध करेगा?

उत्सर्जन को लेकर भारत का रुख रहा है कि देश विकास के पथ पर अग्रसर है और लाखों लोगों को गरीबी से बाहर निकाल रहा है।
सीओपी26: नेट जीरो उत्सर्जन को लेकर बढ़ता दबाव, क्या भारत इसके प्रति खुद को प्रतिबद्ध करेगा?

ग्लोबल वार्मिंग पर इंटरगवर्नमेंटल पैनल ऑन क्लाइमेट चेंज (आईपीसीसी) की हालिया रिपोर्ट ने सभी देशों को अंतिम चेतावनी सुना दी है। इस वर्ष ग्लासगो में होने जा रहे संयुक्त राष्ट्र जलवायु परिवर्तन सम्मेलन (सीओपी26) से पहले भारत को “नेट जीरो” की शपथ लेने के लिए कड़ी चुनौतियों का सामना करना पड़ रहा है।

रिपोर्ट में कहा गया है कि धरती के तापमान में 1.5 डिग्री की बढ़ोत्तरी होना पूरी तरह से निश्चित और अपरिहार्य है। भारत विश्व में कार्बन उत्सर्जन के मामले में तीसरा सबसे बड़ा उत्सर्जक देश बना हुआ है और इस पर किसी भी प्रकार की प्रतिबद्धता से इंकार करते हुए उसका कहना रहा है कि देश विकास के पथ पर अग्रसर है और लाखों लोगों को गरीबी से बाहर निकालने की जिम्मेदारी उसके कंधों पर है।

हालाँकि, जैसे-जैसे दबाव बढ़ता जा रहा है, इस विवाद में भारत कहाँ पर खड़ा दिखता है और कब तक इस तर्क पर टिका रह सकता है, जबकि वह जीवाश्म ईंधन की खपत के मामले में तेजी से, बड़ी पहल के साथ आगे बढ़ रहा है, और अपने लक्ष्यों के प्रति लगातार स्पष्टता का अभाव बनाये हुए है? लगभग 110 देशों ने अपने अपने एनडीसी (राष्ट्रीय स्तर पर निर्धारित योगदानों) के बारे में सूचित किया है, लेकिन चीन, भारत और दक्षिण अफ्रीका ने इसे नहीं किया है।

नेट जीरो उत्सर्जन, कार्बन तटस्थता को संदर्भित करता है, जिसका आशय है कि एक क्षेत्र का कुल उत्सर्जन एक विशिष्ट समय में शून्य तक पहुंचना चाहिए। यदि कोई देश प्रति वर्ष एक निश्चित मात्रा में कार्बन का उत्सर्जन करता है तो इसकी क्षतिपूर्ति के लिए उसे कार्बन कैप्चरिंग, वनीकरण में इजाफा या कार्बन क्रेडिट्स खरीदकर इसकी भरपाई करनी होगी।

वैश्विक उत्सर्जन की हमारी वर्तमान दर इस समय 40 गीगाटन कार्बन डाइऑक्साइड प्रतिवर्ष है, और अनुमान है कि अगले 10 वर्षों में सभी देश मिलकर 500 गीगाटन उत्पन्न करने जा रहे हैं, जिससे वैश्विक तापमान में 1.5 डिग्री की भयावह वृद्धि होगी। इसका नतीजा भयंकर मौसमी बदलावों में देखा जा सकता है, जिसे दुनिया भर में – अचानक बाढ़ (फ़्लैश फ्लड), जंगलों की आग और पिघलते ग्लेशियर (हिमखंडों) में देखने को मिल रहा है।

इस बात को सुनिश्चित करने के लिए कि यह कार्बन बजट कहीं बर्बाद न हो जाये, विश्व को ‘नेट जीरो’ हासिल करने के लिए वनीकरण एवं इस कार्बन पर कब्जा कर उत्सर्जन को तत्काल कम किये जाने की आवश्यकता है। इसलिए, नेट जीरो का आशय यह नहीं है कि उत्सर्जन को “शून्य” कर दिया जाए, बल्कि इसका मतलब है कि कैसे कोई देश उत्सर्जन के उत्पादन की भरपाई कर सकता है और वह अपने उत्सर्जन में कितनी कटौती कर सकता है।

भारत ने लगातार इस बात को दोहराया है कि बाकियों की तुलना में उसके यहाँ औद्योगिकीकरण बाद के दौर में शुरू हुआ था, इसलिए उसकी स्थिति विशिष्ट है। इंडियन एक्सप्रेस की एक रिपोर्ट ने इस वर्ष की शुरुआत में बताया है कि, “अगले दो से तीन दशकों में भारत का उत्सर्जन विश्व में सबसे तेज गति से बढ़ने की संभावना है, क्योंकि इसने लाखों लोगों को गरीबी से बाहर निकालने के लिए उच्चतर विकास पर जोर देने का लक्ष्य रखा हुआ है। ऐसे में इस बढ़े हुए उत्सर्जन को किसी भी मात्रा में वनीकरण या पुनर्वनीकरण के जरिये भरपाई कर पाना संभव नहीं है। कार्बन मुक्त अधिकाँश प्रौद्योगिकी फिलहाल या तो गैर-विश्वसनीय हैं या फिर बेहद महँगी हैं।”

