इतवार की कविता : सस्ते दामों पर शुभकामनायें
बाज़ार
नुकीले सींग लिये घुसा आ रहा बाज़ार
सीवान की सरहद के पार
हमारे खेत खलिहान
मड़ई पर चढ़े
हमारे नेनुआ तरोई
हमारी भाषा हमारे चमकीले गीत
हमारी रसोई जहां भूख सीझती है
पतीलियों में
हमारे बच्चों की उत्कट भूख
हमारी अदमनीय हंसी की हंसुली
चांदी की
खरीद लेगा नासपीटा बाज़ार
सुना है उसके पास पैसा बहुत है
पैसे से वो ख़रीद लेता है लोगो की भाषा
उनके मौलिक विचार
किडनी और अंतड़ियां
लहू और लहू का लाल रंग ख़रीद लेता है बाज़ार
बेचता है सस्ते दामों पर शुभकामनायें
हार्दिक इच्छायें
मगंलकामनाओं के आर्ची कार्ड
बाज़ार सस्ते दामों पर बेच देगा
इंटरनेट पर बीमार बाप के मर जाने की मेरी दुश्चिंता
जलकर मरी बेटी के झुलसे पांव के वीडियो
बना बेच देगा
आंख मलती उठती हूं
डर की चादर झटककर रख दूं
पी लूं कूयें का ठंडा पानी
जो अब बस स्मृति में हैं
मिठउवा आम के नीचे जेठ की तपती दुपहरिया में
गाये कुछ गीत गुनगुना लूं
क्या पता कब बाज़ार इन्हे भी ख़रीद ले
सस्ते दामों में बेच दे
आख़िर यही तो है सबसे अच्छा सबसे सस्ता
(कवि प्रज्ञा सिंह एक शिक्षिका हैं और आज़मगढ़ में रहती हैं।)
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