हालाँकि, महत्वपूर्ण प्रश्न यह बना हुआ है कि आखिर कब तक देश आसन्न जलवायु आपातकाल के खतरे के मद्देनजर कार्बन उत्कर्षण के मामले से राहत पाने में इस तर्क का इस्तेमाल कर पाने में सक्षम बना रह सकता है। न्यूज़क्लिक ने भारत के समक्ष आने वाली चुनौतियों के बारे में जानकारी हासिल करने के लिए कुछ कार्यकर्ताओं एवं विशेषज्ञों से बातचीत की।

क्लाइमेट कंसल्टेंसी फर्म, असर सोशल इम्पैक्ट एडवाइजर्स की सीईओ, विनुता गोपाल ने न्यूज़क्लिक को बताया: “आईपीसीसी की नवीनतम रिपोर्ट से यह बात पूरी तरह से स्पष्ट है कि ‘रेड श्रेणी’ जारी करने और खतरे की घंटी के बजाने के मामले में विज्ञान स्पष्ट है। दो डिग्री तापमान में वृद्धि वाली दुनिया बेहद क्रूर होने जा रही है, विशेषकर भारत जैसे देशों के सन्दर्भ में। यह बहुत बड़ी आपात स्थिति है; और इस सन्दर्भ को ध्यान में रखते हुए हमें जलवायु कार्यवाई और उत्सर्जन में कमी लाने के बारे में चर्चा करनी चाहिए। इसलिए, भारत के लिये यह अत्यावश्यक है कि वह अपने ‘नेट जीरो’ राह के बारे में योजना बनाना शुरू कर दे। सवाल अगर-मगर का नहीं है, बल्कि कब का है। भारत को इस बात पर विचार करने की आवश्यकता है कि कैसे वह किस प्रकार से संक्रमण की योजना बनाये जो न्यायसंगत होने के साथ-साथ महत्वाकांक्षी भी हो।

भारत ने कहा है कि जलवायु परिवर्तन पर हालिया रिपोर्ट ने 2015 के बाद से भारत के उस रुख की पुष्टि की है कि, विकसित देशों को उनके द्वारा औद्योगिकीकरण के द्वारा किये गए नुकसान की भरपाई करनी चाहिए और कार्बन उत्सर्जन के लिए गरीब देशों के लिए भी समान लक्ष्यों के लिए प्रतिबद्ध नहीं करना चाहिए। इसके अलावा, पर्यावरण मंत्रालय ने कहा है कि कार्बन उत्सर्जन के मामले में नेट जीरो के लक्ष्य को हासिल करना ही पर्याप्त नहीं है, क्योंकि “यह नेट जीरो तक संचयी उत्सर्जन है जो उस तापमान को निर्धारित करता है जहाँ पर आज यह पहुँच गया है।”

पर्यावरण मंत्री भूपेंदर यादव ने भी कहा है कि रिपोर्ट “विकसित देशों के लिए एक स्पष्ट आह्वान के रूप में है कि वे अपनी अर्थव्यवस्थाओं में तत्काल प्रभाव से उत्सर्जन में गहरी कटौती और अपकार्बनीककरण को लागू करें।”

जलवायु परिवर्तन एवं नवीकरण उर्जा, विज्ञान एवं पर्यावरण केंद्र (सीएसई) की उप-कार्यक्रम प्रबंधक, अवंतिका गोस्वामी इस रुख से असहमत हैं। उन्होंने न्यूज़क्लिक को बताया: “हम लगातार इस तर्क को आगे बढ़ाते हुए अपनी घरेलू कार्यवाही का बचाव नहीं कर सकते हैं कि कार्बन उत्सर्जन के मामले में हमारा न्यूनतम ऐतिहासिक योगदान रहा है। भारत के जलवायु लक्ष्यों को उर्जा के मामले में गरीबी और कुपोषण को दूर करने, हरित आजीविका के विकास को जो कोयले पर निर्भर नहीं है, और वन एवं आदिवासी समुदायों के भूमि अधिकारों को संरक्षित करने वाला बनाये जाने की आवश्यकता है। हमें  कोयले एवं अन्य जीवाश्म ईंधनों पर अपनी निर्भरता को तत्काल कम करने की जरूरत है, और नए निवेशों को विकेंद्रीकृत अक्षय ऊर्जा की ओर मोड़ने की जरूरत है। हमारे शहरों को जलवायु-सक्षम डिजाईन के अनुरूप बनाने, सभी के लिए किफायती एवं निरंतर सार्वजनिक परिवहन विकल्पों, और पैदल चलने योग्य, हरित सार्वजनिक स्थलों को शामिल करने की आवश्यकता है।” 

यदि भारत को नेट जीरो लक्ष्यों को स्वीकार करना पड़ा, तो इसका अर्थ यह होगा कि भारत की कोयले पर जोर दिए जाने वाली नीति पर असर पड़ने की संभावना है। भारत के राजस्व का तकरीबन 25% हिस्सा जीवाश्म ईंधन से आता है, जबकि कोयले से उत्पन्न होने वाली बिजली उत्पादन को 2040 तक दुगुना करने का लक्ष्य तय किया गया है।

कोयला क्षेत्र को दिया जाने वाला रियायती कर लाभ सबसे बड़ी सब्सिडी के तौर पर बना हुआ है और उच्च वित्तीय एवं सामाजिक लागत की भूमिका के बावजूद नए अधिनियमों एवं संशोधनों के जरिये कोयले पर पहले से कहीं अधिक जोर दिया जा रहा है, जिसके चलते यह भारत की उर्जा प्रणाली का केंद्रबिंदु बन गया है।

एक प्रमुख मुद्दा स्वच्छ एवं नवीकरणीय प्रौद्योगिकी के वित्तपोषण का भी बना हुआ है। मोंगाबे ने बताया है कि “एक अध्ययन में कहा गया है कि (वित्तीय वर्ष) 2017 में नवीकरणीय क्षेत्र के लिए सरकारी सब्सिडी अपने शीर्ष पर पहुँचने के बाद से करीब 45 प्रतिशत गिर चुकी है, जिसमें कहा गया है कि इस क्षेत्र के पुनरुद्धार के लिए समर्थन की आवश्यकता है।” 

इसके साथ ही, इंटरनेशनल इंस्टीट्यूट फॉर सस्टेनेबल डेवलपमेंट एंड द काउंसिल ऑन एनर्जी, एनवायरनमेंट एंड वॉटर के द्वारा ‘भारत की ऊर्जा सब्सिडी की मैपिंग 2021: स्वच्छ ऊर्जा को बनाये रख ने के लिए नए सिरे से समर्थन का समय’ शीर्षक वाले अध्ययन में पाया गया है कि अक्षय उर्जा के लिए दी जाने वाली सब्सिडी वित्तीय वर्ष 2017 के 15,470 करोड़ रूपये से घटकर वितीय वर्ष 2020 में 8,577 करोड़ रूपये रह गई थी।

पर्यावरण मामलों के अधिवक्ता राहुल चौधरी का इस बारे में कहना था “भारत ने पहले जो लक्ष्य निर्धारित किये थे, वे अभी तक पूरे नहीं हो पाए हैं – हमारे आईएनडीसी को लक्षित नहीं किया गया है और वे बेहद अस्पष्ट हैं। एक तरफ, भारत का कहना है कि वह पहले से ही काफी कुछ कर रहा है, वहीँ दूसरी तरफ हम पाते हैं कि कोयले और थर्मल प्लांट्स दोनों के मामले में भारी जोर दिया जा रहा है। हम न सिर्फ थर्मल पॉवर प्लांट्स को मंजूरी देते जा रहे हैं, बल्कि इन पर अपनी निर्भरता को भी लगातार बढ़ाते जा रहे हैं। हमारा रोडमैप काफी धुंधला है, जलवायु नीति उद्योग के संबंध में ग्रीनहाउस गैस उत्सर्जन की कई मुख्य गणनाओं से हम चूक रहे है।”

भारत की कार्बन सिंक और क्षतिपूरक वनरोपण की योजनायें भी अधर में लटकी हुई हैं। छह वर्ष पूर्व, देश ने 2015 के पेरिस समझौते के तहत एनडीसी लक्ष्य के हिस्से के तौर पर 2030 तक 2.5-3.0 अरब टन सीओ2 के बराबर अतिरिक्त कार्बन सिंक उत्पादन करने का वादा किया था। 

आरंभिक रुझानों से पता चलता है कि लक्ष्यों को आधा ही पूरा किया जा सकता है। भारत प्रतिपूरक वनीकरण निधि प्रबंधन एवं योजना प्राधिकरण (सीएएमपीए) के तहत प्रतिपूरक वनीकरण करता है, जो प्रतिपूरक वनीकरण करने के लिए धन हासिल करने एवं प्रबंधन के लिए एक संस्थागत तंत्र है।

विशेषज्ञों ने सीएएमपीए की नष्ट हो चुके, पुराने-विकास वाले कार्बन-समृद्ध वनों की भरपाई करने की क्षमता पर सवाल खड़े किये हैं। उनका कहना है कि वनों की जटिल जैव-विविधता को कभी भी एकल संस्कृति (मोनोकल्चर) वाले वृक्षारोपण के द्वारा भरपाई नहीं की जा सकती है।

अंग्रेज़ी में प्रकाशित मूल आलेख को पढ़ने के लिए नीचे दिये गये लिंक पर क्लिक करें

COP26: Pressure Mounts for Net Zero Emissions, But Will India Commit?

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